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उर्दू के कुछ नामी गिरामी साहित्यकार काफी अर्से
से ही हिन्दी-उर्दू को निकट लाने के
सख्त विरोधी रहे हैं। इसी परम्परा
में वे अमीर खुसरो जैसे हिन्दवी के जनकवि का हिन्दी
से किसी प्रकार का ताल्लुक बर्दाशत नहीं करते।
उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान तथा आलोचक सफदर आह अपनी पुस्तक, 'अमीर खुसरो बहैसियत' हिन्दी
शायर में लिखते हैं - 'उर्दू के शोधकर्ता प्रोफेसर महमूद
शीरानी और काजी अब्दुल वदूद जैसे साहित्यिक
लुटेरों और अदबी डाकुओं ने अमीर खुसरो की विधमान हिन्दवी कविताओं को निजी
स्वार्थ और हिन्दी से धार्मिक घृणा के कारण, खुसरो की
रचना ही मानने से इंकार कर दिया है। यह नहीं
प्रो. महमूद शीरानी ने अपनी पुस्तक 'पंजाब
में उर्दू' में जानबूझकर प्रोफेसर सिराजुद्दीन आ की किसी पॉकेट
बुक से कुछ कविताऐं चुराकर, उन्हें अमीर खुसरो के नाम
से प्रकाशित कर दिया है। दरअसल ये
लोग खुसरो के हिन्दवी कलाम पर हमले की तैयारियाँ कर रहे थे।
बाज उर्दू महक्कीन ने खुसरो के सारे हिन्दवी कलाम की प्रमाणिकता
से जानबूझ कर इंकार किया है ताकि खुसरो का हिन्दी
से कोई संबंध न रहे। उर्दू आलोचकों का एक
वर्ग खुसरो को हिन्दी साहित्य से जोड़ने के ही विरुद्ध रहा है।
वे उसे फारसी तक सीमित कर देना चाहते हैं। इसी प्रकार डॉ. वाहीद मिर्जा जैसे विद्वान यह गलत निष्कर्ष निकालने की चेष्टा करते हैं कि खुसरो की नज़र
में उनकी अपनी हिन्दवी रचनाओं का कोई महत्व नहीं था इसलिए उन्होंने उसे एकत्रित करने के
बजाय मित्रों में बाँट दिया। आज भी
उर्दू क्षेत्र में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अपने घटिया निजी
स्वार्थ और ऊँचे पद का लाभ उठाकर अमीर खुसरो का हिन्दवी कलाम जानबूझ कर
बर्बाद करने पर तुले हुए हैं।
अब सुनने में यह बहुत सरल मालूम पड़ती है। अगर पहेली की बूझ पुर्जिंल्लग है तो शब्द आऐंगे प्रीतम, पी, साजन आदि। और अगर बूझ स्रीलिंग है तो स्रीलिंग के शब्द आऐंगे सजनी, सखी, प्रियतमा, माशूका, जानम, दिलरुबा आदि। यानि इशारा किया गया है। यह पहेली है आग पर यानि चकमाक और पत्थरी पर। उस जमाने में दियासलाई तो होती नहीं थी। आग कैसे जलाते थे? दो पत्थरों को रगड़ते थे। एक चकमाक और एक पत्थरी। उससे शरारें, चिंगारी या आग झड़ती थी जो सूखे पत्तों को पकड़ लेती थी। अब पहेली में नारी संस्कृत शब्द है, स्रीलिंग है और उसकी पहचान भी स्रीलिंग है यानि आग या अग्नि जो जलाती है। आप कभी नहीं कहेंगे कि आग, जलता है। अरबी में नारी का मतलब है अग्नि या आग। शब्द ही ऐसा है। नारी संस्कृत में भी अर्थ देती है स्री के मान में और अर्बी में आग लगाने वाली चीज के माने में भी। न + ई = नारी यानि आग लगाने वाली चीजें, चकमाक और पत्थरी। चकमाक और पत्थरी दोनों स्रीलिंग हैं। यह नारी शब्द अरबी से फ़ारसी में भी प्रचलित हैं। तो अरबी, फ़ारसी और संस्कृत तीनों के हिसाब से अर्थ ठीक बैठ रहा है। अब अगला मिस्रा देखिए - 'इसके संग की टूटते देखी, उसको देखा सारी।' संग + सारी = संगसारी। संगसार करना यानी पत्थर से किसी को मारना। पत्थर से किसी को भी सजा देने के लिए पुराने जमाने में संगसार करते थे। ये बिब्लिओथिक तरीक़ा चला आता है, सिमेटिक है और इस्लामिक परम्परा में भी है। पहले अवैध संबंधों की सजा, पत्थर से मौत थी। यहाँ लफ्ज़ संगसारी आ रहा है और नारी से नारी मिलने का, गोया सैक्स का छिपा हुआ इशारा भी है। इस्लामी समाज में संगसारी, सजा देने का ख़ास तरीक़ा है। अब उससे हट के देखिए। हम नारी का ज़िक्र कर रहे हैं। पहेली शुरु हो रही है नारी शब्द से। जब उस जमाने की उर्दू भाषा में साड़ी लिखा जाएगा तो वह हो जाएगा सारी क्योंकि 'ड़' भी आता है, कभी नहीं आता। यूँ भी प्यार की भाषाओं में आज भी पूर्वी में साड़ी को सारी कहते हैं। तो सारी के भी दो माने हो गए। पूरा, पूरे के अर्थ में भी है। एक चकमाक तो दूसरा पत्थर। चकमाक तो टूटता है पर पत्थर नहीं टूटता। तो सारी, साड़ी भी है, नारी की पहचान के लिए और सारी, संग के साथ मिल कर संगसारी हुआ। 'संग' शब्द फ़ारसी में भी है और संस्कृत में भी। संस्कृत हुआ संगीसाथी और साथी शब्द भी आ रहा है। अब देखिए कितने अर्थ इन दो लाइनों के निकले और कैसा (२) करिश्मा इसमें है, संस्कृत, फ़ारसी, अर्बी, तुर्की और हिन्दवी शब्दों को ले कर। पहेली खड़ी बोली की उत्कृष्ट रचना है। इन पहेलियों में आप जितना गहराई से उतर कर देखेंगे। आप उतना हैरान होंगे। एक जमाने में पहेलियाँ यूँ भी बनाई जाती थी कि शब्द के टुकड़े करो और कुछ जो ध्वनियाँ हैं इधर लगाओ या उधर लगाओ, तो पहेली की बूझ सामने आएगी। जैसे - आधा बकरा, सारा हाथी, हाथ बँधा देखा एक साथी, पहेली की बूझ है गजरा। बकरा को आधा करो, बक + रा = बजरा। अब एक तरफ बक है दूसरी तरफ रा है। साथ हाथी यादि गज। गज + रा = गजरा।जो लोग संस्कृत बैकग्राउंड से आए हैं वो तो जान लेंगे पर उर्दू वाला आदमी नहीं पहचानेगा। वो चकरा जाएगा कि हाथी कैसे लगाऊँ, र के साथ जो गजरा बने। हाथी तो गज़ है। यानि की संस्कृत भी आ गई इसमें। अब है हाथ बँधा देखा इक साथी। गजरा हाथ पर बाँधते हैं या औरतें उसे बालों में लगाती हैं। इसमें फ़ारसी, अरबी और संस्कृत तीनों भाषाएँ आ गई। हाथी और साथी, क़ाफ़िया भी देखिए, ऐनामोटापोइया। आवाज़ों का ध्वनियों का आपस में निबाह और जो एक संगीत पैदा होता है ध्वनियों के आपस में मिलने से, वो भी है। कोई पहेली ऐसी नहीं है जिसमें ये गहराइयाँ न हों। पहेलियों का अंदरुनी ढाँचा बहुत मज़बूत है। अमीर खुसरो की हिन्दवी
रचनाओं का कलेवर बूझ-अनबूझ पहेलियों, कहमुकरियों, दो
सुखनों, निसबतों, अनमेलियाँ या ठकोसलों
से निर्मित है। जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय ॠतु
संबंधी पद, गीत, दो-एक फ़ारसी की गज़लें (जिनकी हर दूसरी पंक्ति
फ़ारसी भाषा में है) खुसरो द्वारा
रचित हैं। जैसी कि खुसरो ने स्वंय
भी कहा है कि उनका स्फुट काव्य मित्रों के विनोद के
लिए रखा गया है। सूफ़ी परंपरा में हज़रत निजामुद्दीन चिश्ती का शिष्य होने के कारण
उनकी रचनाओं में भाव या विषय की दृष्टि
से उसमें जीवन की गहन समस्या अथवा
सूफ़ी साधना आदि से सम्बद्ध भावों की
अनेकरुपता अवश्य है परन्तु दुर्भाग्य
से उनका अधिकतर हिन्दवी काव्य समय के हाथों खो गया। केवल बहुत ही कम उपलब्ध है। खुसरो द्वारा
रचित पद एवं दोहे निश्चय ही गंभीर एवं
भावपूर्ण हैं। इन रचनाओं में प्राय: वह
भाव लक्षित होते हैं जो आजकल प्रचलित निर्गुनिया गीतों
में दिख पड़ते हैं। यदि उन्हें सूफ़ी गीत कहें तो इस प्रकार के गीतों के उदाहरण हज़रत अमीर खुसरो के
अनन्तर लगभग तीन सौ वर्षों तक बहुत कम
मिलते हैं। वस्तुत: जन जीवन में प्रचलित
लोक साहित्य को साहित्य का स्थान दिलाने का प्रथम
श्रेय हिन्दुई के कवि खुसरो को ही है। खुसरो ने
फ़ारसी भाषा के समान हिन्दवी में गंभीर साहित्य की
रचना अवश्य की होगी पर जब तक उनकी
लुप्त रचनाएँ 'दीवाने-हिन्दवी' और 'हालाते-कन्हैया' आदि नहीं
मिल जाती यह पूर्ण रुप से कहना बहुत ही
मुश्किल है। कुछ विद्वान कहते हैं कि खुसरो ने हिन्दवी
में गंभीर साहित्य की रचना नहीं की क्योंकि
सम्भवत: फ़ारसी के समान हिन्दवी
में पट नहीं थे या फिर उस समय तक हिन्दुई
उच्च गंभीर साहित्य के लिए मँज भी नहीं पाई थी। वह केवल
सामान्य जन की बोलचाल की भाषा ही थी। हिन्दुई
में मनोरंजक साहित्य की सृष्टि का
मूल कारण सम्भवत: लोक जीवन में
उनकी स्वाभाविक रुचि एवंम उत्तर भारत के
शास्रीय और लोक संगीत से उनका निकट का परिचय था। डॉ.
रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार
अध्याय ग्रंथ में एक स्थान पर विशेष रुप
से लिखते हैं- ""'यहाँ की जनभाषा (हिन्दुई) खुसरो के ध्यान पर कैसे चड़ गई इसका कारण यह हो
सकता है कि खुसरो परदेसी
होने के कारण यहाँ के साहित्य
से इतने परिचित नहीं रहे होंगे
कि उसकी परम्परा उन पर आंतक जमाती। अपने
मुख्य भाव तो वे फ़ारसी में लिखते थे। हाँ जनता के
मनोरंजन के लिए कुछ चीज़ें उन्होंने यहाँ की भाषा में भी कह दी।
स्वयं अमीर खुसरो ने लिखा है कि
वे हिन्दवी के कवि हैं तथा उन्हें हिन्दवी
में लिखना बेहद प्रिय है। यही कारण
है कि अमीर खुसरो आदिकाल के कवियों
में अपनी हास्य विनोदमयी एवं सूफ़ी विचार धार
से ओत-प्रोत रचनाओं के कारण एक
विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनकी अधिकांश हिन्दवी
रचनाओं के प्रणयन का उद्देश्य था जनसाधारण का शब्दों के खिलवाड़ द्वारा
भरपूर व स्वस्थ मनोरंजन तथा चिश्ती
सूफ़ी विचार धारा व सम्प्रदाय के अपने गुरु हज़रत निजामुद्दीन औलिया के
सूफ़ी संदेशों का अपने गीतों व पदों के
माध्यम से लोगों के हृदय में पहुँचाना ताकि
उनमें आपसी भाईचारे, राष्ट्रीय एकता एवं धार्मिक
सद्भावना के विचार जन्म ले सकें।
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