ग्वालियर के कुम्हार एवं उनके बनाए मृणशिल्प

- मुश्ताक खान


भूमिका

ग्वालियर मृणशिल्पों की द्वष्टि से आज उतना समृद्व भले ही न दीखता हो किन्तु लगभग पच्चीस वर्ष पहले तक यहां अनेक सुन्दर खिलौने बनाये जाते थे। दीवाली दशहरे के समय यहां का जिवाजी चौक जिसे बाड़ा भी कहा जाता है, में खिलौनों की दुकाने बड़ी संखया में लगती थी। मिटटी के ठोस एवं जल रंगों से अलंकृत वे खिलौने अधिकांशतः बनना बन्द हो गए हैं। गूजरी, पनिहारिन, सिपाही, हाथी सवार,घोड़ा सवार, गोरस, गुल्लक आदि आज भी बिकतेे है। अब यहां मिटटी के स्थान पर कागज की लुगदी के खिलौने अधिक बनने लगे हैं जिन पर स्प्रेगन की सहायता से रंग ओर वार्निश किया जाता है।

यहां बनाये जाने वाले मृण शिल्पों में अनुष्ठानिक रुप से महत्वपूर्ण है, महालक्षमी का हाथी, हरदौल का धोड़ा, गाणगौर, विवाह के कलश, टेसू, गौने के समय वधूु को दी जाने वाली चित्रित मटकी आदि।

ग्वालियर, कुम्हार समुदाय की सामाजिक संरचना के अध्ययन की द्वष्टि से भी अत्यनत महत्वपूर्ण है, कयोंकि यहां हथेरिया एवं चकरेटिया दौनों ही प्रकार के कुम्हार पाये जाते है। हथरेटिया कुम्हार, चकरेटिया कुम्हारों की भांति बर्तन बनाने हेतु चाक का प्रयोग नहीं करते, वे हाथों से ही, एक कूंढे की सहायता से मिटटी को बर्तनों को आकार देते हैं। उनके बनाये बर्तनों की दीवारें मोटी होती हैं। ये लोग खिलौनें बनाने में दक्ष होते है।

प्रस्तुत विवरण १९८१से १९८६ के मध्य किये अध्ययन पर आधारित है।

मध्य प्रदेश के मानचित्र में ग्वालियर की स्थिति


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