सिंहासन बतीसी (द्वात्रींशत्पुत्तलिका) |
Sinhasan Battisi |
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रुपरेखा राजा ने उसके निकट जाकर देखा तो वे उसे एक झलक में ही पहचान गए. वह उनके अभिन्न मित्र सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था। सेठ गोपाल दास बहुत बड़े व्यापारी थे और उन्होंने व्यापार से बहुत धन कमाया था। उनके बेटे की यह दुर्दशा देखकर उनकी जिज्ञासा बढ़ गई। उसकी बदहाली का कारण जानने को उत्सुक हो गये। उन्होंने उससे पूछा कि उसकी यह दशा कैसे हुई जबकि मरते समय गोपाल दास ने अपना सारा धन और व्यापार अपने दोनों पुत्रों में समान रुप से बाँट दिया था। एक के हिस्से का धन इतना था कि दो पुश्तों तक आराम से ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती थी। विक्रम ने फिर उसके भाई के बारे में भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की। युवक समझ गया कि पूछने वाला सचमुच उसके परिवार के बारे में सारी जानकारी रखता है। उसने विक्रम को अपने और अपने भाई के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने बताया कि जब उसके पिता ने उसके और उसके भाई के बीच सब कुछ बाँट दिया तो उसके भाई ने अपने हिस्से के धन का उपयोग बड़े ही समझदारी से किया। उसने अपनी ज़रुरतों को सीमित रखकर सारा धन व्यापार में लगा दिया और दिन-रात मेहनत करके अपने व्यापार को कई गुणा बढ़ा लिया। अपने बुद्धिमान और संयमी भाई से उसने कोई प्रेरणा नहीं ली और अपने हिस्से में मिले अपार धन को देखकर घमण्ड से चूर हो गए। शराबखोरी, रंडीबाजी जुआ खेलना समेत सारी बुरी आदतें डाल लीं। ये सारी आदतें उसके धन के भण्डार के तेज़ी से खोखला करने लगीं। बड़े भाई ने समय रहते उसे चेत जाने को कहा, लेकिन उसकी बातें उसे विष समान प्रतीत हुईं।
ये बुरी आदतें उसे बहुत तेज़ी से बरबादी की तरफ ले गईं और एक वर्ष के अन्दर वह कंगाल हो गया। वह अपने नगर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित सेठ का पुत्र था, इसलिए उसकी बदहाली का सब उपहास करने लगे। इधर भूखों मरने की नौबत, उधर शर्म से मुँह छुपाने की जगह नही। उसका जीना दूभर हो गया। अपने नगर में मजदूर की हैसियत से गुज़ारा करना उसे असंभव लगा तो वहाँ से दूर चला आया। मेहनत-मजदूरी करके अब अपना पेट भरता है तथा अपने भविष्य के लिए भी कुछ करने की सोचता है। धन जब उसके पास प्रचुर मात्रा में था तो मन की चंचलता पर वह अंकुश नहीं लगा सका। धन बरबाद हो जाने पर उसे सद्बुद्धि आई
और ठोकरें
खाने के बाद अपनी भूल का एहसास हुआ। जब राजा ने पूछा क्या वह धन आने पर फिर से मन का कहा करेगा तो उसने कहा कि ज़माने की ठोकरों ने उसे सच्चा ज्ञान दे दिया है और अब उस ज्ञान के बल पर वह अपने मन को वश में रख सकता है।
मन और ज्ञान में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है तथा दोनों का अपना-अपना महत्व है। जो पूरी तरह अपने मन के वश में हो जाता है उसका सर्वनाश अवश्यम्भावी है। मन अगर रथ है तो ज्ञान सारथि। बिना सारथि रथ अधूरा है। उन्होंने सेठ पुत्र के साथ जो कुछ घटा था उन्हें विस्तारपूर्वक बताया तो उनके मन में कोई संशय नहीं रहा। उन तपस्वियों ने उन्हें एक चमत्कारी खड़िया दिया जिससे बनाई गई तस्वीरें रात में सजीव हो सकती थीं और उनका वार्त्तालाप भी सुना जा सकता था।
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Content prepared by Sunil Jha
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