परिव्राजक की डायरी

तुलसी दा


लगता है, बचपन में संडे स्कूल के प्रभाव से ही मेरे मन में यह धारणा बन गयी थी कि जो केश-सज्जा करते हैं, वे अच्छे लड़के नहीं होते या जो भी कोई अच्छे कपड़े-लत्ते और जूते पहनकर इत्र लगाकर घूमते हैं, वे कभी भी पढ़ते-लिखते नहीं हैं । ऐसे लड़के हमारी कक्षा में नहीं पढ़ते, ऐसी बात नहीं है, किन्तु मैं उन्हें किसी भी तरह से वैसे लड़कों के समान नहीं सोच पाता था । कॉलेज में जाने पर भी यह धारणा बहुत दिनों तक मेरे मन से नहीं गयी थी । इसे जाने में काफ़ी समय लगा था । जिसके प्रभाव से मेरी यह धारण समाप्त हो गयी थी, वे तुलसी भाई आज नहीं हैं । यदि जीवित होते तो हमारे विचार में परिवर्तन से वे प्रसन्न ही होते, परन्तु आज उसे बतलाकर दु:ख करने से कोई लाभ नहीं । जब मैं कॉलेज में पढ़ता था, उस समय अमिय नाम का एक छात्र हमारी कक्षा में पढ़ता था । उसका घर हमारे घर के समीप ही था और हम दोनों साथ मिलकर ही पढ़ते थे । किसी-किसी दिन तो रात-दिन दोनों उसके यहाँ ही कट जाता था । अमिय के घर में अधिक लोग नहीं थे । इसी बीच एक दिन उसके घर उसके दूर के रिश्ते के भाई का उदय हुआ । उनका नाम था तुलसीरतन चट्टोपाध्याय । मैंने भी अमिय की तरह उन्हें तुलसी भाई कहकर पुकारना प्रारम्भ कर दिया ।  

तुलसी भाई बिल्कुल देहाती आदमी थे । पढ़ाई-लिखाई तो उन्होंने छोटी उम्र में ही छोड़ दी थी । इसके बाद शहर में एक ठेकेदार के पास नौकरी करने के बाद वे यहाँ पधारे थे । व बहुत मिलनसार प्रकृति के व्यक्ति नहीं थे । हम लोगों से स्नेह तो करते थे, बीच-बीच में बातें भी करते थे, परन्तु हम लोग खुले भाव से उनसे नहीं मिल पाते थे । फिर आयु की तारतम्यता के कारण भी वे हम लोगों को थोड़ा दूर ही रखते थे । तुलसी भाई को एक शौक़ था । उसे लेकर अमिय और मैं दोनों चुपचाप ख़ूब उठा-पटक करते । तुलसी भाई के बाल देखने योग्य वस्तु थी । वे गर्दन के बाल को एकदम छाँटकर सामने के बाल को लम्बा रखते थे और नित्य ही स्नान के पश्चात् भीगे बाल को एक बड़े आईने के सामने खड़े होकर सँवारते रहते थे । बाल में माँग बनाने में उन्हें आधा घंटा या पैंतालीस मिनट से कम समय नहीं लगता था । उनको माँग सँवारने में जितना समय लगता, उसमें स्कूल के बच्चों का स्नान करके खाना-पीना सभी समाप्त हो जाता था, परन्तु वे अदम्य उत्साह के साथ दायीं ओर माँग को कभी गिराकर तो कभी उठाकर अपने शरीर की शोभा बढ़ाते । हमारे लिए बहुत ही हास्य-व्यंग्य का विषय था । उसके बाद फिर तुलसी भाई बीड़ी पीते । तीसरी कक्षा में पढ़ते समय मैंने बीड़ी पी थी, परन्तु लगता है बीड़ी खराब थी, इसीलिए इतनी बेस्वाद लगी कि हमेशा के लिए ही बीड़ी के धुँए से एक प्रकार की वितृष्णा हो गयी । तुलसी भाई के बीड़ी पीने के अभ्यास के कारण ही हम लोगों को मन-ही-मन उन्हें तंग करने के लिए एक और सुयोग मिला ।

इसी तरह से तुलसी भाई के साथ थोड़ी घनिष्ठता का जन्म हुआ । अंतत: वे हमें बुरे नहीं लगते थे । पहले की हिचक तब तक अधिकांशत: दूर हो गयी थी और दो-एक दिन हम लोगों ने तुलसी भाई की प्रिय माँग बनाने की बात को लेकर उपहास भी किया था । वे यह सुनकर मुस्कुराते या हँसते और हम लोगों को नितान्त बालक जानकर कुछ नहीं कहते ।

दो वर्ष तक पढ़ने और पास करने के बाद अमिय मेडिकल कालेज में भर्ती हुआ । मैं भी अन्य विषय पढ़ने लगा । अमिय के साथ भेंट लगभग नहीं ही होती थी । मैं भी पढ़ने-लिखने में तुलसी भाई की बात बिल्कुल भूल ही गया था । कई वर्षों बाद हमारे एक मित्र के विवाह समारोह में अमिय से पुन: भेंट हुई । पुराने दिनो के प्रसंग उठाकर मैंने उससे घर के प्रत्येक सदस्य के बारे में पूछा । तुलसी भाई कहाँ है ? यह पूछने पर अमिय ने बताया कि तुलसी भाई स्वर्गवासी हो गए । वे कैसे मरे, इसकी कथा भी बड़ी विचित्र है ।

अमिय ने उस वर्ष मेडिकल के प्रथम वर्ष की परीक्षा दी थी । उसी वर्ष तुलसी भैया का विवाह भी हुआ था । विवाह से तुलसी भैया काफी संतुष्ट भी हुए थे और भाभी को गीत सीखने के लिए एक हारमोनियम ख़रीद दिया था । इसके छह महीने के बाद ही तुलसी भाई जिस ठेकेदार के पास नौकरी करते थे, उसी के काम से वे नागपुर गये थे । नागपुर में वे एक मेस में रहते थे । पूजा के समय एक बार छुट्टी लेकर वे घर आये । अब नागपुर में ही उनकी संसार बसाने की इच्छा थी, परन्तु पैसे के अभाव के कारण भाभी को यहाँ नहीं ला सकते थे । इस प्रकार छुट्टी के बाद तुलसी भाई को अकेले ही नागपुर लौटना पड़ा ।

दो वर्ष पहले नागपुर में प्लेग का भीषण प्रकोप हुआ । जिन्होंने पहले की महामारियों को देखा है, वही समझेंगे इसका अर्थ क्या है । शहर की ऐसी स्थिति थी कि भागकर ही बचा जा सकता था । आॅफ़िस, कचहरी सभी बंद हो गए थे । सारा शहर मानों श्मशान के रुप में बदल गया था । तुलसी भैया जिस मेस में रहते थे, वहाँ के किरानियों का दल शहर छोड़कर अन्यत्र जाने लगा, परन्तु जनवासे में अचानक एक व्यक्ति को प्लेग से पीड़ित देखा गया । नौकर-चाकर जहाँ थे, सभी भाग गये । तुलसी भैया केवल अकेले ही रोगी की सेवा करने के लिये रह गये । मुहल्ले में एक दयालु डॉक्टर रहते थे और कृपा करके नित्य ही रोगियों की ख़बर लेते थे । लगभग एक सप्ताह तक मृत्यु से लगातार जूझने के पश्चात् डॉक्टर ने रोगी की स्थिति को अच्छा बताया और तब तक एक नौकर पर उसकी सेवा का भार देकर तुलसी भाई को शीघ्र ही आराम करने की सलाह दी । उस दिन सुबह ही तुलसी भाई के थोड़ा बहुत बुख़ार लगा था । बुख़ार अधिक नहीं था, परन्तु सेवा के अभाव में रोगी एवं डॉक्टर दोनों ने उन्हें तुरन्त घर चले जाने के लिए कहा । दोनों के अनुरोध करने पर तुलसी भाई तैयार हो गये एवं डॉक्टर बाबू स्वयं उन्हें स्टेशन पहुँचाकर रेल में चढ़ाकर आ गये ।

गाड़ी में चढ़ने के बाद तुलसी भैया का बुख़ार तेज़ी से बढ़ने लगा । आधी रात को वे बुख़ार से बिल्कुल अचेत हो गए । सुबह गाड़ी के एक बड़े स्टेशन पर रुकने पर डिब्बे के अन्य यात्रियों ने प्लेग के सन्देह से रेल के गार्ड को ख़बर दी । गार्ड ने भी रोगी की स्थिति को ख़राब देखकर दे कुलियों की मदद से सामान समेत तुलसी भाई को प्लेटफॉर्म पर उतारकर स्टेशन मास्टर के सुपुर्द कर दिया । तुलसी भाई की आवाज़ तब तक बंद हो चुकी थी । थोड़ी देर बाद ही उसी प्लेटफॉर्म पर उनकी मृत्यु हो गई । देखते-ही-देखते प्लेटफॉर्म पर यात्रियों की भीड़ जुट गई । तब कार्यकर्त्ता लोग मिलकर डोम की सहायता से शव को अंतिम संस्कार के लिए ले गये । यात्री के नाम पता को जानने के लिए उनके बिछावन इत्यादि खोजे गये । सिर के नीचे रखे तकिये से कागज़ का एकमात्र टुकड़ा मिला, जिस पर काँपते हाथों से कुछ लिखा था । उस पर लिखा था, "मैं यदि बीमार हो जाऊँ तो इस पते पर तार देना ।" उसमें मात्र भाभी का नाम और पता लिखा हुआ था । वह पत्र किसी समय घर पर पहुँचा । उसी से तुलसी भाई की मृत्यु का समाचार मिला ।

अमिय से उस दिन तुलसी भाई का समाचार सुनकर मन बहुत ख़राब हो गया । शोकाकुल होकर विवाह-समारोह से अंत में घर लौट आया । तुलसी भाई इतने साहसी होंगे, मैंने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी । परन्तु वह व्यक्ति जीवन में ऐसी   चरम वीरता का कार्य कर सकता है, किसी दिन मन में हमने छोटा समझा था, यह विचार करके मैं बार-बार स्वयं को धिक्कारने लगा । उस दिन से किसी को भी कपड़ों-पहनावे का अधिक दिखावा करते देखने पर मुझे तुलसी भाई की याद आ जाती है ।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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