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सन १२६४ ई. में जब खुसरो केवल सात वर्ष के थे तब इनके बहादुर पिता ८५ वर्ष की आयु में एक
लड़ाई में शहीद हो गए। तब इनकी
शिक्षा का भार इनके रईस नाना अमीर नवाब एमादुलमुल्क
रावत अर्ज़ ने अपने ऊपर ले लिया। इनकी
माँ न इन्हें नाज़ो नियामत से पाला।
वे स्वंय पटियाली में रहती थीं या फिर दिल्ली
में अमीर रईस पिता की शानदार बड़ी
हवेली में। नाना ने थोड़े ही दिनों
में अमीर खुसरो को ऐसी शिक्षा-दीक्षा दी कि
ये कई विधाओं में विभूषित, निपुण, दक्ष एवं पारांगत हो गए।
युद्ध कला की बारीकियाँ भी खुसरो ने पहले अपने पिता और फिर नाना
से सीखीं। इनके नाना भी युद्ध के मैदान
में अपना जलवा अनेकों बार प्रदर्शित कर चुके थे।
वे स्वंय बहुत ही साहसी, बहादुर और निडर थे और खुसरो को
भी वैसी ही शिक्षा उन्होंने दी। एमादुलमुल्क खुसरो
से अक्सर कहा करते थे कि डरपोक और कमज़ोर सिपाही किसी देशद्रोही
से कम नहीं। यही वह ज़माना अथवा दौर था
जब खुसरो अपने
समय के बहुत से बुद्धिजीवियों और
शासकों से सम्पर्क में आए। खुसरो ने
बिना किसी हिचक व संकोच के अनेक
सर्वोत्तम गुणों को आत्मसात किया। खुसरो
में लड़कपन से ही काव्य रचना की प्रवृत्ति थी। किशोरावस्था
में ही उन्होंने फ़ारसी के महान और जानेमाने कवियों का गहन
अध्ययन शुरु कर दिया था और उनमें से कुछ के
अनुकरण में काव्य रचने का प्रयास भी किया था। अभी वह २० वर्ष के
भी नहीं हुए थे कि उन्होंने अपना पहला दीवान
(काव्य संग्रह) तुहफतुसिग्र (छोटी उम्र का तोहफ़ा, ६७१ हिज्री
सन १२७१, १६-१९ वर्ष) (जवानी के आरंभ काल
में रचित यह दीवान फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि
अनवरी, खाकानी, सनाई आदि उस्तादों
से प्रभावित है। इसकी भूमिका में
बचपन की बातें, जवानी के हालात का ज़िक्र है तथा प्रत्येक कसीदे के आरम्भ में शेर है जो कसीदे के विषय को स्पष्ट करता है। इन तमाम
शेरों को जमा करने से एक कसीदा हो जाता है जो खुसरो की ईजाद है।
ये ज़यादातर सुल्तान गयासुद्दीन
बलबन और उसके बड़े बेटे सुल्तान नसीरुद्दीन की प्रशंसा
में लिखे गए हैं। एक तरक़ीब बंद में अपने नाना इमादुल
मुल्क का मर्सिया लिखा है जो सुल्तान गयासुद्दीन के करीबी सलाहकारों और हमराजों
में से एक थे। उनके पास कई नाज़ुक व गुप्त सियासी जानकारियाँ व
सूचनाएँ रहती थीं। इस ग्रंथ में खुसरो ने अपना तखल्लुस
या उपनाम सुल्तानी रखा है।) पूर्ण कर
लिया। बावजूद इसके कि अमीर खुसरो ने कुछ
फ़ारसी कवियों की शैली का अनुक्रम करने का प्रयत्न किया था
उनकी इन कविताओं में भी एक विशेष प्रकार की नवीनता और नूतनता थी। इस पर
उनकी अभिनव प्रतिभा की स्पष्ट छाप है। उस
समय खुसरो केवल एक होनहार कवि के
रुप में नहीं उभरे थे बल्कि उन्होंने संगीत सहित
उन तमाम विधाओं का ज्ञान भी भली भाँति प्राप्त कर
लिया था जो उस समय और दौर के किसी
भी सुसभ्य व्यक्ति के लिए अनिवार्य था। वह एक प्रखर,
संवेदनशील, हाज़िर जवाब और जीवन्त
व्यक्ति थे। इसी कारण बहुत जल्दी ही,
राजधानी में हर एक व्यक्ति के वे प्रेम पात्र
बन गए। हर व्यक्ति को उनकी रोचक और आनंदमय
संगति प्रिय थी। अमीर खुसरो ने अपनी पुस्तक तुहफतुस्सग्र की
भूमिका में स्वंय लिखा है कि - "ईश्वर की
असीम कृपा और अनुकंपा से मैं बारह वर्ष की छोटी अवस्था
में ही रुबाई कहने लगा जिसे सुनकर
बड़े-बड़े विद्वान तक आश्चर्य करते थे और
उनके आश्चर्य से मेरा उत्साह बढ़ता था।
मुझे और अधिक क्रियात्मक कविता लिखने की प्रेरणा
मिलती थी। उस समय तक मुझे कोई काव्य गुरु नहीं
मिला था जो मुझे कविता की उच्च शिक्षा देकर
मेरी लेखनी को बेचाल चलने से रोकता।
मैं प्राचीन और नवीन कवियों के काव्यों का गहराई व अति गम्भीरता
से मनन करके उन्हीं से शिक्षा ग्रहण करता रहा।" इससे यह
साफ़ स्पष्ट होता है कि कविता करने की प्रतिभा खुसरो
में जन्मजात थी तथा इसे उन्होंने स्वंय
सीखा, किसी गुरु से नहीं। आशु कविता करना
उनके लिए बाँए हाथ का खेल था।
अमीर खुसरो ने
स्वंय अपने गुरुओं के नामों का उल्लेख किया है जिनका उन्होंने
अनुसरण किया है अथवा उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष
रुप से इन पर प्रभाव पड़ा है। गज़ल के क्षेत्र
में सादी, मसनवी के क्षेत्र में निज़ामी,
सूफ़ी और नीति संबंधी काव्यक्षेत्र में खाकानी और
सनाई एवं कसीदे के क्षेत्र में कमाल इस्माइल
हैं। खुसरो की गज़लें तो
भाव और कला की दृष्टि से इतनी उत्तम हैं कि
बड़े-बड़े संगीतज्ञ उन्हें गा गा कर लोगों को आनंद विभोर करते थे।
उनमें अनेक स्थलों पर उदात्त प्रेम के दर्शन होते हैं। इन
सभी काव्यों में काव्य का मनोज्ञ रुप हमें दृष्टिगोचर होता है। खुसरो ने
स्वयं अपनी कविता की अनेक स्थलों पर प्रशंसा की है।
वे अपने दीवान गुर्रतुल कमाल (शुक्ल पक्ष की पहली कलाम की
रात) (६९३ हिज्री। सन १२९३ ई. तीसरा दीवान ३४-४३ वर्ष,
सबसे बड़ा दीवान, इसकी भूमिका काफ़ी
बड़ी एवं विस्तृत है। इसमें खुसरो ने अपने जीवन
संबंधी बहुत सी रोचक बातें दी हैं, कविता के गुण, अरबी
से फ़ारसी कविता की श्रेष्ठता, भारत की
फ़ारसी अन्य देशों के मुक़ाबले शुद्ध व श्रेष्ठ हैं, काव्य और छंदों के
भेद आदि अनेक बातों पर प्रकाश डाला गया है। इस दीवान
में व मसनवियाँ, बहुत सी रुबाइयाँ, कते, गज़लें,
मरसिये, नता और कसीदे हैं। मसनवियों
में मिफताहुल फ़तूह बहुत प्रसिद्ध है।
मरसियों में खुसरो के बेटे तथा
फ़ीरोज़ खिलजी के बड़े लड़के या
साहबज़ादे महमूद ख़ानखाना के मरसिए उल्लेखनीय हैं। एक
बड़ी नात (स्तुति काव्य : मुहम्मद साहब की स्तुति) है जो खाकानी
से प्रभावित ज़रुर है पर अपना अनोखा व नया अंदाज
लिए है। कसीदों में खुसरो का सबसे अधिक प्रसिद्ध क़सीदा
'दरियाए अबरार' (अच्छे लोगों की नदी) इसी
में है। इसमें हज़रत निजामुद्दीन औलिया की तारीफ़ है।
अन्य कसीदे जलालुद्दीन और अलाउद्दीन खिलजी
से संबंधित है। इसमें अरबी - और तुर्की शब्दों का प्रयोग है।)
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