परिव्राजक की डायरी |
महात्मा गांधी |
|
सन्
१९३४ के नवम्बर महीने में कांग्रेस के
अधिवेशन के पश्चात् बम्बई से बंगाल
लौट रहा था । मेरे सहयात्रियों
में शांतिनिकेतन के अध्यापक श्रीयुत
कृष्ण कृपलानी भी थे । बम्बई-नागपुर
के रास्ते कलकत्ता आते हुए नागपुर के
निकट वर्धा नामक स्टेशन पड़ता है ।
वर्धा आश्रम में उस समय सीमान्त के
नेता अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान साहब रह
रहे थे । उनके पुत्र अब्दुल गनी विदेश
से रसायन-विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करके
आये थे, किन्तु शिल्प कला में उनकी स्वाभाविक
रुचि होने से उन्होंने नौकरी नहीं
की और शिल्पी नंदलाल बसु के
शिष्य बन गए । शांतिनिकेतन में गनी
साहब अध्यापक कृपलानी की देख-रेख
में ही रहते थे । छुट्टी होने पर
वे एक निश्चित समय में अपने पिता के
पास घूमने आये थे । पिता-पुत्र दोनों
ने कृपलानी साहब को वर्धा आने का
निमंत्रण दिया था । इसीलिए उन्होंने
एक दिन वर्धा में काटने का निश्चय किया
। मैं भी सहयात्री के रुप में इस सुयोग
में महात्मा गांधी के दर्शन करने के
लोभ से साथ हो लिया । अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान और उनके पुत्र
के आशीर्वाद से वर्धा में हम लोगों
को किसी प्रकार की असुविधा नहीं
हुई । हम लोगों को
श्रीयुत् जमुनालाल बजाज की अतिथिशाला
मे रहने का स्थान मिला । उस दिन शाम
को बातों के प्रसंग में अध्यापक कृपलानी
ने ख़ान साहब से गांधी जी से
हमारी भेंट की बात कही । ख़ान
साहब ने भी इस सम्बन्ध में प्रयास
करने का आश्वासन दिया । दूसरे
दिन यह सूचना मिली कि गांधी जी
अपराह्म साढ़े चार बजे हम लोगों
से मिलेंगे । सारा दोपहर आनन्द और
उद्वेग में कट गया । मैंने गांधी जी से
पूछने के लिए एक छोटी-सी कॉपी में
चार प्रश्न लिखकर रख लिए । शाम को
चार बजे के कुछ देर बाद ख़ान
साहब, उनके पुत्र, अध्यापक कृपलानी और
मैं एक साथ मिलकर जमुनालाल बजाज
जी की अतिथिशाला से प्राय: आधा मील
दूर महात्मा गांधी के आश्रम की ओर
रवाना हो गए । वर्धा छोटा-सा शहर है और आश्रम
उसके पूर्वी भाग में स्थित है । वहाँ
बहुत से घर हैं तथा शाक-सब्जी और
कपास के कुछ खेत भी हैं । रास्ते
बिल्कुल साफ़-सुथरे थे । गांधी जी
जिस घर में थे, वह छोटा होने पर
भी दो तल्ले का था । दूसरे तल्ले पर
मात्र एक बड़ा कमरा था, जिसके चारों
ओर खुली छत थी । छत पर मैंने दो-चार
लोगों को चलते-फिरते देखा । घर
के नजदीक पहुँचने पर मैंने देखा
कि रास्ते के किनारे एक स्थान पर
बहुत-से पत्थरों का ढेर लगा हैं ।
ऐसे पत्थर इस क्षेत्र में यत्र-तत्र मिलते
हैं । इससे रास्ता बनाने के लिए इसे
यहाँ संग्रह करके रखा हुआ है । आश्रम
के बरामदे पर चढ़कर गांधी जी के
सचिव श्रीयुत् प्यारेलाल जी से भेंट
हुई । प्यारेलाल जी के कमरे के पास
ही दूसरे तल्ले पर जाने की सीढ़ी
थी । सीढ़ी के नीचे एक स्वयंसेविका
बेंच पर बैठकर तकली कात रही थी
और साथ ही पहरेदारी भी कर
रही थी । सीढ़ी के पास हमने देखा
कि पेड़ों के बीच एक ब्लैकबोर्ड टँगा
है । गांधी जी सारे दिन किससे कब
भेंट करेंगे, यह उस पर खड़िया के
लिखा हुआ था । उस पर यह भी लिखा
था कि साढ़े चार बजे के बाद एक घंटे
तक गांधी जी का अवकाश है । यह उनके
शाम के नाश्ते का समय था । अतएव
हम लोगों के साथ बातचीत नाश्ते
के समये ही होगी, मुझे यही लगा
। अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान साहब हम लोगों
को नीचे बैठाकर सीधे ऊपर चढ़ गए
। किसी ने उनसे पूछताछ नहीं की । उसके
बाद उन्होंने गांधी जी से भेंट करने
के लिए छत से ही हम लोगों को ऊपर
आने का इशारा किया । हम लोग सीढ़ी
चढ़कर ऊपर जाने लगे । इसी समय
प्रहरी स्वयंसेविका ने हम लोगों
को बताया कि अभी गांधी जी के नाश्ते
का समय है, बाहरी किसी भी व्यक्ति
के साथ भेंट नहीं होती है, किन्तु ख़ान
साहब के ऊपर से निर्देश देने पर
उन्होंने रास्ता छोड़ दिया । ऊपर पहँचकर हमने देखा कि
गांधी जी उस बड़े कमरे के एक किनारे
पर एक छोटे डेस्क के सामने बैठकर
कुछ लिख रहे हैं । कमरे में हम लोगों
के प्रवेश करते ही उन्होंने हमारा
अभिवादन किया और पास में ही सतरंजी
पर बैठने के लिए कहा । हमारे बैठने
के बाद वे अपना कार्य समाप्त करके
बातचीत करने आ गए । इसी बीच दो
स्वयंसेविकाएँ उनके नाश्ते की व्यवस्था
करने में लग गई । गांधी जी ने थोड़ा
दूध, साफ़-सुथरे छुड़ाए गए संतरे और
थोड़ा-सा शहद खाया । पास ही बर्तन
में नकली दाँत रखे हुए थे । खाने से
पहले गांधी जी ने उन्हें लगा लिया,
फिर खाना समाप्त होने के बाद उन्हें
धोकर रख दिया । संतरे आदि गांधी
जी एक चम्मच से खाने लगे । बर्तन-तौलिये
और चादर इत्यादि सभी साफ-सुथरे
दिखे । कहीं भी, थोड़ी-सी भी गंदगी
नहीं थी । खाना प्रारम्भ करके गांधी जी ने
अब्दुल गनी के ओर देखकर पूछा, "क्या
तुम्हारा सब ठीक चल रहा है ?"
अब्दुल गफ्फ़ार ख़ान साहब के पुत्र
होने पर भी गनी को राजनीति में
तनिक भी उत्साह नहीं था । उनकी इच्छा थी
कि शिल्प विद्या में ही वे अपने को पूर्ण
समर्पित कर दें, जबकि पिता की इच्छा
थी कि वे सीमान्त प्रदेश में राजनैतिक
आंदोलन में किसी भी तरह से उनकी
सहायता करें । इस बात को लेकर
पिता-पुत्र में मतभेद चल रहा था और
गांधी जी पर इसके समाधान का भार
डाला गया था । अत: गांधी जी क्या बोलते
हैं, यह सुनने के लिए हम लोग उत्सुक
हो रहे थे । अब्दुल गनी से प्रश्न करने के पश्चात्
ही गांधी जी ने अध्यापक कृपलानी की
ओर देखकर पूछा, "आप तो कितने
ही महीनों से गनी को देख रहे
हैं, आप क्या सोचते हैं ? क्या शिल्प
इसके लिए ठीक है ? नन्दलाल बसु क्या
कहते हैं ?" बन्धुवर ने उन्हें बताया
कि नन्द बाबू ने गनी कि प्रतिभा की
बहुत प्रशंसा की है और फिर उनको
अत्यंत निष्ठा के साथ साधना में लगने
का उपदेश दिया है । परिश्रम न करने
पर उनकी प्रतिभा नहीं उभरेगा, यह भी
उन्होंने कहा है । अंत में कृपलानी
साहब ने कहा, "Ghani
flirts with his art, he has not yet taken it seriously as he should
"
- यह सुनकर गांधी जी जोर से
हँस पड़े और बोले, "See
that he does not flirt with anything else."
अब तक हमारी बातचीत जैसे गरमागरम
वातावरण में हो रही थी । गांधी जी
की रसिकता का हम लोगों को पता
लग गया । गनी लज्जा से कुण्ठित हो गए
। तब गांधी जी गनी के शांतिनिकेतन--प्रवास
के सम्बन्ध में गहराई से छानबीन
करते हुए पूछताछ करने लगे । पता
चला कि काष्ठ-मूर्ति-निर्माण में गनी
की विशेष प्रतिभा हैं, किन्तु नन्दलाल
बसु ने कहा कि वे स्वयं इस
विषय की शिक्षा देने में सक्षम नहीं
हैं । यह सुनकर गांधी बोले, "होने
दो, उन्होंने तो शिल्प के मूल रस को
ही आसक्त कर लिया है । He
knows the poetry of carving ।"
परन्तु गनी मियाँ तब भी टेढ़े ही
बैठे रहे । उनकी इच्छा पिता के धन पर
निर्भर न रहकर कहीं रासायनिक की
नौकरी करने की थी और अवसर मिलने
पर शिल्प-शिक्षा ग्रहण करते । यह सुनकर
गांधी जी ख़ान साहब की ओर मुड़कर
मुस्कुराते हुए बोले, "हूँ, मैं
सब समझ गया हूँ ।" ख़ान साहब
अपराधी की तरह बोले, "आज तक मैंने
गनी के शिल्प में बाधा नहीं दी है, केवल
उसके द्वारा जनसाधारण की कोई सेवा
हे, यही मैं चाहता हूँ । हमारे सीमान्त
में अपनी ही पत्रिका है, गनी यदि उसका
भार सम्भाल ले, तभी मेरा मन पूर्ण
प्रसन्न होगा । पुस्तक लिखने पर इसका
अच्छा नाम हुआ है । घोड़े पर चढ़कर
सैनिकों के बीच गनी आगे-आगे चलेगा,
ऐसी आशा मैंने नहीं की है ।" गांधी जी कुछ देर तक चिन्तित
होकर सोचने के बाद बोले, "नहीं,
गनी अभी इस तरह का काम नहीं सँभाल
पायेगा । उसको अभी नौकरी ही करनी
होगा । मैं जमुनालाल जी से कहकर
किसी चीनी के कारख़ाने में काम दिलाने
का प्रयास कर्रूँगा । परन्तु गनी, तुम
मुझे वचन दो कि तुम शिल्प-विद्या नहीं
छोड़ोगे और जितने महीने चीनी
मिल बन्द रहती है, उस समय शांतिनिकेतन
जाकर नंदलाल बसु के पास रहोगे
।" ऐसे समाधान से गनी परम आनन्दित
हुए । ख़ान साहब ने चुपचाप उनकी बात
मान ली । हम लोगों को आश्चर्य लगा
कि स्वयं दूसरों की सेवा और राजनीति
के लिए समम्त जीवन उत्सर्ग करके भी
गांधी जी ने कितने सहज होकर एक
युवक से शिल्पी के स्वकीय सत्य का
स्वीकार करवा लिया । बाद में सूचना
मिली कि गनी साहब उत्तर प्रदेश के
एक कारख़ाने में नौकरी पा गए हैं, किन्तु
शिल्प साधना को बरकरार रखने में
समर्थ हुए या नहीं, यह मैं नहीं जानता
। गनी के साथ बातचित समाप्त
होने पर गांधी जी ने हमारी ओर
मुड़कर पूछा, "Now
tell me something about yourself."
मैंने यथासम्भव संक्षेप में ही अपने
कार्यों को समेटने का प्रयास किया
। किन्तु गांधी जी प्रश्नों के बाद प्रश्न करके
सभी बाते जान गए । मेरे जीवन का क्या
लक्ष्य है ? कितना ख़र्च करता हूँ ? मेरी
आय कितनी है ? विवाह किया है या
नहीं ? करोगे
या नहीं ? प्राय: सब कुछ । अत्यंत व्यक्तिगत
प्रश्न भी वे इतने सहज भाव से कर
रहे थे कि कुछ भी बुरा नहीं लग
रहा था । जैसे मित्र घनिष्ठ रुप से बातचीत
करते हैं, वैसे ही वे प्रश्न कर
रहे थे । उनमें परीक्षक या विचारक
का भाव किंचित-मात्र भी नहीं था । व्यक्तिगत परिचय समाप्त होने के
बाद हमारे अलोच्य विषय पर बात
चली । लगभग पैंतालीस मिनट तक गांधी
जी धैर्यपूर्वक हमारे प्रश्नों और
प्रतिप्रश्नों का उत्तर देते रहे । पहले
तो वे अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे ।
उनकी भाषा जैसी सरल थी, वैसी
ही स्पष्ट । किन्तु कुछ देर तक अंग्रेज़ी
में बातचीत होने के बाद ख़ान
साहब ने कहा कि उन्हें सभी बाते समझने
में परेशानी हो रही है । तब गांधी
जी ने मुझसे पूछा कि मैं उर्दू समझता
हूँ या नहीं । मैं मोटा-मोटी उर्दू
समझ लेता हूँ, परन्तु बोल नहीं
सकता, इसीलिए मैं अंग्रंज़ी में प्रश्न करने
लगा और गांधी जी अत्यंत सरल हिन्दुस्तानी
या उर्दू में जवाब देने लगे । इस कथोपकथन
का वृतान्त वर्ष १९४२ में देश पत्रिका के
पूजा विशेषांक में प्रकाशित हुआ था
। अत: उसकी पुनरावृति का कोई अर्थ
नहीं है । उस दिन प्रश्नों की समाप्ति पर गांधी
जी ने मुझसे पूछा कि मैं और कितने
दिन वर्धा में रहूँगा । हम लोगों
का दूसरे दिन प्रात: चले जाने का
कार्यक्रम था, किन्तु सभी प्रश्नों के समाधान
न होने के कारण गांधी जी ने जाने
स्थगित करने का अनुरोध किया । ऐसा
निमंत्रण तो बड़े भाग्य से मिलता
है । किसी दुविधा में न पड़कर मैं भी
अगले दिन आश्रम में ही रह गया । उस
दिन और दूसरे दिन भी गांधी जी के
भोजन समाप्त होने पर हम लोग
सभी उनके साथ टहलने के लिए
बाहर निकले । मैंने देखा कि ऊँचे-नीचे
रास्ते पर भी गांधी जी काफ़ी तेजी
से चल रहे हैं । टहलने जाते समय
आश्रम की कई स्वयंसेविकाएँ
हमारे संग थीं । गांधी जी उनके साथ
विभिन्न प्रकार का बातें करते हुए चलने
लगे । लौटते समय अचानक मैंने देखा
कि गांधी जी दो-तीन टुकड़े पत्थर उठा
रहे हैं और उसके बाद सभी उनके देखा
देखी सुविधानुसार पत्थर खोजना
प्रारम्भ कर रहे हैं । गनी से पूछने
पर उन्होंने बताया कि ऐसा रोज़
ही होता है और सुबह तथा शाम
दोनें पहर गांधी जी कुछ-कुछ पत्थर
चुनकर ले जाते हैं । आश्रम का रास्ता
ख़राब होने पर उसके ठेकेदार दो-तीन
हज़ार रुपया माँग रहे थे, इसीलिए
गांधी जी सभी को ले जाकर नित्य थोड़ा-थोड़ा
करे पत्थर एकत्र कर रहे हैं । आश्रम से
सामने हमने पत्थर के टुकड़ों का जो
ढेर देखा था, वह इसी कारण से बनाया
गया है । ख़ान साहब ने अपने मोटी
चादर में कई बड़े पत्थरों का टुकड़े
बाँधकर कंधे पर लादकर फेंका । एक
स्वयंसेविका भी अपनी शक्ति से अधिक
बड़ा पत्थर का टुकड़ा उठाने का प्रयास
करने लगी । गांधी जी उनकी ओर देखकर
हँसकर बोले, "देखो
देखो, राजपूतनी है न, इसीलिए
अपनी शारीरिक शक्ति का इतना घमंड
है उसे ।" संध्या का अंधकार फिर घिरता
चला आ रहा था । हम सभी महात्मा गांधी
के पीछे पंक्तिबद्ध होकर पत्थर उठाए आश्रम
की ओर बढ़ने लगे ।
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है । प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित All rights reserved. No part of this book may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, including photocopy, recording or by any information storage and retrieval system, without prior permission in writing. |