परिव्राजक की डायरी |
चैता |
|
राँची
से हजारीबाग जाने के मार्ग में मुख्य
सड़क से लगभग सात-आठ मील दूर बेड़मो
नामक एक छोटा-सा गाँव है । गाँव के
समीप ही साल के वनों से आच्छादित
पहाड़ है । इसी की तलहटी में चूना-पत्थर
की एक छोटी-सी खान है । समीप ही एक
पतली-सी पहाड़ी नदी बहती है ।
वर्षा के दिनों में यह मटमैले जल
से भर जाती है और कभी-कभी तो तेज़
लहर से पास के दो एक साल बहकर
चले जाते हैं, मगर आमतौर पर शान्त
लहरें कल-कल करती हुई विभिन्न
रंगों के पत्थर के टुकड़ों को हिलाते
हुए बहती रहती हैं ।
बेड़मो गाँव में अधिक लोग नहीं
रहते । उन्हीं में चैता नाम का एक व्यक्ति
रहता था । वह पत्थर की खान में कुली
का काम करता था । वह इस सामान्य
रोज़गार से संतुष्ट होकर सुखी,
सांसारिक जीवन व्यतीत कर रहा था
। उसकी पत्नी और छोटे भाई को छोड़कर
संसार में उसका और कोई नहीं था
।
बोड़मो गाँव के चूना खदान के
मालिक मेरे बहुत अच्छे मित्र थे । वे
राँची में ही रहते थे और कार्य की
देखभाल के लिए बीच-बीच में साइकिल
से ही बोड़मो आते-जाते थे । एक बार
किसी कार्य के सम्बन्ध मे मैं राँची गया
हुआ था । ऐसे में अचानक मेरे मित्र से
यहाँ सूचना मिली कि खान में एक दुर्घटना
हो गई है । खान में काम समाप्त करके
जब सभी घर लौट रहे थे, तभी अचानक
पैर फिसल जाने से चैता पहाड़ से
एक गड्डे मे गिर पड़ा, उसके साथ ही
पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा भी गिर गया,
जिसकी चोट से चैता का हाथ-पैर टूट
गया।
सूचना मिलते ही मेरे मित्र अत्यंत
चिंतित हो उठे परन्तु रात में किसी
भी तरह वहाँ जाना सम्भव नहीं था
। अतः दूसरे दिन सुबह होते ही वे
बेड़मो के लिए रवाना हो गये । मैं
भी साथ हो लिया ।
जब हम लोग बेड़मो पहुँचे, तब
सुबह के लगभग नौ बज चुके थे । चैता
के घर के बाहर बैठी उसकी पत्नी आँखे
पोंछ रही थी । हम लोगों को देखकर
वह दहाड़ मारकर रोने लगी । घर
में गाँव के दो-चार और लोग भी बैठे
हुए थे । बिस्तर के पास आकर हमने देखा
कि चैता हमने देखा कि चैता बिल्कुल
बेहोश है, परन्तु उसका दाहिना पैर
फूलकर अस्वाभाविक आकार का हो गया
है । हाथ या और कोई अंग नहीं टूटा
था, जबकि दाहिने पैर की हड्डी टूटकर
दो टुकड़े हो गई थी । सूजन आ जाने
से पैर के ऊपर का चमड़ा तन गया था
और वह तेल के समान चमक रहा था
। उस पर धीरे-धीरे हाथ सहलाकर
यह लगा कि वहाँ पर चैता को कोई
अनुभूति नहीं हो रही ।
चैता को रोगी बने बिस्तर पर
लेटे देखकर मुझे बहुत दु:ख हुआ
। एक असहाय भाई और पत्नी का एक छोटा
संसार पूर्ण रुप से उसी के रोज़गार
पर निर्भर था । मात्र यही बात नहीं थी।
बेचारा चैता स्वस्थ शरीर से प्रातः काम
पर गया था । परिश्रमी होते हुए भी
यह दैवी दुर्घटना मानों उनके जीवन
के रास्ते में अचानक एक बाधा बन गयी
थी ।
मेरे मित्र ने चैता से पूछा, "चैता,
क्या तुम्हें बहुत कष्ट हो रहा है
?" चैता हँसने की चेष्टा करते हुए
मात्र यह बोला, "नहीं बाबू, पैर
ने तो बहुत दिनों तक मेहनत की
है, इस बार छुट्टी चाह रहा है
।" हमने उसे समझाकर कहा कि डरने
की कोई बात नहीं है । अस्पताल जाते
ही पैर ठीक हो जायेगा तथा वह और
अधिक काम कर पायेगा, परन्तु किसी भी
तरह चैता ने अस्पताल जाना स्वीकार
नहीं किया । इस बार उसने पास के
ही जड़ी-बूटी से चिकित्सा करने की बात
कहकर एक रुपये की माँग की और बोला,
"अभी तो मुझसे कुछ नहीं होगा ।
बैठा ही रहूँगा अर्थात् बैठे-बैठे
ही सारा काम कर्रूँगा ।" वह इस बात
को इतनी धीरतापूर्वक बोला कि
हम दोनों अवाक् रह गये । ऐसी प्रचण्ड
व्यथा में भी कोई व्यक्ति धीर-भाव
से सारा जीवन लँगड़ बनकर रहने
की कल्पना भी कर सकता है, मैं यह कभी
सोच भी नहीं पाया था । मेरे मित्र ने
चैता को अनेक तरह से समझाया कि
अस्पताल में तुम्हारा पैर नहीं काटेंगे,
तुम्हें वास्तव में शीघ्र आराम मिल जायेगा,
परन्तु किसी भी तरह चैता को डिगाया
नहीं जा सका । डाक्टरी पर उसे तनिक भी
आस्था नहीं थी, इसीलिए उसने गाँव छोड़कर
जाने की बात को पूरी तरह अस्वीकार
कर दिया । जड़ी-बूटी की चिकित्सा चलने
लगी । धीरे-धीरे चैता ठीक भी होने
लगा । कई महीनों के बाद जाकर पाँव
के जड़पन और पीड़ा का निवारण हुआ,
किन्तु चैता लँगड़ा हो गया । वह बैठे
ही बैठे घर के भीतर या झोंपड़ी के
प्रांगण में घूमा करता था, किन्तु इसके
लिए उसके मन में कोई क्षोभ नहीं था
। पैर टूटा जानवर वह किसी के ऊपर
क्रोधित नहीं होता था बल्कि जैसी अवस्था
में है, उसी को अंगीकार कर चलने का
प्रयास करता था ।
कई महीनों को बाद हम लोग
पुनः एक बार बेड़मो गये । उस समय
चैता घर पर नहीं मिल सका था । उसकी
पत्नी ने बताया कि आजकल वह थोड़ा
बहुत चल-फिर लेता है और बकरी
चराने पास के ही जंगल में गया है
। उसकी पत्नी अब पत्थर की खदान में काम
करती है, छोटा भाई बोझा उठाता
है । इस प्रकार दोनों के प्रयास से
संसार की यात्रा का किसी तरह से निर्वाह
हो जाता है । इसके बाद मैं राँची
से चला गया । कलकत्ता में अपने कार्यों
के बीच चैता की स्मृति बहुत क्षीण
हो गई, परन्तु किसी भी दिन उसे पूरी
तरह से नहीं भूल पाता हूँ । अपने शरीर
में किसी भी तरह का दु:ख, क्लेश
होने पर चैता के रोगी शरीर की
बात याद आ जाती है । उसके शांत चेहरे
की हँसी और सहज भाव से सारा जीवन
बैठकर ही काट देने का संकल्प याद
आने पर हृदय को बल मिलता है । ऐसे
में अपने जीवन के मेरे सामान्य मानसिक
दु:ख-कष्ट के भान नितान्त तुच्छ और
हल्के लगने लगते हैं । कुछ दिनों बाद
पूजा के समय मैं पुनः राँची गया था
। तब एक दिन बहुत-से लोगों के साथ
मैं वनभोज के लिए बेड़मो गाँव गया
था । चूने के खदान के पास आकर चैता
को देखने की इच्छा हुई । पुराने रास्ते
को पहचानने में देर नहीं लगी । चैता
के घर पहुँचकर उसके भाई से मुलाकात
हुई । तब तक वह कुछ बड़ा हो गया
था और उसका शारीरिक गठन भी कुछ
बदल गया था । उसके चेहरे पर चिन्ता
की रेखाएँ बन गई थीं । उसने हमें बताया
कि भैया सुबह ही नदी से मछली पकड़ने
निकले हैं, अभी तक घर नहीं लौटे । छोटा नागपुर की पहाड़ी नदी में एक विशेष तरह की मछली पाई जाती है । वे आकार में छोटी होती हैं । इसी से वे अपने आपको पत्थरों के बीच पूरी तरह से छिपा लेती हैं । इनके गले के नीचे एक चौकोर-सा अंग होता है । इस से पत्थर को दृढ़तापूर्वक जकड़ कर ये पहाड़ी नदी के लहरों के थपेड़ों को सहन कर पाती हैं । इन मछलियों को पकड़ना कठिन होता है, परन्तु पहाड़ियों ने इन्हें पकड़ने के लिए एक विचित्र उपाय निकाला है । जंगल में मौना नामक एक तरह का एक जंगली पेड़ उगता है । मौना के फल में विष होता है जो मनुष्यों पर असर नहीं करता, परन्तु मछलियों पर उसका विचित्र असर होता है । पहाड़ी लोग मछली पकड़ने के लिए नदी पर एक छोटा-सा बाँध बना देते हैं । उस ठहरे जल में फिर मौना का फल पत्थर पर रगड़कर किसी वस्तु में खूब सारा मिलाकर डाल दिया जाता है । थोड़ी ही देर में मछलियों की आँखे ख़राब हो जाती है और इसी पीड़ा में वे जल के ऊपर आ जाती हैं । तब वे लोग इसे गमछे में छान लेते हैं । हम लोगों के बैठे-ही-बैठे एक बोरा मछली लेकर हाजिर हुआ । सारा दिन परिश्रम करने पर उसे यही परिश्रमिक मिला था । चैता अब भी ठीक तरह से नहीं चल पाता था, परन्तु वह घटना उसे याद आती होगी, ऐसा एक बार भी मुझे नहीं लगा। उसका शरीर पहले की अपेक्षा दुबला और क्षीण हो गया था, किन्तु मेरे मन में बार-बार यही लग रहा था कि विजयी अंततः चैता ही हुआ । अपने शरीर की इतनी बड़ी दुर्घटना उसके मन पर बिन्दु मात्र भी चिन्ह नहीं छोड़ पायी है । वह पहले की तरह रोज़गार नहीं कर पाता है, इससे भी उसका क्या हुआ ? पैर टूटने पर वह लँगड़ा हो गया, इस पर भी क्या हुआ ? आते समय चैता ने एक छोटी बोरी में भरकर कुछ मछलियाँ हमारे संग गाड़ी में पहँचा दी । हम कुछ भी नहीं लेते, परन्तु वह मानने वाला कहाँ था । अंततः उसके स्नेह का उपहार लेकर हम लौट आये । चैता से वह हमारी अंतिम भेंट थी । इस बात को भी आठ वर्ष से अधिक हो गये, किन्तु उसकी सरलता, साहस और अंतिम दिनों के मधुर व्यवहार की घटना आज तक मुझे याद है ।
|
पिछला पृष्ठ :: अनुक्रम :: अगला पृष्ठ |
©
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
All rights reserved. No part of this book may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, including photocopy, recording or by any information storage and retrieval system, without prior permission in writing.