परिव्राजक की डायरी

साहित्य-सभा


मध्य भारत के एक छोटे-से सामन्त-राज्य की घटना है । छोटा-सा शहर, जिसे गाँव कहना भी अनुचित नहीं होगा, यही उस राज्य की राजधानी है । छोटा होने पर भी इसमें किसी प्रकार की कोई त्रुटि नहीं थी । स्कूल, म्यूज़ियम, नाट्यशाला आदि सभी प्रकार के प्रतिष्ठान इस राज्य में स्थापित थे ।

       जाड़े की सुबह घूमने के लिए बाहर निकला हूँ । एक छोटी-सी गली से एक बच्चा बकरी के एक झुण्ड को चराने ले जा रहा था । बकरे बड़े हृष्ट-पुष्ट और बड़े-बड़े कान वाले थे । सड़क के किनारे दीवार पर अटके कागज़ के एक टुकड़े को खाने के लिए दे बकरे आगे का पैर दीवार पर टिकाकर खड़े थे । यह देखकर मुझे बहुत मज़ा आया । कहा जाता है कि बकरे क्या नहीं खाते हैं, पागल क्या नहीं कहते हैं । इन्हें तो कागज़ खाना भी अच्छा लगता है । बकरों के झुण्ड के जाने पर मैंने कागज़ को गौर से देखा । बकरे के दाँतों से उसके नीचे का भाग फट गया था, परन्तु देवनागरी अक्षर स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि उसी दिन शाम को दुर्गा-मेला में साहित्य-सभा बैठेगी । अतएव सभी की उपस्थिति प्रार्थनीय है । मैं कुछ ही दिन पहले यहाँ आया था । उस शहर का सारा ठिकाना मुझे मालूम नहीं था । मुख्य बाज़ार में गाँजा बेच रहे एक दुकानदार से मैंने पूछा, " ओ भैया, तुम लोगों की दुर्गापूजा कहाँ होती है ? " उस व्यक्ति ने मुझे रास्ता बता दिया ।

       शाम को घूमने के लिए निकलते समय मैंने देखा कि एक स्थान पर बहुत से लोग मिलकर फुटबाल मैच देख रहे हैं । मैच के प्रति मेरी रुची नहीं थी, अत: मैं भीड़ में लोगों को ही देखने लगा । सभी में काफ़ी उत्साह था । हाफ टाइम के समय और भी अधिक उत्साह दिखाई दिया । तब खिलाड़ियों के साथ फुटबाल प्रेमी भी सोडा-लेमन पीने लगे । लेमनेड बेचने वाला वह मोटा काला व्यक्ति सरल हिन्दी में बात कर रहा था और स्कूली बच्चों का दल अवाक् होकर सुन रहा था और हाथ में मूँगफली भरा ड़ोंगा लिये फुटबाल के खिलाड़ियों को तृष्णा भरी नजरों से देख रहा था । ये खिलाड़ी जो लाल रंग का लेमनेड पी रहे थे, बच्चे उन्हें ही देख रहे थे ।

       शाम को दुर्गापूजा के मेले में कई सतरंजियाँ बिछी हुई थीं, जिन पर साहित्य के प्रशंसक एकत्रित हुए । पंडित, पुरोहित, डॉक्टर, वैद्य सभी आये । स्कूल के छात्र भी आये । इसके अतिरिक्त वह लेमनेड विक्रेता और प्रात:काल मेरा पथ-प्रदर्शक गाँजा बेचने वाला वह दुकानदार भी । सभा में वाद-विवाद होना था । साहित्य में स्थानीय भाषा का व्यवहार अनुचित है या उचित, यही वाद-विवाद का विषय था । निर्णायक मंडल में थे राजा के पुत्र, आनरेरी मज़िस्ट्रेट और म्यूनिसपैलिटी के वाइस प्रेसीडेंट । लाल सिल्क से भरी हुई कुर्सियाँ उनके लिए ड्रेसिंग रुम से लाई गई थीं । वे एक लम्बे मंच पर बैठे हुए थे । उनके पास ही गद्दी वाली दो चेयर खाली पड़ी थी । किसी ने उन पर बैठने का साहस नहीं किया । सभासद सतरंजी पर ही बैठे रहे ।

       काफ़ी देर बाद वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ । साहित्यिक भाषा और भाषा के कथ्य में किसे अपनाना उचित होगा ? साहित्य का मूल उद्देश्य क्या है । इन सब गम्भीर विषयों को लेकर बातचीत चली । अधिकांश वक्ताओं ने स्थानीय भाषा के पक्ष में एवं संस्कृत बहुल भाषा के विरुद्ध गर्मा-गर्म बातें कहकर सभा को ख़ूब जमा दिया था । इधर राजपरिवार के पुरोहित ने सभासदों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर कभी हिन्दी तो कभी संस्कृत में बात करके विशेष कौतुक उत्पन्न किया । तथापि रात जितनी अधिक होने लगा, श्रोता-गण की संख्या उतनी ही कम होने लगी । उनके वक्तव्यों को सुनकर मुझे मात्र अभिमन्यु की कथा याद आ रही थी । अभिमन्यु ने व्यूह-भेदन करना तो सीखा था, परन्तु बाहर निकलने की तरकीब उन्हें नहीं आती थी, इस पर भी उन्होंने रुकना नहीं सीखा । वक्ताओं ने भी वक्तृत्व प्रारम्भ करना तो सीखा था, परन्तु अंत करना उन्हें नहीं आता था । फलत: यही समझकर ताली पीटते-पीटते सतरंजी के नजदीक बैठे लोग सभापति से नज़र बचाकर निकलकर जाने लगे । जो बीच में बैठे थे, वे हिलते-डुलते हुए एक-दूसरे से बातें कर रहे थे, जिसके कि सुविधा पाने पर वे भी खिसक सकें । इस प्रकार रात नौ की घंटी बजने तक लोगों से भरी सतरंजी पर अब कोई भी व्यक्ति नहीं था । केवल चारों ओर इधर-उधर कुछ लोग चुपचाप बैठे रहे, जैसे चारों ओर घने बाल होते हुए भी सभापति के सिर का मध्यभाग गंजा था, वैसे ही ।

       सभापति ने स्थिति को ध्यान में रखकर रात दस बजे सभा में उपस्थित सज्जनों की मतगणना का आदेश दिया । मैं अच्छी तरह से दिखने लगा कि कौन किस पक्ष में वोट देता है । साहित्यिक भाषा के पक्ष में तो एक तरह से हाथ उठा ही नहीं, यह कहना अनुचित नहीं होगा । दो-चार स्कूली बच्चों ने अवश्य इस पक्ष में हाथ उठाया था और उसका भी कारण था । राजपरिवार के एक बच्चे ने साहित्यिक भाषा के पक्ष में वक्तव्य दिया था, ये बालक उसी के सहपाठी थे । जब दूसरे पक्ष का अर्थात् चलाऊ भाषा के पक्ष में मतगणना का आदेश हुआ तो मैंने देखा कि सतरंजी के चारों ओर से बहुत सारे हाथ उसके समर्थन में उठ खड़े हुए । सभी के मन में उत्साह था और उस वृद्ध राजपुरोहित के मन में तो कुछ अधिक ही था । मेरे सामने फुटबाल मैच का लेमनवाला और गाँजा विक्रेता ये दो भी उपस्थित थे । मैंने उनको भी देखा कि वे उत्साहपूर्वक हाथ ऊपर उठाकर सभापति की ओर देख रहे हैं, उनके बोलने पर ही वे हाथ नीचे करेंगे ।

       मैंने सोचा, क्या ये हैं साहित्य के लिए उपयुक्त विचारक और क्या इन्हीं के वोट से हिन्दी-साहित्य की एक उप-शाखा का भाग्य नियंत्रित होगा, ऐसे में, सभा का नोटिस बकरे नहीं खायेंगे तो और कौन खायेगा !

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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