परिव्राजक की डायरी

वन का वृत्तान्त


बचपन में हम सोचते थे कि जंगल में बाघ, भालू आदि पेड़ों के झुरमुट में झुण्ड बनाकर घुमते हैं । परन्तु वास्तव में जब विस्तृत वनों के देखने का सौभाग्य मिला तो देखा कि जिसको सचमुच अरण्य कहा जाता है, वह हमारी समस्त कल्पना का अतिक्रमण कर जाता है ।

       वह मानों एक अलग ही राज्य है । मनुष्य जगत् से उसका कोई मेल नहीं है । चारों ओर विशाल वृक्ष पंक्तिबद्ध खड़े हैं । ऊपर आकाश का प्रकाश पत्तों के झुरमुट से होकर कहीं-कहीं से दिखता है या कहीं से नहीं दिखाई देता है । एक-एक विशाल वृक्ष के मोटे तने की ऊँचाई चालीस-पचास हाथ तक सीधी है, उसके बाद ऊपर की डालियाँ व पत्तियाँ एक-दूसरे से जकड़ी हुई हैं । जो पेड़ बड़े पेड़ों के साथ जीवन यात्रा रुपी युद्ध में खड़े नहीं हो सकते, वे सभी लता के आकार में बड़े पेड़ों के तने का आश्रय लेकर ऊपर की ओर बढ़ते हैं और सुविधा मिलने पर मूल पेड़ को मारे बिना नहीं छोड़ते । वे उसका सारा रस अपने पोषण के लिए खींच लेते हैं । यह नितान्त आश्चर्य का विषय है कि इन सारे विशाल वृक्षों में लिपटी लताओं के पत्ते व फूल साल और अन्य विशाल वृक्षों की अपेक्षा बहुत अधिक थे । लताएँ दूसरे पेड़ों की शाखाओं से लिपटकर बढ़ती हैं, अतएव उनकी सारी शक्ति उनके भार को वहन करने में लग जाती है । पत्तों के विस्तार और वैचित्र्य में वे आँखों में चमक ला देती हैं । तथापि जिनके तनों से होकर ये लताएँ गुज़रती हैं, उन वृक्षों में अधिक फूल-पत्ते नहीं लगते । वे मात्र पुरुषोचित शक्ति से स्थिर होकर आकाश की ओर ताकते घनी पत्तियों के साथ खड़े रहते हैं ।

       गहन वन एक अलग ही स्वतंत्र जगत् है । यहाँ के विभिन्न जीवों के समान ही यहाँ का मनुष्य भी एक सामान्य जीव है जो वन देवता की दया से किसी प्रकार बचा रहता है । वन में लोगों का आना-जाना इतना कम है कि कोई भी स्थायी रास्ता नहीं बन सका है । शायद कोई लकड़हारा अपने लिए रास्ता बनाता हुआ चला जाता है और जाते समय दोनों ओर के पेड़ों पर कुल्हाड़ी की चोट से निशान बना देता है । उसके बाद के लोग उस निशान को देखकर अपना रास्ता पहचान लेते हैं ।

       छोटा नागपुर में ऐसे ही एक रास्ते से जाते हुए एक दिन मैंने देखा कि एक स्थान पर कई छोटे पत्थरों को ढेर बनाकर मानों सजाकर रखा गया है । हमारे सहयात्री ने बताया कि इस तरफ़ से महाजन लोग बैल की पीठ पर अपना माल लादकर जंगल के बीच से आया-जाया करते हैं । बैलगाड़ी किसी भी तरह इस रास्ते से नहीं जा सकती । इधर से जो भी गुज़रते हैं, वे सभी यहाँ वनदेवता को प्रसन्न करने के लिए अपने हाथ से एक टुकड़ा पत्थर इस ढेर पर रखकर चले जाते हैं ।

       जंगल में मनुष्य का दर्शन तो वैसे ही दुर्लभ होता है, इसीलिए मनुष्य के हाथ से रखे हुए पत्थर के टुकड़े को देखकर भी आने वाले पथिक के हृदय को एक भरोसा मिलता है । इसी प्रकार से कितने सौ वर्षों सो एक अज्ञात पथ के समीप किसी अनजाने वन देवता की अर्धवेदी बन गई है ।

       बहुत-से शिकारी मित्रों के साथ मैं एक दिन शिकार देखने के लिए गया था । वन के एक छोर पर कई पेड़ों के ऊपर मचान बाँधे गये । उधर गाँव के लोग बहुत दूर से ही मिट्टी के तेल का कनस्तर बजाकर जंगली जानवरों को हमारे मचानों की ओर हाँककर लाने लगे । जिस मचान पर शिकारी बैठे थे, हम उस मचान पर नहीं बैठे । जिस मचान के निकट बाघ के आने की सम्भावना नहीं थी, ऐसे ही एक मचान पर मैं और मेरा मित्र, दोनों फ़ोटो खींचने की सारी सामग्री लेकर बैठे रहे । हम लोगों को केवल इसी से मतलब था कि हम लोग वन के जीव-जंतु देखेंगे और यदि सम्भव हुआ तो उनके फ़ोटो खींचेंगे ।

       हम दो लोग उस निस्तब्ध वन में कुछ देर तक बैठे रहे । चारों ओर से जीव-जन्तुओं की कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी । पत्तों की मर्मरध्वनि और झींगुरों की आवाज़ को छोड़कर प्रायः और कुछ नहीं सुनाई दे रहा था । जंगल में झींगुर लगातार आवाज़ करते जा रहे थे । हमें अनुभव होता कि झींगुर कभी एक तरफ़ से बोल रहा है तो कभी बिल्कुल उल्टी तरफ़ से बोल रहा है । वास्तव में, एक झींगुर जब बोलते-बोलते शांत हो जाता तो मानों उसके स्थान की पूर्ति के लिए वृक्ष के किसी कोटर से और एक झींगुर उस तान को पकड़ लेता था ।

       कुछ देर तक ऐसे ही बैठे रहने के उपरान्त हम समझ गये कि हरकारे दूर से अपना हाँक प्रारम्भ कर चुके हैं । बहुत दूरी पर उनका कोलाहल धीमे-धीमे सुनाई पड़ रहा था । क्रमशः वह शोर और भी निकट तथा और भी तीव्र होता आ रहा था, परन्तु कोलाहल आरम्भ होने मात्र से वन के जीव-जन्तु भाग-दौड़ आरम्भ करने लगे हों, ऐसा नहीं था । बहुत देर के बाद तक भी कोई आवाज़ स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ रही थी । एकाग्र भाव से सुनने की चेष्टा में हमारी श्रवण शक्ति मानों तीक्ष्ण हो गई थी । हरकारों की आवाज़ और झींगुरों के अतिरिक्त हम लोगों ने आचानक खस् खस् जैसी एक आवाज़ सुनी परन्तु अगले ही क्षण वह आवाज़ थम गई । हम लोग तेज़ी से यह देखने लगे कि कहीं भी कुछ हिल रहा है या नहीं । इसी समय दिखाई दिया कि दो-तीन बहुत बड़े-बड़े हिरण पेड़ों के बीच खड़े होकर इधर-उधर देख रहे हैं । वे मानों अभी तक यह नहीं समझ पा रहे थे कि मनुष्यों की आवाज़ किस तरफ से आ रही है । ऐसे में वे किस ओर भागें, इसका निर्णय नहीं कर पा रहे थे । हरकारों का शोर क्रमशः और निकट आने लगा और अचानक सम्भवतः यही समझकर हिरणों का यह छोटा सा दल हमारे मचान के पास से होकर भागते हुए आँखों से ओझल हो गया ।

       इसके बाद बहुत देर तक और कोई भी आवाज़ नहीं सुनाई दी । हरकारे और भी पास आने लगे, परन्तु किसी बाघ या भालू को न देखकर हम लोग निराश हो गये थे । इसी समय अचानक एक ऐसी आवाज़ सुनाई दी, जैसे कोई बड़ा जानवर हमारी ओर तेज़ी से भागता चला आ रहा है । हमारे साथी मित्र ने बताया कि यह साँभर या अन्य किसी खुर वाले जानवर की आहट नहीं है, बाघ भी हो सकता है । हम लोग यही सब विचार कर रहे थे कि इसी समय हमारे मित्र ने धीरे से कहा ठबाघ' । उन्होंने जिस ओर हाथ दिखाकर संकेत किया मैंने उस ओर दृष्टि फेरकर देखा तो वास्तव में एक भरा-पूरा बलिष्ठ बाघ खड़ा था । वह क्या करे, यह समझ नहीं पा रहा था । शिकारियों ने हमें निर्देश दिया था कि यदि बाघ हमारे मचान के पास आता है तो हम लोग ख़ूब आवाज़ करके उसे उल्टी दिशा में लौटा देंगे । उसी निर्देश पर हमारे साथी ने अचानक हाथ से ज़ोरों की ताली बजाना प्रारम्भ कर दिया । मैंने भी उन्हीं का अनुसरण किया ।

       बाघ ने अभी तक हम लोगों को नहीं देखा था, परन्तु इस बार आवाज़ सुनकर उसने ऊपर की ओर दृष्टि डालकर हम लोगों को देख लिया । सहसा उसने एक हुंकार भरी और दाँत बाहर निकालकर हमे डराने का प्रयास किया । जो भी कारण हो, हम लोग अपना डर भगाने के लिए और तेज़ी से ताली बजाने लगे । बाघ पूरे घटनाक्रम को समझ नहीं पाया । उसके बाद वह उल्टी दिशा में न जाकर मचानों के बीच से होकर तेज़ी से दौड़ते हुए अचानक अदृश्य हो गया, जिस प्रकार अच्छी नस्ल का घोड़ा दौड़ता है । हम लोगों को लगा कि बाघ ऐसे घोड़े से भी अधिक तेज़ी से वृक्ष समूहों को पार करता हुआ भाग गया ।

       उस दिन निश्चित रुप से बाघ का शिकार नहीं हुआ । बाघ देखने की खुशी में मैं कैमरे का शटर दबाना भुल गया था । जो भी हो, हरकारों के धीरे-धीरे हमारे मचान के समीप पहुँचने पर हम लोग नीचे उतर आये । हरकारों में एक व्यक्ति को एक नवजात हिरण-शावक मिला था । उसकी माँ डरकर पहले ही भाग गई थी, परन्तु वह शावक उधर से जाते हुए बहुत-से लोगों को देखकर उनके साथ हो लिया । उसकी आँखों में भय नहीं था । उसे ज़मीन पर उतार दिया । वह नि:शब्द भाव से हमारे साथ दौड़कर चलने लगा ।

       तब एक ग्रामीण उसे गोद में उठाकर घने जंगल में कुछ दूर छोड़ आया । वे आपस में बातचीत करने लगे कि संध्या होने से पहले ही हिरण की माँ निश्चय ही अपने शावक को खोजकर ले जायेगी ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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