परिव्राजक की डायरी |
स्वर्ग का वृतान्त |
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पितामह ब्रह्मा की उम्र हो चली है । वे सारे विषयों पर नज़र नहीं रख पाते । उनका स्वभाव थोड़ा चिड़चिड़ा हो गया है । नींद भी अब अधिक आती है । पिछली रात को गरमी अधिक होने से, पहले तो उन्हें अच्छी नींद नहीं आई, परन्तु ोष रात मृदु और मन्द हवा के बहने पर वे एक पुराने चंदन वृक्ष पर टिककर सो गये । उनके तो चारों ओर सिर हैं, इसीलिए स्वर्ग का सिलाई विभाग उनके उपयुक्त बिस्तर तैयार नहीं कर पाया । इसी कारण लोक-पितामह विरंचिदेव ने प्राय: बैठे-बैठे ही सोने का व्रत लिया था । देवाधिदेव के एक मुहूर्त में अन्य देवताओं के कल्पान्त जितना समय बीत जाता है । सुबह उनके जागने में देर होने लगी । इसी बीच इन्द्रादि देवगण के सैकड़ों वर्ष निकल गये । पितामह ने, जिसे जो काम सौंपा था, वे सभी अपने कार्यों की अवहेलना करने लगे । पता नहीं क्या सुयोग समझकर देवराज इन्द्र ने मृत्युलोक में समुद्र के किनारे एक प्रहसन खेलना प्रारम्भ कर दिया । इसी बीच मृत्युलोक से विभिन्न प्रकार के उपद्रवों की सूचना आने लगी । लोगों को खाना नहीं मिलता, वे पढ़ते नहीं, कोई भी खेती नहीं करते, बल्कि किसी छल, बल या कौाल से वे दूसरों के द्वारा उगाये गये अनाज दखल कर सकें, इसी के लिए जी जान से प्रयास करने लगे । जिसका अन्न लूट लिया गये, वह धीरे-धीरे पागल होकर चीत्कार करने लगा । कोई-कोई बार-बार 'इन्कलाब' नामक भड़काने वाला ाब्द बोलने लगा । कोई मिलकर 'जय' का उच्चारण करने लगे । मृत्युलोक के निवासी धीरे-धीरे देवताओं पर कटूक्तियों व व्यंग्य बरसाने लगे और अंतत: रुस नामक क्षेत्र में सोलहों उपचार के द्वारा देवमेध यज्ञ करने के लिए तैयार हुए । इन सारे आंदोलनों और चीत्कारों के फलस्वरुप लोक-पितामह की निद्रा में किंचित् व्याघात उत्पन्न हुआ । इन्द्र, सरस्वती, उर्वाी, मेनका जैसे सभी ने, देखा कि ोषनाग के मस्तक पर स्थित मेहिनी जिस प्रकार प्रत्येक क्षण प्रकम्पित होती रहती है, भगवान कमलयोनि के चारों सिर भी उसी तरह से धीरे-धीरे हिलने लगे । इसी बीच मृत्युलोक में काफ़ी तेज़ी से कोलाहल हुआ । सारे इन्द्रादि देवता घर के बरामदे में निकलकर मनोयोगपूर्वक नीचे धरती की ओर देखने लगे । उन्होंने देखा कि मच्छर के समान कई वायुयान भूमंडल के ऊपर से भों-भों ाब्द करते हुए इधर-उधर घूमते हुए उड़ रहे हैं और ठीक उसके पीछे के भाग से प्रत्येक क्षण अग्नि और अनेक प्रकार की अनजानी आवाज़ें निकल रही हैं । देवताओं को बड़ा मज़ा आया, परन्तु वे अधिक देर तक प्रसन्न नहीं रह सके । थोड़ी ही देर में मृत्युलोक में 'जय-जय' ाब्द की जगह 'गैस-गैस' चिल्लाते हुए एक विकट आर्तनाद गूँजने लगा और उसकी गंध अंतरिक्ष-पर्यन्त में बहकर आ गई । मृत्युलोक में भूत भगाने के लिए जो सरसों जलाया जाता है, उसी तरह की गंध के उठने पर इन्द्रादि देवगण ाीघ्रतापूर्वक सिर की पगड़ी को खोलकर नाक दबाकर दौड़ने लगे । उन्होंने द्वारपाल को आदेा दिया कि जल्दी से द्वार बंद कर दो, मृत्युलोक से बहुत दुर्गन्ध आ रही है । परन्तु दुर्गन्ध तो तब तक पहुँच चुकी थी । लोक-पितामह दो-चार बार तेज़ी से छींक कर जाग गये । सामने इन्द्रादि देवताओं को पगड़ी द्वारा नाक दबाए हुए देखकर उन्होंने पूछा, "वत्स गण, तुम इस तरह से क्यों हो ? नाक में क्या कोई समस्या हो गई है ? और मृत्युलोक में इतना कोलाहल क्यों मचा है ?" वास्तव में, भयभीत देवराज ने तब पितामह का यथारीति अभिवादन करके कहा, "प्रभो, मृत्युलोक में बड़ा प्रलय मचा हुआ है । हम लोग मृत्युलोक के एक नाटक के अभिनय में व्यस्त थे । इसी बीच वहाँ जो अनहोनी घटी, उसे सम्भालना हमारे वा में नहीं है ।" कमलयोनि ने तब आठों भौंहों को जोड़कर इन्द्र, वरुण और पृथ्वी को सम्बोधित करते हुए प्रन किया, "तुम लोगों को जो मैंने सारे कार्यों का प्रभार सौंपा था, क्या तुमने उसे ठीक तरह से किया ? इन्द्र, वर्षा आदि तो ठीक से हो रही है ? पृथ्वी, जीवों को कृषि-कार्य में कोई कठिनाई तो नहीं हो रही है ? नि:संकोच होकर सारी बातें मुझे सविस्तारपूर्वक बताओ ।"देवराज ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, क्योंकि 'किंग कैन्यूट' नाटाभिनय में उन्हें ही तो सबसे अधिक उत्साह था और उन्होंने ही तो सबसे पहले अपने कार्यों की अवहेलना की थी । पृथ्वी बोलीं, "पितामह मेरा दोष नहीं है । इन्द्र ठीक तरह से वर्षा नहीं करते, कभी अधिक तो कभी कम वर्षा होती है । विश्वकर्मा को कुछ समय से मरणास्र-निर्माण में ही अधिक आनन्द आने लगा है । इंगलैण्ड और जापान नामक दो छोटे द्वीपों पर मरणास्र के निर्माण के लिए दो बड़े कारख़ानों की स्थापना की है । मृत्युलोक के जीव भी कुएँ, तालाब आदि न खोदकर नरक समान इस कारख़ाने में अधिकाधिक संख्या में कार्य करते हैं । उचित प्रकार से सिंचाई की व्यवस्था भी नहीं होती । चारों ओर फ़सलों की हानि हो रही है । मैं क्या कर्रूँ ? सभी मेरे बस से बाहर चले गये हैं ।" तब भगवान विरंचिदेव देवी सरस्वती की ओर देखकर बोले, "हे दीप्तिमयी, तुम क्या कर रही थीं ? मैं तो देख रहा हूँ कि मानव ज्ञानहीन होकर ही ऐसी दुर्दाा के दल-दल में फँस गये हैं । तुम्हारे ही कार्य में त्रुटि क्यों है ? मृत्युलोक में ब्राह्मण यथारीति वेद अध्ययन-अध्यापन कर रहे हैं ?" देवी बोली, "भगवान, मेरे प्रति किसी को भी अब वैसी भक्ति नहीं है । मेरी पूजा के लिए नगर-नगर में मेरी मूर्ति बनती है, परन्तु भक्तिभाव से कोई भी हमारी पूजा नहीं करता । वे मेरी मूर्ति को मेनका और रम्भा की भाँति रुप देते हैं और पूजा न करके राजपथ पर हमारी मूर्ति के सामने उन्मत होकर व्रतचारी नामक एक प्रकार का नृत्य करते हैं । "और ब्राह्मणों की बात कर रहे हैं, वे तो हमारी पूजा और भी नहीं करते । सभी ने होमााला का त्याग करके पाकााला में आश्रम ले लिया है । केवल वैय ही वेदों के अध्ययन व अध्यापन के लिए नियुक्त हैं । उनकी भी बड़ी विचित्र गति है । कोई भी स्वाभाविक ज्ञान का आदर नहीं करता । मात्र धन चाहते हैं । कोई भी मूलग्रन्थ नहीं पढ़ता । भाष्य के बाद भाष्य की रचना करके ही गुरु ाष्यि को पढ़ाते हैं । विश्वकर्मा ही सारे अनर्थ की जड़ हैं । मुद्रणयंत्र नामक एक चीज़ से तैयार की गई धूल जैसी नोटबुकों के मेघ से, जगत् अंधकारमय हो गया है । इसी को बेचकर अध्यापकगण अपनी झोली भर रहे हैं । इसी पैसे से वे ज़मीन खरीदते हैं अथवा घर बनवाते हैं । कोई पैसा उड़ा रहा है तो कोई चीनी का कारख़ाना खोल रहा है । "पितामह, हमसे कुछ होने वाला नहीं है । आप किसी बलिष्ठ व्यक्ति को नियुक्त करें, जो हमारे मन्दिरों को वैय के कुल से मुक्ति दिला सकें ।" पितामह बोले, "नारी जाति तो स्वत: प्रगल्भा होती है । तुम से इतनी बातें किसने पूछी थीं ? जो भी हो, तुम सब जाओ, मैं इसके उपाय पर विचार कर रहा हूँ ।" सारा
दिन विविध
दुर्जिंचताओं में
कट गया । क्या
जाने देवाधिदेव
का क्या आदेा
हो जाय ? जो
भी हो, तुम
सब जाओ, मैं
इसके उपाय पर
विचार कर
रहा हूँ ।" "इन व्यक्तियों को यदि सम्यक् ज्ञान और सम्यक् कर्म-पद्धति दे दी जाय तो मानव का कुछ कल्याण हो सकता है । अत: हे पृथ्वी, हे इन्द्र, हे सरस्वती, तुम लोग इसी क्षण इस स्वर्ग-धाम को छोड़ दो । परन्तु भूमंडल के किसी विश्वविद्यालय में प्रवेा मत करना; सुना है, वहाँ स्वार्थ का हाट लगा है । जहाँ नि:स्वार्थ व्यक्ति मिले उसे ही अपने दल में स्थान देकर मानव की उन्नति का प्रयास करना । "स्वर्गारोहण के समय मनुष्य गाय की पूँछ पकड़कर वैतरिणी पार करते हैं । तुम्हें भी एक वैतरिणी पार करनी होगी, परन्तु तुम्हारे हाथों में कुदाल, खुरपी और ाल्पि नामक तीन प्रकार के हथियार होंगे, जिन्हें लेकर तुम नये लोक में अवतीर्ण होओ । अपना देवत्व भूल जाओ । दीनतम मनुष्य की सेवा में अपना मन लगाओ । तुम अपने हृदय से ज्ञान और ाक्ति को उत्पन्न करो और यदि यह न कर पाओ या अपने देवत्व को मनुष्य में संचारित न कर सको तो मैं तुम्हें कहे देता हूँ कि मृत्युलोक में महात्मा गांधी नामक एक व्यक्ति ने जिस प्रकार साबरमती आश्रम को छोड़ दिया है, मैं भी उसी तरह स्वर्ग के द्वार की चाभी सौंप दूँगा । भला चाहते हो तो उतर जाओ ।" देवताओं
की सभा में
ऐसा भाषण
किसी ने कभी
नहीं सुना
था । पितामह
के ऐसे क्रोध
को भी इससे
पहले किसी
ने नहीं देखा
था । भविष्य
में और भी
अधिक परिश्रम
करना होगा,
इसी आांका से
भयभीत होकर
देवगण अपना
समय काटने
लगे और मृत्युलोक
के उस नाटक की
एक बार में
ही मिट्टी-पलीद
हो गयी ।
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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