परिव्राजक की डायरी

सन्यासी


हिमाचल प्रदेश में जहाँ पर ज्वालामुखी तीर्थ है, किसी समय उसके उत्तर भाग में त्रिगर्तमंडल नामक राज्य था । चारों ओर पहाड़ों से घिरा है, अतः यह प्रदेश बहुत दिनों तक स्वतंत्र रहा । स्थान प्राचीन है और आज भी यहाँ बहुत से ब्राह्मण और क्षत्रिय रहते हैं । त्रिगर्तमंडल में अनेकों प्राचीन मंदिर हैं । उसमें से कई तो जीर्ण और भग्न अवस्था में प्राचीन काल की स्मृति को सँजोये हुए हैं और कई गाँव के दरिद्र निवासियों के उत्साह के कारण कुछ ठीक-ठाक अवस्था में खड़े हैं । वहाँ अभी भी संध्या और रात्रि में दीया जलाया जाता है ।

       कई साल पहले घूमते-घूमते पठानकोट के पूरब की ओर इसी प्रकार के प्राचीन गाँव मे मैं आया था । गाँव का नाम पठियार था । जिस समय मैं वहाँ पहुँचा, उस समय दिन प्रायः ढल चुका था । तथापि सुबह जब मैंने यात्रा प्रारम्भ की थी तो यही तय था कि संध्या से पहले ही पठियार से पंद्रह कोस की दूरी पर एक मंदिर देख आऊँगा । गाँव में सरकारी सड़क के पास ही एक हलवाई की दूकान थी । वह व्यक्ति काफ़ी उम्र का था । उसके गले में कई माला, माथे पर तिलक और सिर पर एक बड़ी-सी पगड़ी थी । हिमाचल प्रदेश में भोजन की दूकान में अतिथि सज्जनों के लिए विश्राम की व्यवस्था भी रहती है । कुछ खाने के पश्चात चार पैसा अतिरिक्त देने पर ही एक रात के लिए एक खटिया किराये पर मिल जाती है । जो पथिक या व्यापारी कश्मीर या तिब्बत जैसे भागों से यहाँ यात्रा करते हैं, उन्हें ऐसी व्यवस्था से बहुत सुविधा होती है । इसके अतिरिक्त यहाँ के दूकानदारों को भी इससे यथेष्ट लाभ होता है।

       अपना सामान दूकान के एक कोने में घुसाकर मैं तेज़ी से पैदल ही प्राचीन देवालय के दर्शन के लिए चल पड़ा । वहाँ पहुँचकर मैंने देखा कि इतिहास के पाठ में इसे जितना प्राचीन कहा गया है, वास्तव में ये उतने प्राचीन नहीं हैं । तथापि मंदिरों के विषय में विभिन्न तथ्यों को एकत्र कर मैं जब पठियार लौटा, तब तक शाम चढ़ आई थी । मेरे लौटने के बाद हलवाई भोजन की तैयारी करने लगा । हाथ मुँह धोने के लिए मैं भी उसके कहे अनुसार पास की नदी की ओर चला गया । उस समय शुक्ल पक्ष की रात थी । सरकारी रास्ते के निकट ही एक पतली-सी नदी थी । वास्तव में, त्रिगर्तमंडल के पर्वतों से घिरे होने पर भी पठियार के निकट के क्षेत्र का बहुत-सा स्थान समतल था । चाँद के प्रकाश में चक-चक करती हुई नदी कुछ दूर पर जाकर थोड़ी टेढ़ी होकर अदृश्य हो गई थी । पीछे के खेतों में तथा नदी प्रांत में दो एक जगह पर कुछ बड़े पत्थर दिख रहे थे । संध्या की निर्जनता का आनंद लेने के लिए उस पर बिल्कुल चुपचाप बैठने की इच्छा हुई । दूर लोगों का कोलाहल सुनाई पड़ रहा था । लोग सम्भवतः झुण्ड बनाकर गीत गा रहे थे । आकाश में चाँद की ज्योत्स्ना ख़ूब हल्के कुहासे में किंचित निष्प्रभ हो गई थी ।

       काफ़ी देर तक नदी तट पर बैठने के पश्चात मैं जब दूकान लौटा, तब तक दुकानदार ने बहुत यत्नपूर्वक खाना सजा दिया था । भोजन समाप्त होने पर उसने अपने पास बैठकर बात करने के लिए कहा । भोजन का मुल्य देने के पश्चात मैं जब उसे रात में सोने के लिए और भी मूल्य देने गया, तब तक कुछ भी लेने को राजी नहीं हुआ । सुदूर से यात्री उसके देश का मंदिर देखने आये हैं, ऐसे में उससे भोजन के मूल्य लेने में मानों उसे कुण्ठा हो रही थी, किन्तु वह करे भी क्या, उसे भी तो रोज़गार करके ही जीविका चलानी पड़ती है ।

       दुकान में काम समाप्त करके दुकानदार ताक पर से एक पुराने ग्रन्थ उतारकर दीये के समीप पाठ करने के लिए बैठा । उसका छोटा पोता जो सारा दिन दादा के इधर-उधर करता रहता है, वह भी थककर दीवार के किनारे एक छोटी चटाई बिछाकर दादा के साथ बैठकर ध्यान से ग्रन्थ-पाठ सुनने लगा ।

       प्राचीन काल की बात है । त्रिगर्तमंडल के किसी राजा ने महापराक्रम के साथ युद्ध किया था । धर्म तथा गो-ब्राह्मण की रक्षा के लिए उन्होंने अपने जीवन का त्याग कर दिया था । उन्हीं की कथा वह ब्राह्मण जोर-जोर से पढ़ने लगा । बीच-बीच में भाव के आवेग में अपने छोटे-से पोते को वीरता की यह सारी कथा वह और भी सरल भाव से समझाने लगा । मैं भी तन्मय होकर सुन रहा था । कुछ देर बाद बच्चे के सो जाने पर उसके दादा ने धीरे-से उठकर उसे एक चादर ओढ़ा दी, इसके बाद उसने गमछा मोड़कर सिर के नीचे तकिए की तरह रख दिया । इसके बाद पुनः अपने स्थान पर लौटकर थोड़ी लकड़ी जलाकर इतिहास की कथा पढ़कर सुनाने लगा ।

       रात के दस बजे थे । मैंने दुकानदार को सोने की व्यवस्था करने के लिए कहा । बूढ़ यत्नपूर्वक मुझे दुकान के ऊपर दूसरे तले पर लकड़ी निर्मित कमरे में ले गया और वहाँ पर अपना बिस्तर दिखाकर मुझे उसी पर सोने का अनुरोध किया और कहा कि आज उसकी इस सामान्य अतिथि-सेवा को नकारें नहीं ।

       दुकानदार के अनुरोध ने सहज ही मेरे हृदय को छू लिया । उसका आयोजन तो सामान्य था, परन्तु दूर देश का एक अपरिचित एक दूसरे अपरिचित व्यक्ति के लिए इस प्रकार का अकल्पनीय स्नेह वितरित कर रहा है वास्तव मे, यह सोचकर मेरा हृदय अभिभूत हो उठा।

       कितनी देर सोया, यह नहीं कह सकता । घनी रात मे कई लोगों के उत्तेजित स्वरों से मेरी नींद टूट गई । मैं दुकानदार की आवाज़ को पहचान गया । उसके साथ अन्य दो-तीन लोग भी पहड़ी भाषा में बात कर रहे थे । मैं बस यही समझ पाया कि किसी के दु:ख की बात चल रही है । अस्पताल और डॉक्टरों की बात । थोड़ा गरम दूध पिलाने की व्यवस्था । यही सब बातें बीच-बीच में समझ में आ रही थीं, परन्तु हुआ क्या है ? उस रात उठकर इसका पता लगाने का उत्साह नहीं था । थोड़ी देर बाद मैं फिर सो गया । पुनः जब नींद भंग हुई, तब तक भोर होने को आ गई थी । पूरब से प्रकाश का आना प्रारम्भ हो गया था ।

       शीघ्रतापूर्वक बिस्तर मोड़कर प्रातकर्म के लिए मैं बाहर निकर गया । बाहर बहुत अच्छी हवा बह रही थी । कुछ दूर चलने पर रात वाली नदी के निकट ही पहँच गया, परन्तु भोर के प्रकाश में मैंने देखा कि उसका रात के सम्पूर्ण सौन्दर्य मानों विलुप्त हो गया था । चारों ओर धूसरमिट्टी व बीच-बीच में काले पत्थर निकले हुए हैं । उसके निकट ही एक पतली-सी नदी एक सामान्य नाले की तरह बही जा रही थी । रात की वह अपरुप शोभा मानों तनिक भी नहीं बची थी ।

       सुबह होने पर काफ़ी प्रकाश हो गया है और खेतों में दो-चार लोगों ने आना-जाना भी प्रारम्भ कर दिया है । वृद्ध मुसलमान सिर पर सफ़ेद टोपी पहनकर नदी की ओर जा रहा था। मैं भी घूमते-घूमते थोड़ी दूर तक आ गया था । ऐसे में जल की धारा के बीच चौड़े पत्थर पर पड़ा हुआ एक वस्र मुझे अचानक दिखा । कौतूहलवश निकट जाते ही मेरा शरीर थर-थर काँपने लगा । मैंने देखा कि पत्थर पर एक जटाजूट सन्यासी का मृत शरीर पड़ा हुआ है ।

       मृत्यु से पहले सम्भवतः वे बैठे हुए थे, परन्तु वास्तव में, बैठे रहने की सामर्थ्य उनमें नहीं थी, इसीलिए निकट के एक पत्थर पर पैर मोड़कर नदी की ओर मुँह किये हुए बैठे थे । उसी अवस्था में उनकी मृत्यु हो गई थी । निकट ही अग्नि का एक कुंड था । उनकी शिखा खुली हुई थी । सुबह की हवा में होम-कुंड की राख इधर-उधर उड़ रही थी । मृत्यु के स्पर्श से साधु का शरीर भी क्रमशः कठोर हो गया था । उसके बाद वे और अधिक देर तक उस पत्थर पर स्थिर नहीं रह सके और सामने की ओर झुककर अंततः उलटकर गिर पड़े । पाँव मुड़े हुए थे और शरीर का निचला भाग लकड़ी की गुड़िया की भाँति आकाश की ओर उठा हुआ था । माथे पर भ लगी थी और जटा का एक भाग लहरों के थपेड़ों से भीग गया था । उनके शरीर पर एक चादर थी, उसी से लिपटकर एक हाथ और पीठ फँस गयी थी । कुल मिलाकर उस वस्र का एक अस्वाभाविक और वीभत्स रुप बन गया था । अब क्या करना चाहिए, मैं रुककर यही सोच रहा था कि इतने में वह वृद्ध मुसलमान पास आया । वह वृद्ध यह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि वास्तव में इन बेचारे सन्यासी का स्वर्गवास हो गया है । उसने मुझे बताया कि बहुत दिनों से ये रोग के कारण बेहोश हो गया हैं । वृद्ध मुसलमान ने दो-चार बार बड़े स्नेह से सन्यासी को "भइया उठो, उठ जाओ भइया" कहते हुए आवाज़ लगाई, परन्तु उस समय कौन उसके स्नेह भरे आश्वासन के उत्तर देता ? सुबह होने पर गाँव के और लोग भी वहाँ पहुँचे । उनके बीच मैंने अपने मित्र और आश्रयदाता हलवाई को भी देखा । तब उसने उस सन्यासी की कथा का विस्तारपूर्वक व्याख्यान किया । लगभग दो सप्ताह पहले ये सन्यासी पठियार गाँव आये थे । काफ़ी दिनों से बीमार रहने के कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया था । ग्रामीणों ने उनकी सेवा के लिए यत्नपूर्वक यथयोग्य व्यवस्था की, परन्तु उन्होंने उस सभी को अस्वीकार कर दिया । उन्होंने गृहस्थों से कहा कि उनका शरीर अकर्मण्य हो गया है और इस शरीर से और काम नहीं चलेगा, अतः उन्होंने इसके त्याग का संकल्प किया है । गृहस्थ लोग आटा, दूध आदि भोजन के विभिन्न सामान लेकर उनके पास आये, परन्तु सन्यासी ने उसे छुआ तक नहीं फलतः उनका शरीर और अधिक दुर्बल हो गया ।

       पिछली रात को शरीर की अवस्था बहुत ख़राव हो गई थी । दुकानदार व अन्य कई लोगों ने उनसे गरम दूध पीने का बहुत अनुरोध किया था । गाँव के वैद्य ने कई प्रकार से समझाने का प्रयास किया था, परन्तु सन्यासी ने हँसते हुए सब कुछ अस्वीकार कर दिया । दुकानदार जब सन्यासी के पास से चला आया, तब रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था । उसके बाद ही उनका स्वर्गवास हो गया था । मृत शरीर के गिर पड़ने पर चोट से चेहरे का एक भाग विकृत हो गया था, परन्तु उनके चेहरे पर किसी भी प्रकार की पीड़ा या यंत्रणा का कोई भी चिन्ह नहीं दिखाई दिया । उनकी आँखों में एक नितान्त अर्थहीन चाह को छोड़कर और कुछ भी नहीं था ।

       गाँव के लोग धीरे-धीरे सन्यासी की वह्मि समाधि की व्यवस्था करने लगे । मैं भी पठियार से दूसरे गाँव की ओर रवाना हो गया, परन्तु सन्यासी की बात मैं किसी भी तरह मन से नहीं निकाल सका कि शरीर जीर्ण हो गया है, इससे और काम नहीं चलेगा, अतः इसका त्याग करना होगा । जो व्यक्ति इस बात को सहज भाव से ही समझ लेते हैं, उनमें कितनी शक्ति होती है ।

       मृत्यु की वैसी अर्थहीन दृष्टि मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ । उस दिन मैं जैसे सन्यासी की मृत्यु का कोई भी अर्थ नहीं खोज पाया था, आज भी समय-समय पर मन में यही आता है कि हमारे इस जीवन का अर्थ क्या है ? उसकी सार्थकता कहाँ है ?

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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