अमीर ख़ुसरो
दहलवी
उनकी हिन्दवी रचनाओं में इतना तो स्वीकार्य ही है कि भावों की अपेक्षा बौद्धिक चमत्कार कहीं अधिक हैं और वह कवि की अप्रतिम सूझ का साक्षी है। एक अन्य दृष्टि से भी अमीर खुसरो की ये रचनाऐं बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। वह यह कि इसके पूर्व की हिन्दी रचनाऐं या तो कवियों के आश्रयदाताओं की विरुदावलियाँ थी या धर्म संबंधी। यद्यपि अमीर खुसरो के पीछे गोरखनाथ की परम्परानुगामिनी नाथपंथियों की पदों की भिन्न धारा चली आ रही थी किन्तु खुसरो का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनकी रचनाओं के द्वारा साहित्य जन जीवन के समीप ही नहीं आ गया अपितु उसमें रच बस गया, या जन जीवन की पसंद बन गया, उसकी आदत
बन गया। इससे जनता को साहित्य
सुलभ आनंद की प्राप्ति भी हुई। खुसरो के फुटकल छंद, पदों व गीतों में भावोन्मेष के साथ-साथ शांत एवं श्रृंगार रसों का समावेश विशेष रुप से हुआ है परन्तु उसमें पर्याप्त काव्यतत्व एवं परिष्कार नहीं क्योंकि हिन्दवी (आज की हिन्दी व उर्दू) उस समय कच्ची थी, अनधड़ थी, बन रही थी, हाँ इतना अवश्य है कि उनमें अपने पूर्ववर्ती नाथों एवं सिद्धों की परम्परा से पर्याप्त नवीनता मिलती है। सिद्धों ने जहाँ केवल दार्शनिक सिद्धांतो को पदों में ढाला, वहाँ पर खुसरो ने अंतरिक भावों का प्रदर्शन अपने गीतों में किया है। अमीर खुसरो चिश्ती सम्प्रदाय के प्रसिद्ध पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया (जीवन काल सन् - १२३८ - १३२५ ई.) के ऐसे मुरीद थे जो बेशक अपने गुरु के गद्दीनशीन न हुए पर गुरु
के बहुत प्रिय व करीब थे। उनके यतकिंचित प्राप्त दोहों एवं पदों में हम सूफी साहित्य एवं साधना के मुक्त रुप का बीज निहित पाते हैं। वह रुढियों के अन्धानुयायी नहीं थे। उनमें मौलिक प्रतिभा थी। फारसी की प्रेम पद्धति के विरुद्ध भारतीय प्रेम परम्परा
अपनाते हुए खुसरो ने लिखा है -
""इश्क अव्वल दर दले माशूक पैद मीशबद, ता न सोज़द शमा के परवाना शैदा
मोशवद।'' अर्थात - इसी को हिन्दवी में खुसरो इस प्रकार लिखते हैं -
'पहले तिय के हीय में, डमगत प्रेम उमंग।
आगे बाती बरति है, पीछे जरत पतंग।।
खुसरो सूफी कवि थे और कहते हैं फारसी में उन्होंने
तसव्वुुफ की बहुत ऊँची कविताऐं लिखी हैं। यह तो रहा उनका एक रुप। खुसरो का दूसरा रुप हिन्दवी में खुला। वहाँ वे
रहस्यवादी कवि भी हो कर सामान्य जन जीवन के सरस कवि का रुप
भी है और यह कवि मनुष्य को परलोक का संदेश तो देता ही है पर उसका अधिकतर जोर यहीं के प्रेम, मस्ती और चुलबुलेपन का आनंद देता है। खुसरो पारंगत सूफी कवि तो हैं ही साथ में वह श्रृंगार के मस्त
आनंद कवि का ही रुप है। सूफीवाद मधुरा भक्ति का ही अरबी संस्करण है। यह दूसरी बात है कि वह यौगिक क्रियाओं से भी कुछ दूर तक प्रभावित है परन्तु उसके मूल में भक्ति ही है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। हिन्दी के मध्यकालीन सूफी कवियों से ही नहीं बल्कि भक्ति काल के पूर्व ही अमीर खुसरो ने कुछ ऐसे हिन्दवी पद लिखे थे जनमें दाम्पत्य भाव की अभिव्यक्ति थी और दोनों के पारस्परिक मिलन का वर्णन भी उसी के अनुकूल शब्दों द्वारा किया था। एक दोहरा में वे कहते हैं -
'खुसरो रैन सोहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भये एक रंग।।
खुसरो ने अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के नाम कहते है निम्नलिखित पद की
रचना की थी जिसमें विवाह का रुपक
बाँधकर उन्होंने आत्मा और परमात्मा के
संबंध को पति और पत्नी के प्रेमभाव द्वारा प्रदर्शित किया था -
"परबत बास मँगवा मोरे बाबुल, नीके
मँडवा छाव रे।
डोलिया फँदाय पिया लै चलि हैं अब
संग नहिं कोई आव रे।
गुड़िया खेलन माँ के घर गई, नहि खेलन को दाँव
रे।
गुड़िया खिलौना ताक हि में रह गए, नहीं खेलन को दाँव
रे।
निजामुद्दीन औलिया बदियाँ पकरि चले, धरिहौं
वाके पाव रे।
सोना दीन्हा रुपा दीन्हा बाबुल दिल दरियाव
रे।
हाथी दीन्हा घोड़ा दीन्हा बहुत बहुत
मन चाव रे।
टिप्पणी - बाबुल (हे
मेरे पिता) मँडवा (विवाह की विधि
सम्पन्न करने के लिए निर्माण किया जाने
वाला मंडप), दिल दरियाव-उजाक हृदय। डोलिया
फँदाय - विवाहोपरांत डोली में
बिठाकर। दाव-दाँव, अनुकूल अवसर,
मौका, गुड़िया ..... रह गई। खेलने की
सामग्री अर्थात गुड़िया आदि वस्तुऐं नैहर
में ही रखी रह गयी। (आश्य - मृत्यु उपरांत अपनी
सारी वस्तुऐं जहाँ की तहाँ छोड़ कर चला जाना पड़ता है और जीवन काल के पूर्व परिचित कार्यों के करने का फिर अवसर नहीं
मिला करता।)
अमीर खुसरो का एक अन्य पद में भी इन्हीं
भावों का स्थान मिला है -
"बहुत रही बाबुल घर दुलहन, चल तेरे पी ने
बुलाई।
बहुत खेल खेली सखियन सों, अंत करी
लरकाई।
न्हाय धोय के बस्तर पहिरे, सब ही सिंगार
बनाई।
विदा करन को कुटुम्ब सब आए, सिगरे
लोग लुगाई।
चार कहारन डोली उठाई संग पुरोहित नाई
चले ही बनैगी होत कहा है, नैनन नीर बहाई।
अंत विदा है चलिहै दुलहिन, काहू की कछु ना
बसाई।
मौज खुसी सब देखत रह गए, मात पिता औ भाई।
मोरि कौन संग लगिन धराई धन
धन तेरि है खुदाई।
बिन माँगे मेरी मंगनी जो, दीन्हीं पर घर की जो ठहराई।
अंगुरि पकरि मोरा पहुँचा भी पकरे, कँगना अंगूठी पहिराई।
नौशा के संग मोहि कर दीन्हीं, लाज संकोच मिटाई।
सोना भी दीन्हा रुपा भी दीन्हा बाबुल दिल दरियाई।
गहेल गहेली डोलति आँगन मा
पकर अचानक बैठाई।
बैठत महीन कपरे पहनाये, केसर तिलक लगाई।
खुसरो चले ससुरारी सजनी संग, नहीं कोई आई।
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अमीर
खुसरो के हिन्दवी कलाम की
एकमात्र पांडुलिपि
जर्मनी (बर्लिन) के संग्रहालय
स्टाट्स बिब्लिओथिक में रखी
है। इसकी लिपि फारसी है।
इसे भारत में अंग्रेजों के समय
एक जर्मन शोधकर्ता डॉ. एलवस
र्जिंश्प्रगर जर्मनी ले गया था। प्रसिद्ध
शोधकर्ता डॉ. गोपीचंद नारंग
ने इसकी खोज कर इस पर अहम
शोध कार्य किया है।
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अमीर
खुसरो के हिन्दवी कलाम की
एकमात्र पांडुलिपि
जर्मनी (बर्लिन) के संग्रहालय
स्टाट्स बिब्लिओथिक में रखी
है। इसकी लिपि फारसी है।
इसे भारत में अंग्रेजों के समय
एक जर्मन शोधकर्ता डॉ. एलवस
र्जिंश्प्रगर जर्मनी ले गया था। प्रसिद्ध
शोधकर्ता डॉ. गोपीचंद नारंग
ने इसकी खोज कर इस पर अहम
शोध कार्य किया है।
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अमीर
खुसरो के हिन्दवी कलाम की
एकमात्र पांडुलिपि
जर्मनी (बर्लिन) के संग्रहालय
स्टाट्स बिब्लिओथिक में रखी
है। इसकी लिपि फारसी है।
इसे भारत में अंग्रेजों के समय
एक जर्मन शोधकर्ता डॉ. एलवस
र्जिंश्प्रगर जर्मनी ले गया था। प्रसिद्ध
शोधकर्ता डॉ. गोपीचंद नारंग
ने इसकी खोज कर इस पर अहम
शोध कार्य किया है।
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अमीर
खुसरो के हिन्दवी कलाम की
एकमात्र पांडुलिपि
जर्मनी (बर्लिन) के संग्रहालय
स्टाट्स बिब्लिओथिक में रखी
है। इसकी लिपि फारसी है।
इसे भारत में अंग्रेजों के समय
एक जर्मन शोधकर्ता डॉ. एलवस
र्जिंश्प्रगर जर्मनी ले गया था। प्रसिद्ध
शोधकर्ता डॉ. गोपीचंद नारंग
ने इसकी खोज कर इस पर अहम
शोध कार्य किया है।
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