अमीर ख़ुसरो
दहलवी
ख्वाजा साहब खुसरो की इस शानदार
रुबाई को सुनकर चौंक पड़े और जी
भर के खूब तारीफ़ की, फ़ौरन गले
से लगाया और कहा कि तुम्हारा साहित्यिक नाम तो 'सुल्तानी' होना चाहिए। यह नाम तुम्हारे
लिए बड़ा ही शुभ साबित होगा।
यही वजह है कि खुसरो के पहले काव्य संग्रह 'तोहफतुसिग्र' की
लगभग सी फ़ारसी गज़लों में यह साहित्यिक नाम हैं।
बचपन से ही अमीर खुसरो का मन पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा
शेरो-शायरी व काव्य रचना में अधिक
लगता था। वे हृदय से बड़े ही विनोदप्रिय, हसोड़,
रसिक, और अत्यंत महत्वकांक्षी थे। वे जीवन
में कुछ अलग हट कर करना चाहते थे और
वाक़ई ऐसा हुआ भी। खुसरो के श्याम
वर्ण रईस नाना इमादुल्मुल्क और पिता अमीर
सैफुद्दीन दोनों ही चिश्तिया सूफ़ी
सम्प्रदाय के महान सूफ़ी साधक एवं
संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया उर्फ़े
सुल्तानुल मशायख के भक्त अथवा मुरीद थे।
उनके समस्त परिवार ने औलिया साहब से धर्मदीक्षा
ली थी। उस समय खुसरो केवल सात वर्ष के थे। अमीर
सैफुद्दीन महमूद (खुसरो के पिता) अपने दोनों पुत्रों को
लेकर हज़रत निजामुद्दीन औलिया की
सेवा में उपस्थित हुए। उनका आशय दीक्षा दिलाने का था।
संत निजामुद्दीन की ख़ानक़ाह के द्वार पर वे पहुँचे। वहाँ अल्पायु अमीर खुसरो को पिता के इस महान
उद्देश्य का ज्ञान हुआ। खुसरो ने कुछ
सोचकर न चाहते हुए भी अपने पिता
से अनुरोध किया कि मुरीद 'इरादा करने'
वाले को कहते हैं और मेरा इरादा अभी
मुरीद होने का नहीं है। अत: अभी केवल आप ही
अकेले भीतर जाइए। मैं यही बाहर द्वार पर
बैठूँगा। अगर निजामुद्दीन चिश्ती वाक़ई कोई
सच्चे सूफ़ी हैं तो खुद बखुद मैं उनकी
मुरीद बन जाऊँगा। आप जाइए। जब खुसरो के पिता
भीतर गए तो खुसरो ने बैठे-बैठे दो पद
बनाए और अपने मन में विचार किया कि
यदि संत आध्यात्मिक बोध सम्पन्न होंगे तो
वे मेरे मन की बात जान लेंगे और अपने द्वारा निर्मित पदों के द्वारा
मेरे पास उत्तर भेजेंगे। तभी में भीतर जाकर
उनसे दीक्षा प्राप्त कर्रूँगा अन्यथा नहीं। खुसरो के
ये पद निम्न लिखित हैं -
'तु आँ शाहे कि बर ऐवाने कसरत, कबूतर गर नशीनद
बाज गरदद।
गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद, बयायद अंदर्रूँ
या बाज़ गरदद।।'
अर्थात: तू ऐसा शासक है कि यदि तेरे प्रसाद की चोटी पर कबूतर
भी बैठे तो तेरी असीम अनुकंपा एवं कृपा
से बाज़ बन ज़ाए।
खुसरो मन में यही सोच रहे थे कि
भीतर से संत का एक सेवक आया और खुसरो के
सामने यह पद पढ़ा -
'बयायद अंद
र्रूँ मरदे हकीकत, कि बामा यकनफस हमराज गरदद।
अगर अबलह बुअद आँ मरदे - नादाँ। अजाँ राहे कि आमद
बाज गरदद।।'
अर्थात - "हे सत्य के अन्वेषक, तुम भीतर आओ, ताकि कुछ
समय तक हमारे रहस्य-भागी बन सको।
यदि आगुन्तक अज्ञानी है तो जिस रास्ते
से आया है उसी रास्ते से लौट जाए।' खुसरो ने ज्यों ही यह पद
सुना, वे आत्मविभोर और आनंदित हो उठे और
फौरन भीतर जा कर संत के चरणों
में नतमस्तक हो गए। इसके पश्चात गुरु ने शिष्य को दीक्षा दी। यह घटना जाने
माने लेखक व इतिहासकार हसन सानी निज़ामी ने अपनी पुस्तक तजकि-दह-ए-खुसरवी
में पृष्ठ ९ पर सविस्तार दी है।
इस घटना के पश्चात अमीर खुसरो जब अपने घर पहुँचे तो
वे मस्त गज़ की भाँती झूम रहे थे। वे गहरे
भावावेग में डूबे थे। अपनी प्रिय माताजी के
समक्ष कुछ गुनगुना रहे थे। आज क़व्वाली और
शास्रीय व उप-शास्रीय संगीत में अमीर खुसरो द्वारा
रचित जो 'रंग' गाया जाता है वह इसी अवसर का
स्मरण स्वरुप है। हिन्दवी में लिखी यह प्रसिद्ध
रचना इस प्रकार है -
"आज रंग है ऐ
माँ रंग है री, मेरे महबूब के घर
रंग है री।
अरे अल्लाह तू है हर, मेरे महबूब के घर
रंग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया।
अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया,
फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया।
कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया,
मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया।
आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया।
वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।
अरे ऐ री सखी री, वो तो जहाँ देखो
मोरो (बर) संग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, आहे, आहे आहे
वा।
मुँह माँगे बर संग है री, वो तो मुँह
माँगे बर संग है री।
निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो, जग उजियारो जगत उजियारो।
वो तो मुँह माँगे बर संग है री।
मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया।
गंज शकर मोरे संग है री। मैं तो ऐसो
रंग और नहीं देखयो सखी री।
मैं तो ऐसी रंग। देस-बदेस में ढूढ़ फिरी हूँ, देस-बदेस
में।
आहे, आहे आहे वा, ऐ गोरा रंग मन
भायो निजामुद्दीन।
मुँह माँगे बर संग है री। सजन
मिलावरा इस आँगन मा।
सजन, सजन तन सजन मिलावरा। इस आँगन
में उस आँगन में।
अरे इस आँगन में वो तो, उस आँगन में।
अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री। आज
रंग है ए माँ रंग है री।
ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।
मैं तो तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।
मुँह माँगे बर संग है री। मैं तो ऐसो
रंग और नहीं देखी सखी री।
ऐ महबूबे इलाही मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी। देस विदेश
में ढूँढ़ फिरी हूँ।
आज रंग है ऐ माँ रंग है ही। मेरे
महबूब के घर रंग है री।
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एलताफ
हुसैन गायक
अफगानिस्तान के गायक जो
अमरीका में रहते हैं। इनके
पिता स्वयं एक बड़े गायक थे।
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सुदीप
बनर्जी
कलकत्ता के मशहूर सूफी गजल
गायक। ये अमीर खुसरो तथा अन्य
सूफियों की मशहूर
कव्वालियाँ गजल स्टाइल में
गाते हैं।
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अफगानिस्तान
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साब्दा
कान
मशहूर
अमरीकी शास्रीय संगीत गायक
जो दिल्ली के सूफी संत
इनायत खां को मानते हैं।
इनके संगीत गूरु हैं कलकत्ता
निवासी रामपुर सहसवान
घराने के मशहूर अली खान। यह
अमरीका में रहते हैं। इन्होंने
भारतीय शास्रीय संगीत
सीखने से पहले हिन्दी भाषा
सीखी। ये अमीर खुसरो की
मशहूर खड़ी बोली, बृज भाषा
और फारसी की बंदिशें गातें
हैं। ये आजकल अमरीका में रहते
हैं तथा देश विदेश में अपने
कार्यक्रम पेश करते हैं। |
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