परिव्राजक की डायरी |
तापस |
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शचीन्द्रनाथ
के चरित्र में एक बात ने मुझे आकर्षित
किया और वह थी उनकी तपस्या ।
१९४२ की अगस्त क्रान्ति का कारावास समाप्त
होने पर वे इसी विश्वास के
साथ लौटे कि जनसाधारण के बीच
घोर प्रयास के द्वारा यदि स्वराज
के संकल्प को उनके मन में नहीं
बिठाया जाता और यदि कांग्रेस
कार्यकर्त्ताओं के मन में गांधी जी
के आदर्श एवं उपाय को अपनाकर
सटीक धारणा नहीं बनाई जाती,
तो कांग्रेस की नाव साझी रहित
नाव की भाँति, किस घाट पर जाकर
लगेगी, यह नहीं कहा जा सकता
।
शचीन्द्रनाथ
अत्यंत शांत व सज्जन व्यक्ति थे । वे
धैर्य नहीं छोड़ते थे, परन्तु कांग्रेसी
उसी तरह से स्वतंत्रता के आदर्श
को लेकर नहीं चल रहे या अहिंसा
के आदर्श को उसी तरह स्वीकार
कर लेने पर भी उसके लिए पर्याप्त
प्रयास नहीं कर रहे थे, ऐसा मन
में आते ही उनके मन में असहिष्णुता
का आभास दिखने लगता था । जिसके
भण्डार में पर्याप्त कर्म-शक्ति विद्यमान
है, जो समर्पित होकर स्थिर लक्ष्य
की ओर जा रहे हैं, उनके लिए दूसरों
की धीमी गति पीड़ा का कारण
हो इसमें आश्चर्य क्या है ? स्वयं
जो समस्त कार्यों में लिप्त थे, वे
दूसरों के आलस्य के प्रायश्चित
स्वरुप बिना किसी आलस्य के परिश्रम
ही नहीं करते, बल्कि अपने शरीर
को भी नहीं देखते । कर्म की अग्नि
में स्वयं को तपाकर वे इस बात
के लाभ का प्रयास करते कि अंतत:
अपनी तरफ़ से यथासाध्य मूल्य देकर
वे कुण्ठित नहीं हुए । जीवन की
बची हुई आयु में वे इसी मूल्यदान
के चरम स्थान पर आरुढ़ हो गए थे,
इसीलिए शचीन्द्रनाथ के प्रति
हमारी कृतज्ञता का अंत नहीं था । स्वामी विवेकानन्द की एक उक्ति है-'संसारी पुरुष जीना चाहता है परन्तु सन्यासी मृत्यु यज्ञ में लिप्त रहता है अर्थात् मृत्यु को सार्थक बनाने का व्रत ग्रहण करता है ।' देश में बहुयुगव्यापी जड़ता के भार ने प्राणशक्ति को अंधकार के समान दबाकर रखा है । कितने लोगों की वह्मि-शिखा जलने पर इस घने अंधकार का अवसान होगा, यह नहीं बता सकता परन्तु शचीन्द्रनाथ जैसे शास्र साधक, समर्पित प्राण वाले संयासी की तपस्या के द्वारा ही ऐसा अंधकार मिट सकता है इस विषय में सन्देह नहीं है । जीवन में जिन्होंने अत्यंत परिश्रम के द्वारा जातीय जीवन धारा को मुक्ति पथ पर चलाने का प्रयास किया था, उन्होंने मृत्यु के षोडशोपचार के प्रति प्राण की पूर्ण आहुति देकर उस यज्ञ को और भी समृद्ध कर दिया था । वास्तव में मृत्यु के प्रति भी उनमें कोई आकर्षण नहीं था । उन्मत मनुष्य को प्रेम के जल से सींचकर नम्र बनाना होगा, इसी उद्देश्य को लेकर वे आगे बढ़े थे । रास्ते के टेढ़ेपन में मृत्यु की छाया ने अचानक उनका आह्मवान किया । कर्म को न छोड़कर, जीवन के अंतिम श्वास तक वे आगे बढ़े । मृत्यु के पश्चात् भी जो प्रशांति की छाप उस जड़ शरीर के मुख पर विराजमान थी, उसकी तुलना नहीं की जा सकती । जीवन में बहुतों के मृत्यु का दर्शन लाभ हुआ है । उनके बीच महत् मृत्यु के दर्शन के सौभाग्य का लाभ भी मिला है । फिर भी शचीन्द्रनाथ के चेहरे पर निश्छल प्रशांति को देखकर मन में हुआ-"हे महामरण, तुम्हें प्रणाम !" |
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७सभी स्वत्व सुरक्षित । इस प्रकाशन का कोई भी अंश प्रकाशक की लिखित अनुमति के बिना पुनर्मुद्रित करना वर्जनीय है ।
प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित
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