अमीर ख़ुसरो
दहलवी
अमीर खुसरो बहुभाषा विद् थे।
वे फ़ारसी, तुर्की और अरबी भाषा के प्रकांड पंडित थे। खड़ी
बोली उन्हें विरासत में मिली थी। संस्कृत पर भी उन्हें पूरा अधिकार था।
बंगाल, पंजाब, अवध, मुलतान, देवगिरी आदि स्थानों पर रहकर उन्होंने
भारत की अनेक भाषाओं की जानकारी प्राप्त की थी। अमीर खुसरो
भारत के पहले ऐसे कवि हैं जिन्होंने
समस्त भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण अपनी
मसनवी नूह सिपहर में किया है जिसका ऐतिहासिक महत्व है।
सर जार्ज ग्रियर्सन के लगभग छ: सौ वर्ष पूर्व भाषाओं की जो स्थिति खुसरो द्वारा
बताई गई थी वह आज भी विद्यमान है। खुसरो ने
स्वंय अपने ग्रंथ में लिखा है कि उन्होंने
स्वंय कई भाषाओं के संबंध में जानकारी प्राप्त की है और
उनमें से कई वे बोलते व समझते हैं।
फ़ारसी भाषा में इसी विषय पर उन्होंने
लिखा है कि -
"दानम व दरयाफता व गुफ्ता हम, जुस्तों-रोशन
शुदा जाँ बेशोकम।" अर्थात कई भाषाओं
में मैनें स्वंय बहुत कुछ परिचय प्राप्त कर
लिया है। उन्हें मैं बोलता व जानता हूँ।
मैनें उनकी खोज की है और मैं इनको कमोबेश जानता हूँ। अमीर खुसरो ने अपनी प्रसिद्ध
मसनवी 'नूह सिपेहर' (नौ आकाश) के एक
अध्याय (सर्ग ३ अध्याय ५) में भारतीय भाषाओं का
सर्वेक्षण प्रस्तुत किया है। वह है -
हिन्दी हमी कायदय दारद
बसुखन, हिन्दवी बूद अस्त दर अय्यामे कुहन।
'सिंदी व लाहौरी व कश्मीर व कबर
धुर समुन्दरी व तिलंगी व गु
माअबरी व गौरी व बंगाल व अवद
देहली व पैरामन्श अन्दर हमह अद।
ई हमह हिन्दवीस्त कि जे अय्यामे कुहन।
आम्मह बकारस्त बहर गूनह सुखन।'
अर्थात भारत
में भाषा संबंधी व्यवस्थित विधि नियम है। हिन्दवी का अस्तित्व प्राचीनकाल
से है। और आज भी है। सिन्धी, लाहौरी (पंजाबी), कश्मीरी, कबर
(कन्नड़), धूर समुंदरी (तमिल), तिलंगी
(तेलुगु), गु (गुजराती), माअबरी (मलयालम), गौरी
(गौड़ी, उड़िया, पश्चिमी बंगाल), बंगाल (बंगला), अवद (अवधी-पूर्वी हिन्दी) तथा देहली (दिल्ली) तथा उसके आस-पास की भाषा। देहली तथा उसके आस-पास की
सीमाओं के अन्दर बोली जाने वाली
भाषाऐं (हिन्दी) 'हिन्दवी है जो प्राचीन काल
से ही हर प्रकार की आवश्यकता के लिए
साधारण जन के काम आती रही है।" हिन्दी शब्द का प्रयोग खुसरो ने
लगभग बारह बार अपने प्रसिद्ध
फारसी - हिन्दवी शब्द कोश खालिक
बारी में किया है।
अपनी मसनवी ख़िज्र खाँ देवल रानी में खुसरो हिन्दवी को
फ़ारसी से कम नहीं मानते। वे कहते
है-
'न लफ्जे हिन्दवीस्त अज फ़ारसी कम।'
अर्थात हिन्दी भाषा के शब्द
फ़ारसी भाषा के शब्दों से कमतर नहीं हैं।
इससे जार्ज ग्रियर्सन की इस भ्राँति का निराकरण हो जात है कि यहाँ हिन्दी
से वास्तव में खुसरो का तात्पर्य संस्कृत
से है न कि उस भाषा से जिसे हम आज इस नाम
से अभिहित करते हैं। इस बात का साफ़
अर्थ है कि हिन्दूई भाषा प्राचीन काल
से है और आज भी है। हिंदूई का तात्पर्य
संस्कृत नहीं है जैसा कि ग्रियसन का कथन है।
संस्कृत के विषय में खुसरो का कथन है -
'संस्कृत नाम ज़ि अहदे कुहनश, आम्मह न दारद खबर
अज़ कुब मकुनश।'
अर्थात्
प्राचीन काल से इस भाषा का नाम
संस्कृत है। जन-साधारण के साथ
उसके व्याकरण की बारीकियों की
वार्ता नहीं है। संस्कृत के संबंध
में ही वे आगे कहते हैं -
""गरवे
कि शीरीनीस्त दरी व शकरीने,
जौके इबारत कम अजानीस्त दरीने''
अर्थात यद्यपि दरी भाषा
मीठी और शक्कर के समान है किन्तु
संस्कृत भाषा में उससे साहित्य सृजनशीलता किसी
भी प्रकार कम नहीं है।
खुसरो के उपर्युक्त शब्द कई कारणों
से महत्वपूर्ण हैं। एक तो इस उद्धरण
से यह सिद्ध होता है कि खुसरो का 'क्लासिकी' के अतिरिक्त
भारतीय भाषा ज्ञान कितना गहरा था और भाषा परिपेक्ष्य कितना
व्यापक था। दूसरे यह कि देहली के आसपास की खड़ी
बोली के भाषागत रुप पर, उसकी व्यंजना
शक्ति पर उनकी आस्था अनुभवजन्य थी। जो भाषा (उस
समय बोली) हर प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति के
लिए जब साधारण द्वारा प्रयुक्त होती रही है उसका
स्वाभाविक अधिकार खुसरो ने ही प्रथम
स्वीकार कर लिया था और उसको बड़े अभिमान के
साथ अपने काव्य में स्थान दिया था - वह था खड़ी
बोली का लोक प्रचलित सहज रुप और अंतिम
कारण,
उनकी कालजयी तत्व दर्शिता व दूरदृष्टि जो कई
शताब्दियों की धूमिल विचार मूढ़ता को पार कर गई है। स्पष्ट है कि
मार्गदर्शन का श्रेय खुसरो को प्राप्य है।
अमीर खुसरो के हिन्दवी काव्य की चर्चा करते
वक्त हिन्दवी से हमारा तात्पर्य मानक हिन्दी
या आज की परिनिष्ठित उर्दू से नहीं बल्कि उससे आश्य वह प्राचीन भाषा है जो तेरहवीं
सदी ईसवी में प्राचीन ब्रज भाषा अथवा खड़ी
बोली का वह रुप थी जो कालांतर
में धीरे-धीरे मानक रुप ग्रहण कर गई। हिन्दी,
उर्दू, या हिन्दुस्तानी से जो वर्तमान भाषिक
अर्थ हमने संबंध कर दिए हैं उनका तेरहवीं सदी में विद्यमान होने का प्रश्न नहीं उठता। इसके अतिरिक्त खड़ी बोली, ब्रज भाषा या हरियानी बोलियों के नाम भी ऐसे हैं जो कालांतर में दिए गए या प्रचलित हुए। खुसरो की हिन्दवी रचनाओं में जो भाषा मिलती है वह आज की हिन्दी से मेल खाती है। सामान्यत: खुसरो का हिन्दवी से तात्पर्य तेरहवीं सदी की उस प्रांरभिक भाषा से है जो वर्तमान हिन्दी-उर्दू का प्राचीन रुप थी
अर्थात् जो लश्करी भाषा उस काल में बन रही थी, जो व्यापार करने के उद्देश्य से व्यापारियों व नागरिकों द्वारा बॉर्डर पर बोली जाती थी, जो भाषा अभी कच्ची
थी, अनधड़ थी, अल्लड़ थी धीरे-धीरे पनप रही थी, बन रही थी, आकार ले रही थी, बोली से शनै: शनै: भाषा में परिवर्तित हो रही थी, और पूर्णत: कोई नाम या एक भाषा का दर्जा उसे खुसरो के काल में नहीं मिला था। अत: वह केवल आम लोगों की बोलचाल की भाषा थी जिसका उस दौरा में कोई साहित्यिक महत्व नहीं थी। अपने ग्रंथ गुर्रतुल कमाल के प्राक्कथन में हिन्दवी का नाम बार बार इसी दिल्ली व आस-पास की मिली-जुली भाषा के लिए खुसरो द्वारा प्रयुक्त किया गया है।
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