परिव्राजक की डायरी |
इतिहास का अन्वेषण |
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सन्
१९५२
की घटना है । उस समय भारतवर्ष में
हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक
दंगे की तांडव लीला चल रही थी । काशी
के सभी हाट-बाज़ार बंद थे । मुख्य
रास्ते पर हज़ारों गोरखा पहरा दे
रहे थे, परन्तु गली-कूचों में चलना-फिरना
भी पूर्णत: सुरक्षित नहीं था । जिस
किसी के घर में मुट्ठी भर अनाज
है, वह उसे ही पका लेता है और घर
के बाहर नहीं निकलता । परन्तु जिसके
घर में कुछ भी नहीं है, उसे बाहर भी
निकलना पड़ता है । उसे ही बहुत परेशानी
है । यही शहर की स्थिति है ।
बंगाली टोला की एक पतली गली
में गोवर्द्धन लाहा जी का घर है । गोवर्द्धन
बाबू घड़ी मरम्मत करने का साधारण-सा
काम करते थे । किसी ख़रीदार के पास
उनका कुछ बकाया था । उन्हें बहुत इच्छा
थी कि वे वह पैसा ले आएँ, परन्तु अपनी
पत्नी की आज्ञा के बिना वे एक पैर भी
बाहर नहीं निकाल सकते थे । इसी तरह
घोर उद्वेग में कुछ दिन कट गये ।
शहर की स्थिति भी धीरे-धीरे सुधर
गई । लोगों ने पुन: चलना-फिरना
प्रारम्भ किया । हाट-बाज़ार खुले । सुबह
गंगा घाट पर बच्चों-बूढ़ों का दल पहले
की तरह ही फूल-बेलपत्ते लेकर पूजा
करने के लिए बैठने लगा । गोवर्द्धन
बाबू के साथ हमारा परिचय भी उसी
समय हुआ था । इसी बीच जब मैंने सुना
कि गोवर्द्धन बाबू इतिहास का अन्वेषण
करते हैं और उनके पास जाने पर वाराणसी
की अनेक प्राचीन कथाँए सुनने को मिलेंगी,
तो एक दिन सुबह ही मैं उनके घर पहुँच
गया ।
काशी में जगह-जगह पर अत्यंत प्राचीन
कुंड हैं । उनमें पानी कम है और उनके
ऊपर घना शैवाल होने के कारण उनका
पानी हरा हो गया है । वहाँ निकट
ही एक वट या पीतल के नीचे खंडित मूर्ति
या छोटे पत्थरों का सिंदूर लेपकर
रखे रहते हैं । रास्ते पर जाने वाले
उस पर दो-चार लोटा जल चढ़ाकर चले
जाते हैं । ऐसे ही एक प्राचीन घाट के पास
गोवर्द्धन लाहा जी का घर है ।
बाहर साइन बोर्ड पर लिखा है - वाच
एण्ड फाउण्टेन-पे रिपेयर स्पेशलिस्ट ।
लाहा बाबू के पिता क्वीन्स कालेज
में पढ़ाते थे और एक सच्चे पंडित के
रुप में काशी में उनका बहुत नाम था
। वे अपने प्रयास से ही यह घर बनाकर
गये थे । अब उनका पुत्र उसका उपयोग कर
रहा है । घर के निकट एक अस्तबल है ।
किसी समय यहाँ पर गाड़ी रहती थी
। अब नहीं है । अस्तबल का द्वार बंद था,
किन्तु सामने घास पर गाड़ी का टूटा
हुआ एक पहिया रखा हुआ था ।
मैंने अपने एक आत्मीय से गोवर्द्धन
बाबू की प्रशंसा सुनी थी । एक बार उत्साह
में आकर गोवर्द्धन बाबू ने सिनेमा
का व्यवसाय प्रारम्भ किया था । सस्ती
फ़िल्मों का संग्रह करके वे बिछाने
वाला एक चादर अस्तबल के दरवाजे पर
फैलाकर टाँग देते थे । दर्शकगण दो
आना देकर सामने घास पर बैठकर
फ़िल्म देखते थे, किन्तु अंग्रेज़ी फ़िल्म
सस्ते में मिलती नहीं थी और देशी
फ़िल्मों का जन्म तब तक भी नहीं हुआ
था, किन्तु फ़ारसी फ़िल्में बहुत मिलती
थीं । उसकी सारी कहानी फ़ारसी में
लिखी और बोली जाने के कारण दर्शकों
की संख्या थोड़े ही दिनों में कम
होने लगी और गोवर्द्धन बाबू को
अंतत: यह व्यवसाय समेटना पड़ा ।
तभी से वे घड़ी और फाउण्टेन पेन का
काम करते हैं ।
घर पर कुछ देर तक पुकारने के
बाद गोवर्द्धन बाबू स्वयं ही
बाहर निकले और आदरपूर्वक ले जाकर
मुझे बैठक में बिठाया । आयु में प्रौढ़,
शरीर से दुबले-पतले तथा बंगालियों-सा
स्वास्थ्यहीन चेहरा । घर पर सुन्दर
सजा हुआ तख़त था । उसके पास ही आलमारी
में काफ़ी सारी किताबें रखी हुई थीं
। उधर दूसरी ओर खिड़की के पास एक मेज़
पर बहुत-से कागज-पत्र सहेजकर व
सजाकर रखे हुए थे ।
गोवर्द्धन बाबू को अपना परिचय
देने के बाद मैंने उन्हें अपने आने का कारण
बताया । वे अत्यंत संतुष्ट होकर बोले,
" यही
देखिए न, कैसा दंगा हो गया । यदि
हिन्दू और मुसलमान अपना इतिहास
जानते तो यह सब कुछ भी नहीं हुआ
होता । "
मैंने आश्चर्यतकित होकर इसका अर्थ
पूछा । वे एक-एक करके विस्तारपूर्वक
मुझसे जो कुछ भी बोले, उसका सारांश
यही था कि पहले वेद ही था और इसी
वेद से सभी धर्मों की उत्पत्ति हुई
है । वेद में जिस सूर्य-पूजा का विधान
है, कालांतर में वही सम्पूर्ण जगत्
में व्याप्त हो गया । भारतवर्ष हो
या पेरु, मेक्सिके हो या चीन, कोई
भी देश हो, सभी जगहों पर धर्म का
मूल यही वैदिक सूर्योपासना ही
दिखाई पड़ती है । ईसाइयों का धर्म
और अरब का इस्लाम धर्म मूलत: वेद
पर आधारित होते हुए भी रुपांतरित
होकर उत्पन्न हुआ है ।
गोवर्द्धन बाबू ने बी.ए. पास नहीं
किया था, परन्तु अंग्रेज़ी पर उनकी यथेष्ट
पकड़ थी । धीरे-धीरे उत्तेजित होकर अनेक
प्रमाणों के द्वारा सभी धर्मों के ऐतिहासिक
एकत्व का व्याख्यान करते हुए वे बोले,
" यह
बात यदी लोग समझते कि सभी हिन्दू
और मुसलमान अंतत: एक ही हैं, ये
एक ही धर्म के दो सम्प्रदायों की भाँति
हैं तो देखते आज काशी में पुलिस की
आवश्यकता नहीं होती । अरे महाशय,
मैं तो कितने दिनों से कह रहा
हूँ कि इस विषय पर पैम्फ़लेट छापकर
बाँटना उचित होगा, परन्तु यह करता
कौन है ? मुझे तो सभी पागल समझते
हैं और मुझमें ही यह क्षमता कितनी
है ? "
मैंने सहानुभूति दिखाते हुए कहा, " यह
तो सही है कि लोग कलह-विवाद अज्ञानतावश
ही करते हैं । परिपूर्ण ज्ञान होने पर
वे मारधाड़ क्यों करेंगे ? "
परन्तु किन प्रमाणों के आधार पर उन्होंने
हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों की
एकता की इतनी बड़ी सूचनाओं का संग्रह
किया है, मुझे यह जानने की इच्छा
हुई । मैंने उनसे यह बात पूछ ही
ली । उत्साहपूर्वक उन्होंने पुराने कागजात
निकाल कर मुझे दिखाया कि वेद का
ओंकार ही कालांतर में त्रिशूल के रुप
में बदल गया । अतएव वेदान्त औ शैव
धर्म मूलत: अभिन्न हैं । यह सब कैसे
हुआ, ये सारी बातें कापी पर विधिवत्
लिखी हुई थीं । हिन्दी में ओंकार जिस
तरह से लिखा जाता है, सबसे पहले
उसको किनारे करके उसे सुला कर पीछे
से डंडी के सीधा करके चाँद बिन्दु
हटाने पर एक सुन्दर त्रिशूल बन जाता
है ।
यह तो हुई शैव धर्म की बात
। उसके बाद ईसाई धर्म । मालाबार
के किनारे एक प्राचीन है गिरिजाघर
है । यीसुमसीह जब दीक्षा ग्रहण कर
रहे थे, बाइबिल में लिखा है कि उस
समय आकाश में एक सफ़ेद पर्वत उतरा
था । मालाबार के प्राचीन गिरिजाघर
में उसका भी चित्र बना हुआ है । गोवर्द्धन
महोदय ने उस चित्र को बिना किसी
संदेह के सहज ही प्रमाण के रुप में
मान लिया हे कि सूर्य और शिव की
उपासना का प्रतीक भी इस तरह है, जिस
तरह कि ईसाइयों का है । अत: दोनों
ही धर्म एक-समान हैं ।
परन्तु गुट बन गया है इस्लाम को
लेकर । उन्हें इस्लाम में ऐसा कुछ सीधा
प्रमाण अब तक नहीं मिला है । थोड़ा-बहुत
जो मिला भी है तो उससे लोगों को
ठीक तरह से विश्वास नहीं दिलाया जा
सकता । फिर लाहा जी की धारणा ने
सही रास्ता चुना है, लगे रहेंगे तो
प्रमाणों का अभाव नहीं होगा । इस्लाम
के चन्द्रकला को लाहा बाबू शिव के
जटाजूट से निकाला हुआ चन्द्रकला मानते
हैं । मुसलमान लोग मूर्तिपूजा के
विरोधी होते हैं, अत: उन्होंने मात्र
चाँद को स्वीकार कर शिव के सिर और
धड़ पर्यन्त को त्याग दिया । परन्तु गोवर्द्धन
बाबू के बन्धु-बान्धव इस प्रमाण को
स्वीकार नहीं करते । कई दिनों से गोवर्द्धन
बाबू हिन्दू और इस्लाम में इस बात
की खोज कर रहै हैं कि इसमें किसी
स्तर पर समानता है या नहीं । अंतत:
उन्होंने देख ही लिया कि शिवलिंग के
गढ़न काशी के विभिन्न मस्जिद के मीनारों
के बीच एक अद्भुत समानता है । केवल
यही नहीं, प्राचीन मिस्त्र के स्तम्भ क्लेयोपेट्स
के साथ भी इनकी आकारगत समानता
है । अब वे इनके भीतरी तत्वों को खोजकर
बाहर निकालना चाहते थे । काफ़ी देर
तक बातचीत होने के कारण दिन
बहुत चढ़ आया । प्रात: हमारी बातचीत
प्रारम्भ होने के थोड़ी ही देर बाद
एक पतली-सी काली लकड़ी आकर गोवर्द्धन
बाबू के सामने एक कटोरी दूध और
मेरे लिए घर में ही तैयार एक बड़ी
कटोरी भरकर घुघनी खाने के लिए दे
गयी थी । वह लड़की अब अत्यंत दुर्बल
और रोगग्रस्त एक बच्चे को गोद में लेकर
आयी और कहा कि माँ कह रही हैं कि
स्नान करके भोजन करने का समय कब
का हो चुका । मैं भी चलता हूँ-चलता
हूँ करने लगा । परन्तु गोवर्द्धन बाबू
ने तब तक अपने गुस्से को दबा लिया
। अब उन्होंने अरब देश के भ्रमण की एक
सचित्र कथा को बाहर निकालकर दिखाने
का प्रयास किया । वे दिखाना चाहते थे
कि इस्लाम के पूर्व अरब में जो धर्म
प्रचलित था, उसके साथ परवर्ती इस्लाम
का क्या सम्बन्ध था । मुझे बहुत कठिनाई
का अनुभव होने लगा, विशेषकर दरवाज़े
के पीछे से जब चाबियों के गुच्छे की
आवाज़
तेज़ सुनाई देने लगी । सहसा गोवर्द्धन
बाबू एक बार भीतर गये और थोड़ी
देर में ही लौटकर आये और बोले,
" उफ्,
मैंने आपका बहुत समय ले लिया तो
यहीं पर दो मुट्ठी खाकर जाइए न ! "
मैं तब भागने के चक्कर में था । रुकने
पर भोजन के बाद पुन: अन्वेषण की
बात ही होगी, इसी आशंका से मैं किसी
तरह बाहर निकला । होटल में लौटकर
देखा कि कमरे में ढ्ँका हुआ भात ठंडा
होकर कड़ा हो गया है । मैं एक गिलास
पानी पीकर लेट गया और लेटे-लेटे
ही इस विचित्र अनुसन्धान और इसके
द्वारा हिन्दू-मुस्लिम समस्या व उससे
भी विचित्र इसके समाधान के
विषय में सोचने लगा और इसके
साथ ही मुझे डॉन क्वक्ज़ोट की कहानी
'राजपुत्र' याद आने लगी ।
बचपन में पढ़ा था कि राजकुमार
घोड़े पर चढ़कर मंत्री-पुत्र, सेनापति-पुत्र
और सौदागर-पुत्र के साथ मेघ वर्णकेश
वाली और गौर वर्ण राजकन्या की खोज
में जंगल-जंगल घूमा करते थे । उसी
समय मैंने राजकुमार की कल्पना एक
दिग्विजयी सुन्दर मूर्ति के रुप में कर
ली थी । किन्तु इस जीवन में राजकुमार
के साथ जब वास्तविक साक्षात्कार हुआ
तो बचपन की कुछ भी बातें उसमें नहीं
मिलीं । मैंने जो भी देखा, उसी की बात
बता रहा हूँ । एक बार प्राचीन मन्दिरों
की खोज में मैंने उड़ीसा का भ्रमण किया
था । वाहन के रुप में मेरे पास एक पुरानी
साइकिल थी और मेरी पीठ पर पर्यटक
की भाँति ही अपनी सारी सम्पत्ति का बोझा
झूल रहा था । उड़ीसा के पर्वतीय अंचल
में कितने ही छोटे-छोटे राज्य हैं,
इसका अंत नहीं है । उनमें से ही एक राज्य
से होकर गुज़रते हुए उस दिन सुबह
रास्ते के किनारे आम के एक पुराने
बगीचे के पास आ पहुँचा । आम के बगीचे
में कई लोग दिखाई दिये जो हाथ
में बंदूक़ लिये ऊपर की ओर
मुँह करके घूम-फिर रहे थे । पास
ही एक छोटी मोटरकार खड़ी थी । मैं
तब बगीचे से कुछ ही दूर आगे बढ़ा
था कि पीछे से दो-तीन लोग तेज़ी से
चिल्लाकर मुझे बुलाने लगे ।
शायह मेरी इस वेशभूषा और मेरी
पीठ के बोझ को देखकर वे आकर्षित
हो गये हों । मेरे साइकिल से उतरते
ही, हाथ में बन्दूक़ लिये एक दीर्धकाय,
ताम्र-वर्णी, प्रौढ़ व्यक्ति मेरे पास आये
। यही राजकुमार था । वे माथे पर
बड़ा-सा एक लाल तिलक, पतले सिल्क का
कुर्ता, अत्यंत सुसज्जित रुप से पतले
कपड़े की धोती, पैर में लाल रंग का
सुन्दर नागरा जूता पहने हुए थे । सुबह
उन्होंने स्नान किया था और शरीर पर
भरपूर सुगंध-द्रव्य मलवाया था । पास
पहँचने पर सुगंध लगा, परन्तु उस गंध
के साथ व्हिस्की की तीखी गंध भी आ
रही थी । राजकुमार ने शालीनतापूर्वक
मेरा परिचय पूछा । मैंने बताया कि
इस राज्य में आया हूँ । राजकुमार
उत्साहित होकर बोले, " तब
तो आप हमारे अतिथि हुए । आइए, मैं अपनी
गाड़ी से आपको पहूँचा देता हूँ । आपकी
साइकिल लेकर मेरे नौकर पीछे-पीछे
आयेंगे । "
लगभग ग्यारह मील का रास्ता तय
करना पड़ा । मैं मोटर में बैठ तो गया
परन्तु मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था
। साइकिल से चलने में कष्ट तो अवश्य
है, अत: मोटर में आराम से जा सकूँगा
। परन्तु साइकिल की वह स्वाधीनता,
यहाँ कहाँ मिलेगी ? इसी कारण मौन
साधकर शालीनतापूर्वक चुपचार बैठा
रहा । मैंने देखा कि मोटर चलाने
में राजकुमार का हाथ बहुत सधा
हुआ है । गाड़ी चलाते हुए वे स्वयं
ही धीरे-धीरे अपना परिचय देने लगे
। पहले उड़िया भाषा में, उसके बाद बीच-बीच
में अंग्रेज़ी में बातचीत चलने लगी । वे
बोले, " देखिए
मैं बहुत ही साधारण आदमी हूँ - Poorest
of the poor in the British Empire of His Majesty George VI !
मेरा भतीजा इस अंचल का राजा है ।
मेरे पिता मेरे लिए मात्र छह लाख
रुपया रखकर गये थे । मैंने सब ख़र्च
करके उड़ा दिये । अत: अब मैं बिल्कुल
गरीब हूँ । जब पैसा था, तब पूना,
शिलांग, मद्रास आदि कई जगहों पर
गया था और हाथ खोलकर पैसे भी
ख़र्च किये थे, परन्तु अब और ख़र्च नहीं
कर पाता । अब तो मात्र शिकार करने
ही निकलता हूँ । सुबह पूजा करके
बैठने के बाद जब मन में आया तो बंदूक
लेकर चिड़िया का शिकार करने निकल
पड़ा । यह तो अच्छा ही हुआ कि एक शिक्षित
व्यक्ति के साथ एक दिन अच्छा कटेगा । मैं और
क्या बोलता, बैठा-बैठा हूँ-हाँ करते
हुए सुनने लगा । राजकुमार बोले,
" हम
तो मूर्ख हैं, आप लोगों के साथ बात
करके कितना अच्छा लगता है । अंग्रेजी में
दो बातें भी अच्छी तरह से नहीं बोल
पाते, परन्तु मैं थोड़ी-बहुत बंगाली
जानता हूँ । कलकत्ते में मैंने तीन
महीने तक हरिघोष की पत्नी का घर
किराये पर लिया था । "
उसी समय हमारे सामने वाली बैलगाड़ी
पर आक्रमण करने के लिए राजपुत्र का
वाहन उसके पीछे दौड़ा । हाँ, हाँ करते-करते
राजपुत्र ने अत्यंत तेजी के साथ मोटर
को बगल से निकाल लिया और पार
होने के बाद गाड़ीवान को कठिन अंग्रेज़ी
में कितनी ही भद्दी-भद्दी गालियाँ दे
डालीं ।
वही अंग्रेज़ी भाषा फिर शुरु हुई
। गाड़ी की रफ़तार और कम नहीं हो
रही थी, ऐसे में राजकुमार खूब ज़ोर
से मोटर चला रहे थे । साथ ही टूटी-फूटी
अंग्रेज़ी में एक सुर मिलाने का प्रयास
कर रहे थे, सुर मिल जाने पर उन्होने
पुन: वही शुरु किया, परन्तु उनकी दृष्टि
ठीक रास्ते पर ही बँधी हुई थी । पास
में ही छोटी-छोटी पहाड़ियाँ, बाँस
की झाड़ियाँ, साल के वन, बीच-बीच में
धान के ख़ेत से आते हू-हू शब्द कान के
पास से होकर गुज़र जाते । धान के
खेतों में काम करने वाले लोग धीरे-धीरे
कुछ गा रहे थे । कहीं चरवाहे बालक
अपने घर के फलों को छोड़कर वन के
फल तोड़ रहे थे । राजकुमार दोहराने
लगे :
Oft I have heard of Lucy Gray
And, when I crossed the wild
I chanced to see at break of day
The solitary child
No mate, no comrade Lucy knew;
She dwelt on a wide moor,
The sweetest thing that ever grew
Beside a human door!
फिर अंतिम पद उन्होने तीन-चार-पाँच
बार गम्भीर भाव-व्यंजना के साथ दोहराया
। मैं भी सोचने लगा, हाय रे, कहाँ
इस जंगल के रास्ते में मोटरकार
में बैठकर चला हूँ और न जाने कब,
किस देश में बेचारी लूसी ग्रे ने झाड़ियों
के बीच रास्ता भूलकर नदी के जल में
अपना प्राण विसरिजित कर दिया था । मुझे
उसके लिए बड़ी ममता हुई । उस बेचारी
को लेकर आज असमय ऐसी खींचतान क्यों
? लूसी ग्रे की बारी समाप्त होने पर
राजकुमार ने एक बंगला गीत गाना प्रारम्भ
किया । उच्चारण लगभग स्पष्ट था । वे गाने
लगे - बंग हमारा, माता हमारी, धात्री
हमारी, हमारा देश ।
क्यों हे माँ तेरी सूखी बोली, क्यों
मलिन तुम्हारा वेशी यह गाने के
बाद उन्होंने मुझसे पूछा, " मैं
मूर्ख हूँ, जंगली क्षेत्र का व्यक्ति हूँ,
क्या मेरी बंगली ठीक थी ? "
सिर हिलाकर मैंने उनकी बंगला
की प्रशंसा की । एक तरफ एक गलियारी-सी
दिखाई दी । उसी रास्ते से होकर
हम लोग पास ही एक मन्दिर के निकट
पहुँच गये ।
हमारे मन्दिर पहुँचने पर पुरोहित,
राजकर्मचारी और बगीचे के अनेक माली
दौड़ आये । उन्होंने राजकुमार को
साष्टांग प्रणाम किया । फिर वे गाड़ी
से उतरकर मुझे बगीचे की ओर ले गये
। बगीचे में प्रवेश करते ही मैंने देखा
कि साल के लकड़ी की एक पट्टी पर अंग्रेजी
अक्षरों से फ़ारसी में लिखा हुआ है -
ख्ठ्ठेद्धड्डीत्ठ्ठेद ड्डीeथ्द्वेन्e अर्थात् शौक़िया बाग । इस
वन क्षेत्र में अचानक ही फ़ारसी का नमूना
देखूँगा, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं
की थी, परन्तु शौक़ीन राजकुमार के
देश में सभी कुछ सम्भव है । राजकुमार
के बगीचे में सुन्दर फूलों और पत्तियों
से भरे पेड़ों की कतारें हैं । दूसरी
ओर कुछ नीचे एक कम जल वाली नदी के
समीप ही साग-सब्ज़ियों का बगीचा
है । साग के खेत में पहुँचने पर कई
पहाड़ी स्रियों ने आकर राजकुमार को
प्रणाम किया । राजकुमार ने उन्हें आदेश
दिया, " घर
में अतिथि आये हैं । कुछ अच्छी सब्ज़ियाँ
तोड़ दो । "
कुम्हड़ा की लताओं में कहीं-कहीं छोटे
कुम्हड़े लगे थे । यह तोड़ो, वह काटो
करते-करते तुरन्त ही सब्ज़ी से दो
झोलियाँभर गई । तब राजकुमार
ने कहा, " आपके
लिए तो मछली चाहिए । चलिए, यहाँ से
दो मील दूर नदी है। वहाँ बहुत
मछलियाँ हैं । मैं राइफल से ही बड़ी-बड़ी
रोहू मछलियों का शिकार कर लेता
हूँ । "
दिन बीत रहा था । यह देखकर मुझमें
और कहीं जाने का उत्साह नहीं था ।
फिर मन्दिर देखने के पश्चात् लम्बे
रास्ते तक साइकिल चलाकर उसी दिन
मुझे पास के ही राज्य में पहुँचना
भी था । इन सब कठिनाइयों के होते
हुए भी अंतत: मुझे राजकुमार का अनुरोध
का अनुरोध स्वीकार करना पड़ा।
उसी समय एक सुन्दर युवती बगीचे
की सब्ज़ियाँ लेकर हमारे पीछे-पीछे
आ रही थी । राजकुमार ने उसकी ओर
देखकर पूछा, " इस
लड़की को तो पहले नहीं देखा, इसका
घर कहाँ है ? यहाँ कब आयी ? "
वहीं के एक कर्मचारी ने बताया कि
यह पास के ही एक गाँव में रहती
है और इसकी ससुराल निकटवर्ती करद
राज्य में है । अब इसके पति ने उसी राज्य
की एक स्री से विवाह कर लिया है और
इसे छोड़ दिया है । राजकुमार का
मन उस स्री के प्रति ममता से भर उठा
। उन्होंने उससे कहा, " तुमने
दूसरे राज्य में विवाह क्यों किया
? इस राज्य में विवाह करने पर मैं
अभी तुम्हारे पति को पकड़ लाता और
कौड़े मारकर उससे पूछता कि उसने
तुम्हारी ऐसी दशा क्यों कर दी है ? उसने
तुम्हें क्यों छोड़ दिया है ? "
युवती आँखे झुकाए हुए खड़ी रही
। उसकी ओर से उसकी सखी ने उत्तर दिया,
" क्या
करेगी ! हुजूर, इसके माथे पर तो
दु:ख लिखा हुआ है । क्या कोई उसे
मिटा सकता है ? "
बातचीत से मुझे यह लगा कि राजकुमार
से सभी डरते हैं, परन्तु आदर भी करते
हैं । इसीलिए साधारण लोग भी उनसे
बात करने में डरते नहीं हैं । राजकुमार
ने मुझसे कहा, " देखिए,
मैं इन लोगों से ख़ूब मेल-मिलाप
रखता हूँ, आवश्यकता पड़ने पर इन्हें
चाबुक भी मारता हूँ और फिर पॉकेट
में पैसा रहने पर बिना विचारे
ही इन्हें बाँट भी देता हूँ । इसीलिए
ये हमारी खातिर करते हैं । मेरा
मोटो है
- Do
or die, do or die!"
फिर एक माली को बुलाकर उन्होंने
हमारे लिए ढेर सारी सब्ज़ियाँ अलग
करके रखने को कहा और बची हुई
सब्ज़ियाँ राजघराने के लिए गाड़ी के
पीछे लदवा देने के लिए कहा । फिर
मेरे अधिक अनुरोध करने पर अधिकांश
सब्ज़ियाँ अंतत: गाड़ी में ही लदवा
दी गई ।
सब्ज़ियाँ लादने में देर हो
रही है, यह देखकर राजकुमार मालियों
पर शासन करने वाले स्वरों में ज़ोर
से बोलने लगे -
Quick
quick ! Do or die, do or die !
उन लोगों ने भी शाक-सब्ज़ियों को तोड़-मरोड़
कर पीछे की गद्दी पर लाद दिया । उसके
बाद राजकुमार राइफल में गोली
भरकर नदी से बड़ी-बड़ी रोहू मछली
मारने के लिए पुन: तीर की गति से
मोटर चलाने लगे।
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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