लगभग पंद्रह दिन पहले
मैं किसी कार्य के सिलसिले में बोलपुर गया था ।
वीरभूम में पिछले दो वर्षों से फ़सल नहीं हो रही थी । इस
बार भी किसानों के घर में अन्न नहीं था । वर्षा प्रारम्भ हो गई, परन्तु इससे पहले ही
अनेक लोगों ने भूख मिटाने के लिए
बीज के लिए रखा धान भी खा लिया था,
अत: नये धान के लिए कर्ज़ न मिलने पर बहुतों के
लिए बीज़ बोना भी कठिन था । गवर्नमेंट ने किसानों को पैसा देना प्रारम्भ कर दिया था, परन्तु पैसा कम होने
से वे प्रत्येक बीघे चार आना भी नहीं दे पा रहे थे । इससे कितनी
सुविधा होती ? कृषि के क्षेत्र में एक और विपदा आई, जिसके पास कुछ
सम्पत्ति है, वही गवर्नमेंट के पास से ॠण पा
सकता था । जिसके पास कुछ नहीं, उसके
लिए ॠण लेना भी सम्भव नहीं । वास्तव
में अधिकांश अकाल पीड़ित लोगों के पास जमा-पूँजी नहीं थी ।
उनके बचने के लिए क्या व्यवस्था होगी इसका
भी ठिकाना नहीं था ।
जो लोग मज़दूरी करके खाते हैं उनके
लिए सरकार ने 'टैस्ट रिलीफ़' नाम की एक
व्यवस्था की है । वीरभूम में जगह-जगह पर
रास्ते बनाने या तालाब खुदवाने का काम प्रारम्भ हुआ है । वहाँ पर कोई
भी मज़दूरी करके छह पैसा या दो आना कमा करता था, परन्तु इतनी कम
मज़दूरी पर कार्य करना बड़ा कठिन था । फिर
उनके ऊपर भी दो-चार लोगों के पालन-पोषण का
भार था । फलत: मज़दूरों के परिवार
में आज उनके बीच दैनिक दो-चार पैसा
भी प्रति व्यक्ति नहीं पड़ता था । गाँव के कोई-कोई धनिक ऐसे
सुयोग में सस्ती मज़दूरी में श्रम करवा कर दालान
साफ़ करवा रहे हैं, तालाब खुदवा रहे हैं क्योंकि पैसे का
मूल्य आज बहुत बढ़ गया है । उनमें से
अनेक सोचते हैं कि वे गरीबों को असमय
में कार्य देकर, वास्तव में देश की सेवा कर रहे हैं, परन्तु दु:ख का विषय यह था कि इसी तरह
से देश की सेवा करने के लाभ का सारा
श्रेय धनी लोगों के अपने खाते में जमा हो रहा था । गरीब होते हुए
भी दे पैसे का मुरमुरा खाने के कारण ही
वे बचे हुए हैं, परन्तु जो लोग उन्हें कार्य के
लिए नियुक्त कर रहे हैं; उनके प्रति मज़दूरों की कृतज्ञता को कोई कारण नहीं था ।
वे अकाल के सुयोग में सस्ते में ही दालान
साफ़ करवा रहे हैं ।
बोलपुर पहँचते ही मैंने सुना कि
विलायती यूनियन में स्थित धल्ला नामक गाँव
में दो एक दिनों में ही रिलीफ़ कमेटी की एक ओर
से पन्द्रह दिन के चावल के वितरण का कार्य होगा ।
श्रीनिकेतन के विख्यात कार्यकर्त्ता श्रीयुत काली मोहन घोष के तत्त्वावधान
में वहाँ पर रिलीफ़ का कार्य चल रहा था । प्राय: दो महीने पहले कर्मचारियों ने
विलायती यूनियन के प्रत्येक गाँव
में प्रत्येक गृहस्थ के घर जाकर किसको कितना देना ठीक होगा, उसकी एक तालिका तैयार की थी । उसी आधार पर प्रत्येक परिवार को एक-एक करके टोकन दिया गया ।
वे प्रत्येक चौदह दिनों के बाद धल्ला गाँव स्थित केन्द्र
से बही पर हस्ताक्षर करके अपना चावल
ले जाते थे । रिलीफ़ कमेटी की आर्थिक स्थिति
अच्छी नहीं थी । एक परिवार में सभी को पर्याप्त
मात्रा में आहार देने की शक्ति उनमें नहीं, जिससे तीन-चार
लोगों के बीच एक व्यक्ति को पूरा अर्थात् चौदह दिन के
लिए छ: सेर नौ छटाँक और एक व्यक्ति को आधा
अर्थात् लगभग साढ़े चार सेर चावल दिया जाता है । उसी
में सारे परिवार को चलाना पड़ता है ।
धल्ला गाँव बोलपुर से लगभग बारह
मील के दूरी पर स्थित है । हम लोग जब कालीमोहन
बाबू के साथ वहाँ पहुँचे तो सुबह के
लगभग नौ बजे थे । तब भी वहाँ पर अधिक
लोग इकट्ठे नहीं हुए थे । सुबह के दस-साढ़े दस
बजे के बीच सभी के आ जाने पर ही कई स्थानीय सहायकों की सहायता
से चावल-वितरण का कार्य आरम्भ हुआ । गाँव के
यूनियन बोर्ड के जो प्रेसीडेंट थे, उन्हीं के घर पर यह केन्द्र
बना था । सहायकों और रिलीफ़-कार्य के प्रति
वे यथेष्ट सहानुभूति दिखा रहे थे । इसीलिए कालीमोहन
बाबू उनके सहयोग से ही कार्य कर रहे थे । इधर धल्ला गाँव
में गवर्नमेंट का भी एक रिलीफ़ केन्द्र खोला गया था । वहाँ चावल के
बदले नगद पैसा दिया जा रहा था । गवर्नमेंट के केन्द्र
में लगभग १२० लोगों को और रिलीफ़ कमेटी के केन्द्र
में १०४-१०५ लोगों को उस दिन चावल और पैसा वितरित किया गया ।
यूनियन के २९ गाँवों में सभी की अपेक्षा इसी की स्थिति
सम्भवत: सबसे ख़राब थी । कई लोग
भूख से सर चुके थे । जो लोग भूखे थे,
उनके लिए कोई अतिरिक्त व्यवस्था करना
रिलीफ़ के पैसे से सम्भव नहीं था और
यदि आधा पेट भोजन पर विचार करें तो
वास्तव में वीरभूम उसी पर तो बचा हुआ था । यह आज नयी
बात नहीं है । जो लोग चावल ले आये थे,
उनमें अधिकांश स्रियाँ और बच्चे थे ।
अकाल का जैसा रुप अखबारों में छपा होता है, इन
लोगों का चेहरा वैसा नहीं था । सभी को
ये अख़बार वाले दुबले-पतले कंकाल
से दिखाते थे, वैसा नहीं था । जो-चार
लोग अवश्य देखने में वैसे ही लगते थे, परन्तु
वे तो अंतत: सभी को दुबला ही दिखा रहे थे
अथवा उनके शरीर पर रोग के चिन्ह स्पष्ट विद्यमान हैं, यह दिख रहे थे। एक छोटी
लड़की का पैर बेरी-बेरी से ग्रसित होकर
सूज गया था, उसके कमर के ऊपर कोई
वस्र नहीं था । आँकें और मुँह सूजो हुए थे । उसके पैर पर जड़ी
बँधी देखकर मैंने पूछा, "सुना है रात
में किसी साधु-गुनी ने यहाँ आकर यह
मंत्रपूत जड़ी बाँध दी है । इससे और कितना उपकार होगा ? इसे तो
लगातार चार-पाँच महीने इलाज कराने पर ही इसका
स्वास्थ्य अच्छा हो सकता है ।" मैंने ऐसे ही दो-एक स्रियों को और देखा । एक स्री का तो दिमाग ही कुछ ख़राब हो गया था ।वह जाति
से हरिजन या डोम होगी । वह पागलों की तरह घूमते हुए
बात कर रही थी और इतराती हुई तनिक हँसकर
बोल रही थी - 'नहीं दोगे ?' पगली अकाल-पीड़ित नहीं
ला रही थी, परन्तु गाँव का चौकीदार
बोला, "यह दो दिन से अपने घर में
सोई थी । छत ढका हुआ नहीं है । वर्षा के जल
से घर में कीचड़ बन गया । उसके गाँव की
लड़कियाँ धल्ला आते समय ज़बरदस्ती इसे वहाँ
से पकड़कर ले आयीं ।" मैंने एक किसान को
भी देखा । लम्बा बलिष्ठ शरीर, परन्तु
भूखे पेट रहने से वह तनिक सूख गया था । इससे पहले उसे
सामुदायिक रुप से चावल दिया गया था, परन्तु आज उसकी बही काटकर एक
अन्य आर्त्त-वृद्ध को चावल देने की व्यवस्था की गई थी ।
वृद्ध किसान की आँखों में निवेदन की
भाव आ गया था । बरामदे के एक खम्भे की ओट करके उसने दो एक
बार अत्यंत धीरे-से, अत्यंत लज्जित होकर निवेदन किया कि खेती पथारी का कार्य प्रारम्भ होने पर
भी उसे अभी तक काम नहीं मिला है । घर
में पाँच-छह लोग खाने वाले हैं, उसे कुछ दिन और
भी चावल दिया जाय, परन्तु रिलीफ़ के
लिए पूँजी की कमी के कारण उसे और सहायता देना
सम्भव नहीं हो सका । चावल वितरण
समाप्त होते-होते दोपहर के दे
बज गए । जिन्हें कानूनन सहायता मिलने की
बात था, उन्हें छोड़कर और भी अनेक माँगने
वाले थे । उनमें से कई लोग सिर पटककर, पैर पकड़कर काली मोहन
बाबू से विनती कर रहे थे, परंतु जब पैसे की ही कमी थी, तब इच्छा होते हुए
भी देने का तो कोई साधन नहीं था ।
मैंने देखा-कपड़े का भी बहुत अभाव है । कलकत्ते
में एक महीने पहले ही फटे कपड़ों का संग्रह हुआ था, किन्तु एक महीने
में ही बहुत-से कपड़े फटकर टुकड़े-टुकड़े हो गये थे । दो-एक नये कपड़ों के टुकड़ों
से एक बीस वर्ष की युवती किसी तरह
से अपनी लाज को बचा रही थी । वितरण का
सारा कार्य समाप्त होने पर जिस सज्जन के हम अतिथि
बने थे, उन्होंने हम लोगों के भोजन का आयोजन किया था । हम
लोग कई सज्जन बाहर से आये थे,
विशेषकर श्रीनिकेतन से कालीबाबू के
साथ, इसलिए
हम लोगों के खाने की व्यवस्था काफ़ी विस्तार
से हुई थी । अच्छे चावल का गरम भात, गाय का घी, तालाब की
मछली की तरी, दही आदि सभी जब एक-एक करके आने
लग, तब लज्जा से हमारा सिर झुकने
लगा । घर के मुखिया ने सरल भाव
से आयोजन अवश्य किया था, परन्तु इतनी देर
से आधे भोजन पाते लोग, इतने नर-नारी और
बच्चों को देखने के बाद इस अन्न को खाने की इच्छा एकदम
समाप्त हो गई थी । बाहर अब तक प्रार्थियों का दल छ्ँट चुका है । दूर के गाँवों
से आये लोग चावल या पैसा लेकर चले गये हैं ।
मात्र पास के गाँव की दे-चार स्रियाँ ही अब
भी दे चार पैसे के लोभ में हमारे
भोजन के अंत होने की प्रतीक्षा में बैठी हैं ।
मैंने देखा-एक लड़की रास्ते पर पेड़ के नीचे
बैठकर कटोरे से लड़के को चावल खिला रही थी और प्रतीक्षारत एक
अन्य व्यक्ति चावलों की पोटली को अच्छी तरह
से बाँधने में स्री की सहायता कर रहा था ।
लड़कियाँ घर के भीतर से दिखाई दे रही थीं और
वे भी बीच-बीच में हमारे खाने की तरफ़ देखती थीं, इसलिए गृहस्वामी ने खिड़की के नीचे का कपाट
बंद कर दिया, परन्तु लज्जावश हमारे मुँह
में भात अच्छा नहीं लग रहा था । हमने नितान्त चोर की
भाँति जल्दी-जल्दी भोजन समाप्त किया ।
मैं सोचने लगा कि इस दरिद्रता के निकट हमारी
सम्पन्नता कितनी हीन और कितनी निष्ठुर दिखती है ! बहुत-से
लोगों को मात्र एक मुट्ठी भिक्षा देकर
या कपड़ा वितरित करके हम लोग भूख
रुपी मृत्यु के हाथ से उनकी रक्षा कर
सकते हैं, परन्तु हम लोगों के कारण
ये जो बहुत-से लोग अपने आत्मसम्मान को
भूलकर आज भिखारी हो गए हैं, इसका इलाज कहाँ है ?
अस्थायी रिलीफ़ को द्वारा कोई-कोई आत्मप्रसाद का लाभ उठा सकते हैं, परन्तु कालीमोहन बाबू स्वयं बोले, "इनके लिए कोई स्थायी व्यवस्था नहीं की जा रही है, वही होने पर उचित होगा ।"
वास्तव में, भिक्षा देना दरिद्रों का उपचार नहीं है । जब तक सामाजिक व्यवस्था से आमूलचूल परिवर्तन के द्वारा दरिद्रता को देश से निकाल नहीं दिया जाता, सभी के मन में आत्मसम्मान लौट नहीं आता, तब तक हमारा कार्य समाप्त नहीं होगा । हमें इसमें जुटे रहना होगा । जहाँ मनुष्य की अंतरात्मा ही मर रही है, वहाँ केवल दो मुट्ठी चावल देकर कितना उपकार होगा ? रिलीफ़, यदि प्रत्येक वर्ष देना ही पड़ता है तो हमारे लिए यह लज्जा और क्षोभ के अलावा और कुछ भी नहीं, परन्तु जब तक वर्तमान आर्थिक नीति में आमूल परिवर्तन नहीं होता, तब तक दरिद्रता के कम होने की कोई सम्भावना नहीं है ।
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