अमीर ख़ुसरो
दहलवी
जिन भाषाओं और बोलियों का उल्लेख खुसरो ने नुह सिपहर
में किया है उनको नैसर्गिक विवर्तन के कारण ही वह स्थान अब नहीं
मिला जो उस काल में मिला होगा परन्तु यह इस
समय हमारे अध्ययन का विषय नहीं है।
लक्षणीय तो यह है कि भारत कि विविध
बोलियों का ज्ञान खुसरो को किस
सीमा तक था, और इतनी बोलियों
में उन्होंने खड़ी बोली को ही जन सम्पर्क भाषा के
रुप में क्यों चुन लिया। उपर्युक्त भाषा-भाषी क्षेत्रों को एक
सूत्र में पिरोने के लिए एक राष्ट्रभाषा की कल्पना करने के
बाद खुसरो के समक्ष यह समस्या आई कि खड़ी
बोली हिन्दी (जिसको इन्होंने हिंदवी
भी कहा है) का भाषाभिजात्य सिद्ध कर दें - ऐसा
अनुमान करना उचित न होगा। जिस युग
में, फ़ारसी का साहित्य क्षेत्र में बोलबाला था उस
युग में खड़ी बोली हिन्दी को संस्कृत
या फ़ारसी जैसी क्लासिकी भाषाओं
के समकक्ष या पंक्तिय सिद्ध करना
निस्संदेह कठिन काम था परन्तु
विचारशील ख़ुसरो में भाषा संबंधी पूर्वाग्रह नाम भर का
भी न था। यही कारण है कि उन्होंने अनेक
रचनाओं में फ़ारसी के साथ-साथ हिन्दी का प्रयोग किया। यह
फ़ारसी के मूर्धन्य कवियों तथा समालोचकों के
लिए एक चुनौती सी थी क्योंकि वज़न बिल्कुल ठीक था, हिन्दी शब्दों के कारण कहीं छन्ददोष नहीं आ पाया,
रस की अनुभूति निर्बाध थी, हिन्दी शब्दों ने किसी प्रकार का
रस दोष उत्पन्न नहीं किया। सबसे बड़ी
बात यह थी कि पाठक को लगता था कि कविता उसके प्रतिदिन के जीवन के अति निकट आ गई, उसकी
संवेदनाओं की तन्त्रियों को छेड़ गई। खुसरो का पाठक
समाज भी निर्विशेष हो गया था। एक
अनूठा उदाहरण यह प्रसिद्ध गज़ल है जो अमीर खुसरो द्वारा
रचित है -
"जिहाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराय नैना
बनाय बतियाँ।
किताबे हिज्राँ, न दारम ऐ जाँ, न लेहु काहे
लगाय छतियाँ।।
शबाने हिज्राँ दराज चूँ जुल्फ बरोजे
वसलत चूँ उम्र कोताह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी
रतियाँ।
यकायक अज़दिल दू चश्मे जादू बसद फरेबम
बवुर्द तस्कीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी
बतियाँ
चूँ शम्आ सोजाँ, चूँ जर्रा हैराँ,
हमेशा गिरियाँ ब इश्के आँ माह।
न नींद नैंना, न अंग चैना, न आप आये न भेजे पतियाँ।।
बहक्के रोजे विसाले दिलबर के दाद
मारा फरेब खुसरो।
सपीत मन के दराये राखूँ जो जाय पाऊँ पिया की खतियाँ।।
या (दुराय राखो समेत साजन जो करने पाऊँ दो
बोल-बतियाँ।)
अर्थात मुझ गरीब मिस्कीन की हालत
से यूँ बेख़बर न बनो। आँखें मिलाते हो, आँखें चुराते हो और
बातें बनाते हो। जुदाई की रातें तुम्हारी कारी जुल्फ़ों की तरह
लंबी व घनी है। और मिलने के दिन उम्र की
तरह छोटे। शमा की मिसाल मैं सुलग रहा हूँ, जल रहा हूँ और ज़र्रे की तरह हैरान हूँ। उस चाँद की
लगन में आ मेरी ये हालत हो गई कि न आँखों को नींद है न
बदन को चैन, न आप आते हैं न ख़त लिखते
हैं।''
स्पष्ट है कि यह एक प्रयोग है परन्तु प्रयोग कालीन जड़ता
से मुक्त। ऊपर लिखित हिन्दवी-फारसी मिश्रित गज़ल
में हिन्दी पंक्तियों या अर्धाश रस विचार
से फ़ारसी पंक्तियों या अर्धाशों में न्यून नहीं ठहरते। खुसरो ने इस प्रकार सिद्ध किया कि राष्ट्रभाषा का आसन अलंकृत करने
वाली हिन्दी में वह मिठास भी है जो
फ़ारसी गज़लों में होती है। इसी तरह अरबी और हिन्दी के
मेल की गज़लें भी खुसरो ने लिखीं। खुसरो ने हिन्दी शब्दों का
भी फ़ारसी में प्रयोग किया और बड़ी निपुणता
से किया। हिन्दी में राम राम एक विलक्षण पदोच्चय है जिसमें
लक्षणा के अतिरिक्त बहुमुखी व्यंजना
भी है। (तु. मुह. राम राम कहना) खुसरो ने इस पदोच्चय को
फ़ारसी में किस खूबी से प्रचलित किया - 'रामह
मन हर्गिज़ न शुद्ध हरचन्द गुफ्तम राम
राम।' (तुगलक नामा)
चन्दन, काठघर, पटरा, बसीठ, दही, गरीब, आदि हिन्दी शब्दों का प्रयोग उन्होंने डटकर अपने
फ़ारसी ग्रंथों में किया और इससे
उनकी फ़ारसी भाषा में किसी प्रकार की न्यूनता
या हीनता नहीं आई। फ़ारसी और हिन्दी दोनों भाषाओं का प्रयोग करते हुए उन्होंने दो
सखुने लिखे, जैसे-कूबते रुहचीस्त: प्यारी को
कब देखिए? उत्तर: सदा या माशूक /
रा चे
मी वायद कंर्द: हिन्दुओं का रखवाला कौन?
उत्तर: राम। इसमें बौद्धिक व्यायाम के
साथ साथ मनोविनोद तो है ही, क्या यह
संकेत भी नहीं है कि हिन्दी बौद्धिक शब्द विन्यास
में फ़ारसी से किसी अंश में कम नहीं?
कुछ अंश तक तो सखुनों में और पूर्णतया
मुकरियों और पहेलियों में खड़ी
बोली का रुप और अधिक निखरा है। जैसे
'एक नार ने अचरज किया। सांप मारि पिंजरे
में दिया।" में ने का प्रयोग (जो पूर्वी
बोलियों में नहीं पाया जाता हैं।)
इस बात को पुष्ट करता है। कई
बोलियाँ हैं जिनमें ने का प्रयोग
उसी प्रकार किया हुआ मिलता है
जिस प्रकार आज किया जाता हैं। अब तक हमें जितनी जानकारी प्राप्त हुई है उसके आधार पर हम कह
सकते हैं कि 'ने' का प्रयोग खुसरो
से पहले नहीं मिलता। कर्तृ कारक के
सप्रत्यय होने पर क्रिया का कर्म के
लिंग वचनानुसार विकार होना,
जो रुप आजकल पाया जाता है, वैसा
ही रुप आज से साढे सात सौ वर्ष पहले खुसरो की भाषा में उपलब्ध है।
लोकप्रचलित भाषा के क्लासिकी साहित्यिक भाषा के
समान मान्यता देना खुसरो के कालातिक्रान्त साहस का ठोस प्रमाण है,
उनकी निष्ठा का उज्ज्वल प्रतीक है। अफजलुल
फवायद की
भाँति भावी राष्ट्रभाषा का प्रत्यक्ष रुप
से कोई व्याकरण खुसरो ने भले ही न
लिखा हो, परोक्ष रुप में इसका ढाँचा
बनाकर आगे आने वाली पीढियों के
लिए उसे अपने साहित्य में सुरक्षित कर दिया।
अमीर खुसरो ने हिन्दवी में लोक जीवन तथा धार्मिक आडम्बरों का विरोध करते हुए
सूफी विचारधारा से ओत-प्रोत तरह तरह के
बसंत, सावन, बरखा, पनघट, हिंडोला
(झूला), होली, चक्की, शादी-ब्याह, विदाई,
साजन, बाबुल, मंढा, ईश अराधना आदि गीत
लिखे तथा दोहे, गजल, कव्वाली व तरह-तरह की पहेलियाँ
रची। खुसरो बचपन से ही चंचल, महत्वकांक्षी, खुशमिजाज, हाजिर जवाब, चतुर और हंसमुख तथा विनोदी
स्वभाव के थे। अपनी फारसी रचनाओं
में अमीर खुसरो ने बच्चों की तुलना
बाग में खिलते और महकते फूलों
से की है। कई जगह उन्होंने अपनी लड़की और
लड़के के माध्यम से नसीहत दी है।
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