परिव्राजक की डायरी |
रघुआ |
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बंगलादेश
में डॉक्टरों के परामर्श से बहुत-से
रोगी प्रति वर्ष पुरी के समुद्र तट पर
हवा बदलने के लिए आकर रहते हैं
। उनमें से अधिकांश लोगों को असाध्य
बीमारी रहती है, अतः प्रत्येक वर्ष
वहाँ पर स्वर्गद्वार के श्मशान घाट पर
बहुत-से लोगों को मृत्यु-लाभ
होता है । उसी श्मशान पर रघुआ नामक
एक व्यक्ति रहता है । देखने में वह
बिल्कुल रोगी, सूखी हुई लकड़ी के
समान चेहरे वाला, माथे पर सिंदूर
का एक बड़ा-सा तिलक और गले में बड़े-बड़े
रुद्राक्ष हैं और गाँजा पीने के कारण उसकी
आँखे हमेशा लाल रहती हैं । मृत्यु
के पश्चात् अंतिम संस्कार के कार्य में
वह बड़ा सिद्धहस्त है । अंतिम संस्कार
के लिए स्वर्ग द्वार पर ले जाने के पश्चात्
हम रघुआ की शरण ही लेते हैं ।
वह चिता सजाकर, यथाकर्तव्य विभिन्न
कार्यों का सम्पादन करके हमारे परिश्रम
को कम कर देता है । उसी के एवज में
उसे दो-चार आने का लाभ मिल जाता
है । लोग कहते हैं कि रघुआ एक बार
किसी तांत्रिक सन्यासी के साथ पुरी
आया था । वह श्मशान में ही रहता था
तथा गुरु के पास से प्रसाद लेकर उसका
दिन कट जाता था । जो भी शवदाह के
लिए श्मशान आते, रघुआ उनकी मदद करता
। धीरे-धीरे इस कार्य में वह दक्ष
हो गया । साथ ही उनसे दो पैसे की
आमदनी भी हो जाती थी । अंततः उसके गुरु
ने जब अन्यत्र जाने की बात कही तो गुरु
का आश्रय छोड़कर वह स्वर्गद्वार में
ही रह गया । तभी से वह स्वर्गद्वार
का एक विशिष्ट पण्डा बनकर रुका हुआ
है ।
कुछ दिनों पहले दोपहर में खाने-पीने
के बाद मैं जब विश्राम कर रहा था,
ऐसे में एक घर से आवाज़ आई । मैं समझ
गया कि सम्भवतः किसी की मृत्यु
हो गई है, श्मशान ले जाना होगा,
जाकर देखूँ ।
मैंने देखा एक अल्पव्यस्क युवक यक्ष्मा
रोग से पीड़ित होकर मर गया था
। अधिक लोग नहीं थे । श्मशान भी अधिक
दूर नहीं है, मेरी इच्छा यही कहने
की हो रही थी, हम थोड़े से लोग
भी इसे लादकर ले जा सकते है । अनेक
दहसंस्कार किये हैं और मृत्यु भी
मैंने कम नहीं देखी है, परन्तु उस युवक
के शवदाह की बात बहुत दिनों तक
भूल नहीं पाया । मैंने जाकर देखा कि
मृत्यु-शय्या पर पड़े उस युवक को मृत्यु
से पहले ही घर के एक चबूतरे पर
बाहर निकाल कर एक जगह रख दिया
था । शायह बिस्तर वNौरह के नुक़सान
हो जाने के भय से ही रिश्तेदारों
ने ऐसा किया था । कच्चे चबूतरे पर
सुलाने से लाल चींटियाँ शव पह घिर
आयी थीं और अंतत: उसके लिए हम लोगों
को कम कष्ट नहीं हुआ ।
उसकी यही कहानी थी । यथारीति
शव लादकर हम लोग स्वर्गद्वार पहुँचे
और रघुआ को बुलाकर उसके ऊपर
सारे कार्य का भार डाल दिया । चिता
सडाकर रघुआ थोड़ा दम लेने के लिए
हमारे पास आकर बल्ली पर बैठा ।
बहुत दिनों की बातों के साथ मैंने
उसके संसार का कुछ हालचाल पूछा
। मैंने पूछा, "रघुआ तुम्हारा कार्यक्रम
कैसा चल रहा है ?" चेहरे पर हताशा
का भाव लाकर रघुआ बोला, "क्या
बाबू, आजकल दिन बहुत ख़राब चल
रहा है, ग्राहक बहुत कम हैं ।" इस
पर मैंने कहा, "क्या बोले रघु ? तुम्हारे
यहाँ ख़रीदार नहीं है, यह तो अच्छी
बात है । ऐसा होने पर लगता है कि
लोग स्वस्थ हैं ।" परन्तु रघुआ के अफ़सोस
की सीमा नहीं थी । वह बोला, "बाबू,
हम गरीब आदमी हैं, दिन किसी तरह
कट जाता है, परन्तु डाक्टरों का कारोबार
कैसे चलता है, यही सोच रहा
हूँ ।" यह सुनकर मैं हँसते-हँसते
लोटपोट हो गया - किसी का सर्वनाश,
किसी के लिए पूस का महीना । लोग जल्दी-जल्दी
स्वर्गद्वार आयें, यही रघु की कामना
थी, जिससे अंतत: उसे गाँजा पीने के
लिए पैसों का अभाव न हो ।
स्वर्गद्वार के श्मशान घाट पर रघुआ
बराबर अकेले ही रहता है । किन्तु
अचानक एक बार देखा गया कि रघुआ के
बहुत-से चेले एकत्र हुए और सभी ने
मिलकर रात भर गाँजा और शराब
पिया । मन में बहुत खटका लगा । क्या
रघुआ ने शवदाह का कार्य छोड़कर
अपने गुरु का व्यवसाय अपना लिया
है ? एक दिन रघुआ से भेंट होने पर
मैंने उससे पूछा, "कैसा चल रहा
है ?" रघुआ ने खुलकर सारी बातें
बतायी । कई दिन पहले एक मारवाड़ी
का शव, दाह-संस्कार के लिए आया था
। मारवाड़ी जात बड़ी तेज़ होती है ।
वे मृत्यु-शय्या पर भी अर्थ-सम्पत्ति की
बात नहीं भूलते, यह रघुआ अच्छी तरह
जानता था । इसीलिए मृतशरीर के साथ
छोड़े गये बिस्तर को फाड़कर वह देखने
लगा । इसी दौरान उसे तकिये में
सिलकर रखे गये एक सौ रुपये का लाभ
हुआ । इसी पैसे से रघुआ ने गाँजा,
भाँग और शराब खरीदी । इसीलिए पिपासु
भक्तों के दल कई दिनों से उसके पास
आना-जाना कर रहे हैं । मैं उचित परामर्श
देते हुए चालाकी से बोला, "पैसा
लेकर कोई व्यवसाय क्यों नहीं शुरु
करते हो ?" रघुआ के संस्कार वैसे
नहीं थे । वह बोला, "बाबू, जितना
दिन पैसा है, उतना दिन ऐसे ही चलेगा
। पैसा समाप्त होने पर जैसा था, वैसा
ही हो जाऊँगा । किसी दिन पैसा
मिलने पर फिर अच्छा दिन आयेगा ।"
वास्तव में, मैं तो इतना ही कह
सकता हूँ कि रघुआ के समान इतना
आशावादी व्यक्ति मैंने कम ही देखा
है । वह यह कभी नहीं सोचता कि आज
के बाद कल क्या होगा । भविष्य के
लिए बचा कर रखने कि प्रवृति उसमें कभी
नहीं रही । एक पुराना बिस्तर बचाने
के लिए वह स्वयं को कभी भी पीड़ित
नहीं करता था । अच्छा हो या बुरा वर्तमान
को आंतरिक आनन्द सो काटने वाला
ही सुखी रह सकता है ।
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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