अमीर ख़ुसरो
दहलवी
निजामुद्दीन औलिया ने अमीर खुसरो के हृदय
में भक्ति की लौ लगा दी थी। पिता के निधन ने उन्हें और भी अभिवृद्ध किया और जब
माँ का ममतामयी पल्ला छूटा तब तो इनका हृदय चूर-चूर हो गया। दुर्भाग्य
से भाई भी चल बसा। उस समय खुसरो
सौ-सौ आँसू रोए और एक ऐसी दर्द
भरी करुण कविता लिखी जिसे सुनकर
जी गले को आता है। इस घटना ने उन्हें और भी संवेदनशील बना दिया। इस प्रकार खुसरो प्रारम्भ से ही कविता-प्रियता, संगीत-मधुरता, गुरु और ईश्वर भक्ति, संत समागम एवं संवेदनशीलता आदि उन सभी गुणों से परिपूर्ण थे जो एक ज्ञानवान सूफ़ी में उपेक्षित है।
अमीर खुसरो
सूफ़ी सिद्धांत के अनुसार इश्के मजाज़ी (लौकिक प्रेम)
से इश्के हक़ीक़ी (आध्यात्मिक प्रेम) के
भी अनुसर्ता थे। अमीर खुसरो और जमुद्दीन हसन
सिज्जी की दोस्ती बहुत मशहूर थी। खुसरो ने
उनकी विलक्षण एवं अद्भुत काव्य प्रतिभा देखकर उन्हें अपना गुरु
भाई बना लिया था। दिल्ली से अमीर खुसरो
युवराज मुहम्मद के साथ मुलतान चले गए जहाँ यह पवित्र प्रेम इतना प्रगाढ़ हो गया कि
लोग दुराचरण की चर्चा करने लगे और
बात युवराज तक पहुँची। उसने हसन सिज्जी को अपने
सामने कोड़े लगवाए और अमीर खुसरो के पास जाने
से रोका पर वह न माना। तब
बादशाह ने दोनों को बुलाया
और इस पर सवाल किया तब खुसरो ने कहा कि हम प्राणों
में एक हैं यद्यपि शरीर दो हैं। अपनी बात को प्रमाणित करने के
लिए खुसरो ने अपनी बाँह खोलकर दिखाई, जिस पर कोड़े के ताज़ा निशान
साफ़ नज़र आ रहे थे। यह देखकर सब अवाक व स्तब्ध रह गए।
बादशाह ने आश्चर्य से पूछा कि खुसरो तुम्हें कोड़े किसने
मारे। उसे सजाए मौत दी जाएगी। इस पर खुसरो ने
बादशाह को समझाया कि ये वही कोड़े के
निशान हैं जो
बादशाह सलामत के कहने पर हसन सिज्जी को
मारे गए थे। आध्यात्मिक लगाव होने के कारण
ये निशान खुसरो के शरीर पर भी आ गए।
बादशाह को अपनी गलती का अहसास हुआ तथा
भारी शर्किंमदगी हुई। उन्होंने खुसरो
से फ़ौरन माफी माँगी तथा उन्हें व हसन को मरहम के
लिए तुरन्त राज वैद्य के पास भिजवाया। प्रसिद्ध इतिहासकार
फ़रिश्ता ने लिखा है कि उस समय अमीर खुसरो ने अपने
भीतर के भाव व्यक्त करने के लिए यह पंक्तियाँ
लिखीं -
"इश्क आमदो शुद चु खूनम अन्दर रगो पूस्त।
ता कर्द मरा तुहियो पुरकर्द जदूस्त
जजाइए बजूदम हमगी दोस्त गिरिफ्त।
नामीस्त मरा वरमन बाकी हमाऊस्त।"
अर्थात 'प्रेम
मेरी शिराओं में रक्त की भाँति प्रवाहित हुआ। इसने
मुझे अन्य तत्वों से रिक्त कर मेरे मित्र
से भर दिया। मेरे सत्ता के समस्त कण
मेरे प्रेमपात्र से संबंध रखते हैं,
मेरे शरीर में तो नाम मात्र ही मेरा है।' यह प्रेम आध्यात्मिक प्रेम था। खुसरो के
साथ हसन मिज्जी भी एक नामी गिरमी और
सुप्रसिद्ध कवि हुए जो राजदरबारों
में रहते हुए भी सूफी जीवन बिताते थे। अपने पीर के पद् चिह्मों पर चलते हुए पहले दूसरों को खिला कर, फिर
स्वंय हल्का-फुल्का भोजन करते थे। हसन
भी अमीर खुसरो की तरह निजामुद्दीन औलिया के प्रिय शिष्यों में थे। खुसरो अपेक्षाकृत एक धार्मिक एवं
सूफ़ी विचारों वाले व्यक्ति थे। उन्हीं के द्वारा
लिखित एक कसीदे से यह विदित होता है कि
वे मुख्य-मुख्य धार्मिक नियमों का पालन करते थे, नमाज़ पढ़ते थे तथा उपवास
रखते थे। वे मदिरा अथवा शराब नहीं पीते थे और कम
से कम उसके आदि न न थे। वे दिल्ली में नियमित
रुप से औलिया साहब की ख़ानक़ाह में जाते थे, फिर भी वे नीरस
संत नहीं थे। वे गाते थे, हँसते थे, नर्तिकयों के नृत्य एवं गायन को
भी देखते थे और सुनते थे तथा शाहों और शहज़ादों की
शराब महफ़िलों में एक दरबारी कवि की हैसियत
से भाग ज़रुर लेते थे मगर तटस्थ भाव
से।
आइए अब हम पुन: अमीर खुसरो के जीवन के घटना क्रम
से वाबस्त हों। दिल्ली की शाही फ़ौज गुजरात गई। गुजरात फ़तेह कर के दुनिया
भर की दौलत, हीर, जवाहारात समेट
लाई। फिर वहाँ से फ़ौज का अगला पड़ाव हुआ
रणथम्भौर। छ: महीने क़िले का महासरा रहा।
राजा और उसके कुटुम्ब ने जौहर करा के, तलवारें
सूत के शेरों की तरह ज़ोरदार मुक़ाबला किया।
मारे गए। मालवा में मांडु का क़िला फ़तेह
हुआ। फिर चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई हुई। छ: महीने की इस
फ़ौजी मुहिम का खात्मा भी दिल्ली की फ़तेह
पर हुआ। खुसरो इस जंग में
बादशाह के साथ थे। सुल्तान ने
किला फतेह कर के
राजा के सुपुर्द कर दिया और शाहज़ादा ख़िज्र खाँ को वहाँ इंतज़ाम के
लिए वहाँ बिठा दिया। देवगिरी और
मराठवाण में भी यही हुआ। सामना और फिर उसके
बाद तिलंगाना। दिल्ली से वारंगल तक घने जंगलों और दरियाओं को पार करके महीनों
बाद फ़ौज, तिलंगाना से हनुमान कुंड पहुँची। किला-ए-वरंगल पर
सख़त लड़ाई हुई। दोनों तरफ़ के पैदल और सवार,
बड़ी तदाद में कीड़े-मकोड़ों की भाँती
मारे गए। आख़िरकार आग और ख़ून का दरिया पार हुआ।
मलिक काफ़ेूर को तमिलनाडु में एक
बड़े लश्कर के साथ युद्ध के लिए भेज दिया गया। यहाँ तक
सारे इलाक़े को वह रौंदता हुआ,
शुमाली हिन्द का ये लश्कर द्वार समुद्र जा पहुँचा। अमीर खुसरो ने एक इतिहासकार के नाते ख़ूब छान
बीन कर के लिखा है कि देशी राजाओं की तरफ़
से जो फ़ौज तीरंदाज़ी में आगे निकलती थी और तोपख़ाना
सँभालती थी, उस फ़ौज में मुक़ामी और बाहर के
साँवले मुसलमान लश्करी भी होते थे।
वो भी अपने-अपने बादशाह की तरफ़ से मर
मिटते थे और अगर राजा को हार मान कर हथियार डालने पर राज़ी देखते तो वे राजा के ख़िलाफ़ हो जाते थे। वास्तव में वे राजा के विरुद्ध नहीं होते थे बल्कि उन्हें सर झुका कर हार मानने से बहतर, निडरता के साथ लड़ते लड़ते मरना या शहीद होना अधिक पसंद था। अलाउद्दीन की फ़ौज में और सिपहसालारों में भी हिन्दू-मुसलमान साथ जाते
थे और साथ-साथ ही मरते थे। उनमें आपस में धर्म के नाम पर कोई भेदभाव नहीं हुआ करता था। हमलावरों और बचाव करने वालों के दरमियान ज़ोरदार लड़ाई होती थी। हार-जीत के फ़ैसले में भी हिन्दू-मुसलमान शरीक रहते थे। ज़र और ज़मीन की जंग थी। दिल्ली की सल्तनत और इराकाई खुद मुख्तियारी की जंग थी। अरब और अफ्रु़ीकी
सिपाही भी राजाओं की फ़ौज में जगह-जगह मिलते हैं। अलग-अलग पेशों, दस्तकारियों, व मेहनत के कामों में, हर जगह देशी और विदेशी मुसलमान नज़र आते हैं जिनकी वफ़ादारी अपने इलाक़े वालों से होती थी। आम जनता से, आवाम से, इस सूफ़ी शायर अमीर खुसरो की यही मोहब्बत थी कि आम लोगों की देशी जुबानों में इसने मज़े-मज़े की रचनाएँ, (दोहे, गीत, गज़ल, क़व्वाली, फुटकल छंद व पद, पहेलियाँ, आदि) लिखीं। अमीर खुसरो ने अपने दौर में राजभाषा अथवा दरबारी भाषा फ़ारसी होते हुए भी आम आदमी की देशी जुबान हिन्दवी में लिखा। अब प्रश्न यह उठता है कि यह हिन्दवी भाषा क्या है? स्वंय अमीर खुसरो ने हिन्दवी को दो अर्थों में लिया है। एक तरफ़ हिन्दवी से उनका मतलब है खड़ी बोली हिन्दी तो दूसरी ओर वे अपने समय में प्रचलित कई भाषाओं को भी हिन्दवी कहते हैं।
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