परिव्राजक की डायरी |
बुदरो |
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गाँव
का नाम बुदरो है । अजय नदी के किनारे
जहाँ कल्याणपुर से होते हुए पारुल
ड़ंगा का रास्ता खेयाघाट पार होकर
गया है, वहीं से कोस भर पश्चिम
में बुदरो स्थित है । एक समय में
बुदरो काफ़ी बड़ा बाज़ार था ।
यहाँ बहुत सारा नावें आतीं और
धान, चावल, शाक-सब्ज़ी, मिट्टी के
बर्तन आदि काफ़ी मात्रा में खरीदे-बेचे
जाते थे, परन्तु नदी पर रेलवे लाइन
बन जाने के बाद गाँव धीरे-धीरे
बरबाद हो गया । एक-एक करके चौधरी
की ड्योढ़ी, तिलि के ठाकुर का दालान
आदि सब कुछ ख़ाली हो गया है । किसी-किसी
घर में अभी भी दो-एक वृद्ध विधवा
स्रियाँ ही रहती हैं । वे शाम को
दीये जलाती हैं, परन्तु कोई-कोई
तो यह भी नहीं करती । लोगों के
न रहने से घेंटू फूल, सूर्यमुखी,
नागफनी आदि के पौधे उग आये हैं ।
कई कोठो पर बरगद का पौधा उगने
से दीवार फट गई है । उसके बाद
आस-पास के गाँव के लोग यहाँ से
दरवाज़े, खिड़कियाँ, यहाँ तक कि
लोहे की कड़ियाँ वगैरह भी, जिसे
जो मिला, खोलकर ले गये । प्रत्येक
घर का छत धँसकर आकाश की ओर
मुँह ताक रहा है । एक घर के आँगन
में तुलसी चौरे के ऊपर किसी ने
कभी जल का एक पात्र बाँध दिया था ।
समय के गुजरने के साथ तुलसी का
पौधा भी सूखकर चिन्ह-रहित हो
गया है, परन्तु उसी स्थान के निकट दो
दरबारी आज भी उसी तरह खड़े हैं
। ऊपर की रस्सियों को दीमक खा
गयी है, टूटी हंडी के टुकड़े अभी
भी नीचे पड़े हुए हैं अब उसे साफ़
करने के लिए लोग नहीं रहे । इन जीर्ण-शीर्ण और सूनी ड्यौढियों
के आस-पास दो झोंपड़ियाँ दिखती
हैं । उनमें किसान रहते हैं । वे अपनी
सुविधानुसार सूने घर के बरामदे
पर धान झाड़ने की व्यवस्था कर लेते
हैं, परन्तु घर जैसे हैं, वैसे ही
पड़े रहते हैं । कृषकों के घर छोटे
और अपेक्षाकृत नीचे हैं । समीप की
विशालकाय अट्टालिका की गोद में
मानों उनका दम अटक जाता है, इसीलिए
अधिकांश किसान बुदरो से कुछ दूर
पर घर बनाकर रहते हैं । ड्योढियों
को वे यथासम्भव नज़रअंदाज करके
चलने का ही प्रयास करते हैं । उनका
निर्माण करके कोई भी नये गाँव
को बसाने का प्रयास नहीं करता ।
वास्तव में बुदरो में नदी के किनारे
इन्होंने रहने के लिए जो ज़मीन कब्ज़ा
कर रखी है, निश्चित रुप से उससे
यह जगह अच्छी है । वहीं नदी के किनारे
एक मुस्लिम युवक से भेंट हुई ।
तब दोपहर का समय होगा, परन्तु
वह हमारे साथ पुराने घरों के
भीतर चलने के लिए किसी भी तरह
तैयार नहीं हुआ । उसने बताया कि
"वहाँ दिन में भी भूत आते-जाते
हैं और मौका मिलते ही वे लोगों
का अनिष्ट कर बैठते हैं ।" साँप-बिच्छू
की बात नहीं थी । वहीं उन्हीं किसानों
को ख़बर मिलने पर उन्होंने बहुत
बूढ़े साँप का एक जोड़ मार दिया था
। मैंने उससे पूछा, "यह जो पहाड़
के समान गाँव में दालानों का बोझा
पड़ा हुआ है, उसे सब मिलकर तोड़कर
समतल जगह क्यों नहीं बना देते ?
अपनी छाती पर मनुष्य इतना बोझ
क्यों सहता है ?" मुसलमान युवक
ज्ञानी था । वह बोला, "क्या काम
है बाबू ? हम लोगों के उधर न जाने
से ही तो ऐसा हुआ है ।" उत्तर सुनकर
आश्चर्य लगा । मैं सोचने लगा -
यही तो सच है । हिन्दू समाज के
शरीर में भी तो ऐसी ही कितने युगों
की प्राचीन अट्टालिकाएँ बिखरी पड़ी
हैं जो तिली के ठाकुरों की टूटी
हवेली के समान ही हैं, जिसने किसी
समय में कितने ही प्राणियों को आश्रय
दिया, कितने ही लोगों में आनन्द बाँटा,
परन्तु आज उसके मृत शरीर पर समाज
के अनेक वर्गों ने दख़ल कर लिया
है और छाती पर रखे बोझ के समान
मनुष्य के प्राणों को थका रहा है
। मनुष्य उसके भार से भागने का प्रयास
करता है । बुदरो के प्राचीन भूत
के समान ही उसने आज भी हम लोगों
के हृदय को आच्छादित किया हुआ
है, चाहे हम जाति से हिन्दू हों
या मुसलमान, हम सभी का मन अप्रसन्नता
और आशाहीनता से जकड़ गया है । यहाँ पास में ही पारुल डांगा
के संथालों की बस्ती है । बुदरो
से लगभग आधा कोस दूर एक ऊँचे
स्थान पर उन्होंने अपना घर बनाया
है । उनके घर इत्यादि बिल्कुल साफ़-सुथरे
थे । घरों के बाहर की दीवार गीली
मिट्टी से लिपी हुई थी । फिर समय
मिलने पर वे दरवाजे के पास लाल,
सफ़ेद और काले रंगों से हाथी घोड़े
और मनुष्यों के चित्र भी रँगते
हैं । वे सारा दिन मेहनत करते
हैं और उसी के बीच पुरुष लोग दोपहर
में अपनी पत्नी द्वारा लाये गये झकझक
चमकते कटोरे में चावल और साग
का भोजन भी करते हैं । कार्य करते
समय गीत गाते हैं, अवसर मिलने
पर बाँसुरी बजाते हैं, फूल चुनते
हैं, नाचते हैं, मदिरा पीते हैं, थके
हुए पक्षी को बगीचे में पाकर उसका
शिकार करते हैं, नहीं तो पालते
भी हैं, । उनका जीवन दरिद्र होने पर
भी आनन्द के कितने ही रसों से
सिंचित है । उनके यहाँ भी, पुरानी बातों को नहीं मानते, ऐसा नहीं है, फिर भी वे पुरानी बातें उन्हें मोहग्रस्त नहीं कर पातीं । उन दिनों गाँव में कई लोगों की मृत्यु हुई तो ऐसे में गोटा बस्ती के लोगों ने कहा कि अब यहाँ और नहीं रहा जा करता । फिर उन्होंने यहाँ घर बनाकर पुराने घर को एकदम ध्वंस और निश्चिन्ह करके पुन: डांगा जाकर नये घर बनाए । इन दो जातियों के बीच लड़ाई बिल्कुल नहीं थी । वास्तव में भिन्नता कहाँ है ? भिन्नता मन में है । एक व्यक्ति पुराने गाँव के समान जीर्णता के भाव से अवसन्न और कठोर हो गया है और एक व्यक्ति प्रवहमान नदी की भाँति प्राचीनता के आधात से एक-एक धुलते हुए उठने पर भी अपनी लहरों की धार को कीसी भी तरह आबद्ध और कीचड़ युक्त नहीं होने देता । यही दो लोगों के बीच की भिन्नता है । एक प्राचीन प्राणवान शरीर का कंकाल है और एक नदी के समान शक्ति का आधार । इसी सजीव जलधारा का आश्रय लेकर फिर मनुष्य का निवास नयी सभ्यता, नये धर्म की स्थापना करते हुए उठ पाते हैं, प्राचीनताओं के बीच मानों उनकी सम्भावना आज और नहीं है । |
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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