सिंहासन बतीसी (द्वात्रींशत्पुत्तलिका) |
Sinhasan Battisi |
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कीर्तिमती अब विक्रम की जिज्ञासा और बढ़ गई। उन्होंने उसकी स्पष्टवादिता की भरि-भूरि प्रशंसा की तथा उसे निर्भय होकर अपनी बात कहने को कहा। तब उसने कहा कि महराज विक्रमादित्य बहुत बड़े दानी हैं- यह बात सत्य है पर इस भूलोक पर सबसे बड़े दानी नहीं। यह सुनते ही सब चौंके। सबने विस्मित होकर पूछा क्या ऐसा हो सकता है? उस पर उस ब्राह्मण ने कहा कि समुद्र पार एक राज्य है जहाँ का राजा कीर्कित्तध्वज जब तक एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन दान नहीं करता तब तक अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करता है। अगर यह बात असत्य प्रमाणित होती है, तो वह ब्राह्मण कोई भी दण्ड पाने को तैयार था। राजा के विशाल भोज कक्ष में निस्तब्धता छा गई। ब्राह्मण ने बताया कि कीर्कित्तध्वज के राज्य में वह कई दिनों तक रहा और प्रतिदिन स्वर्ण मुद्रा लेने गया। सचमुच ही कीर्कित्तध्वज एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करके ही भोजन ग्रहण करता है। यही कारण है कि भोज में उपस्थित सारे लोगों की हाँ-में-हाँ उसने नहीं मिलाई। राजा विक्रमादित्य ब्राह्मण की स्पष्टवादिता से प्रसन्न हो गए और उन्होंने उसे पारितोषिक देकर सादर विदा किया। ब्राह्मण के जाने के बाद राजा विक्रमादित्य ने साधारण वेश धरा और दोनों बेतालों का स्मरण किया। जब दोनों बेताल उपस्थित हुए तो उन्होंने उन्हें समुद्र पार राजा कीर्कित्तध्वज को राज्य में पहुँचा देने को कहा। बेतालों ने पलक झपकते ही उन्हें वहाँ पहुँचा दिया। कीर्कित्तध्वज के महल के द्वार पर पहुँचकर उन्होंने अपना परिचय उज्जयिनी नगर के एक साधारण नागरिक के रुप में दिया तथा कीर्कित्तध्वज से मिलने की इच्छा जताई। कुछ समय बाद जब ने कीर्कित्तध्वज के सामने उपस्थित हुए, तो उन्होंने उसके यहाँ नौकरी की माँग की। कीर्कित्तध्वज ने जब पूछा कि वे कौन सा काम कर सकते हैं तो उन्होंने का जो कोई नहीं कर सकता वह काम वे कर दिखाएँगे। राजा कीर्कित्तध्वज को उनका जवाब पसंद आया और विक्रमादित्य को उसके यहाँ नौकरी मिल गई। वे द्वारपाल के रुप में नियुक्त हुए। उन्होंने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज सचमुच हर दिन एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ जब तक दान नहीं कर लेता अन्न-जल ग्रहण नहीं करता है। उन्होंने यह भी देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज रोज़ शाम में अकेला कहीं निकलता है और जब लौटता है, तो उसके हाथ में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं से भरी हुई थैली होती है। एक दिन शाम को उन्होंने छिपकर कीर्कित्तध्वज का पीछा किया। उन्होंने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज समुद्र में स्नान करके एक मन्दिर में जाता है और एक प्रतिमा की पूजा-अर्चना करके खौलते तेल के कड़ाह में कूद जाता है। जब उसका शरीर जल-भुन जाता है, तो कुछ जोगनियाँ
आकर उसका जला-भुना शरीर कड़ाह से निकालकर नोच-नोच कर खाती हैं और तृप्त होकर चली जाती हैं। जोगनियों के जाने के बाद प्रतिमा की देवी प्रकट होती है और अमृत की बून्दें डालकर कीर्कित्तध्वज को जीवित करती है। अपने हाथों से एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ कीर्कित्तध्वज की झोली में जाल देती है और कीर्कित्तध्वज खुश होकर महल लौट जाता है। प्रात:काल वही स्वर्ण मुद्राएँ वह याचकों को दान कर देता है। विक्रम की समझ में उसके नित्य एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करने का रहस्य आ गया। मन्दिर, प्रतिमा- सब कुछ गायब हो गया। अब दूर तक केवल समुद्र तट दिखता था। दूसरे दिन जब कीर्कित्तध्वज वहाँ आया तो बहुत निराश हुआ। उसका वर्षों का एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करने का नियम टूट गया। अन्न-जल त्याग कर अपने कक्ष में असहाय पड़ा रहा। उसका शरीर क्षीण होने लगा। जब उसकी हालत बहुत अधिक बिगड़ने लगी, तो विक्रम उसके पास गए और उसकी उदासी का कारण जानना चाहा। उसने विक्रम को जब सब कुछ खुद बताया तो विक्रम ने उसे देवी वाली थैली देते हुए कहा कि रोज़-रोज़ कडाह में उसे कूदकर प्राण गँवाते देख वे द्रवित हो गए, इसलिए उन्होंने देवी से वह थैली ही सदा के लिए प्राप्त कर ली। वह थैली राजा कीर्कित्तध्वज को देकर उन्होंने उस वचन की भी रक्षा कर ली, जो देकर उन्हें कीर्कित्तध्वज के दरबार में नौकरी मिली थी। उन्होंने सचमुच वही काम कर दिखाया जो कोई भी नहीं कर सकता है। राजा कीर्कित्तध्वज ने उनका परिचय पाकर उन्हें सीने से लगाते हुए कहा कि वे सचमुच इस धरा पर सर्वश्रेष्ठ दानवीर हैं, क्योंकि उन्होंने इतनी कठिनाई के बाद प्राप्त स्वर्ण मुद्रा प्रदान करने वाली थैली ही बेझिझक दान कर डाली जैसे कोई तुच्छ चीज़ हो।
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Content prepared by Sunil Jha
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