रुहेलखण्ड

Rohilkhand


संस्कारों के उद्देश्य

संस्कारों के दो उद्देश्य थे। एक उद्देश्य तो प्रकृति में विरोधी शक्तियों के प्रभाव को दूर करना और हितकारी शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करना था, क्योंकि प्राचीन हिंदूओं का भी अन्य प्राचीन जातियों की भांति यह विश्वास था कि मनुष्य कुछ अधिमानव प्रभावों से घिरा हुआ है। इस प्रकार वह बुरे प्रभाव को दूर करके और अच्छे प्रभाव को आकर्षित करके देवताओं और इन अधिमानव शक्तियों की सहायता से समृद्ध और सुखी रहेगा। संस्कारों के द्वारा वे पशु, संतान, दीर्घायु, संपत्ति और समृद्धि की आशा करते थे। संस्कारों के द्वारा मनुष्य अपने हर्षोल्लास को भी व्यक्त करता था।

दूसरा मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक था। मनु के अनुसार मनुष्य संस्कारों के द्वारा इस संसार के और परलोक के जीवन को पवित्र करता है। इसी प्रकार के विचार याज्ञवल्क्य ने व्यक्त किये हैं। प्राचीन भारतीयों का विश्वास था कि प्रत्येक मनुष्य शूद्र उत्पन्न होता है और उसे आर्य बनने से पूर्व शुद्धि या संस्कार की आवश्यकता होती है। इसी उद्देश्य से उपनयन संस्कार किया जाता था। संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य का नैतिक उत्थान और उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करके जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचने के योग्य बनाना था। संस्कारों का संबंध मनुष्य के संपूर्ण जीवन से था। वे जीवन भर इस संसार में और आत्मा के द्वारा परलोक में भी उस पर प्रभाव डालते थे।

जीवन भर मनुष्य संयम का जीवन बिताता था और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासन में रहता था। इस प्रकार समाज में समान संस्कृति के और अधिक चरित्रवान व्यक्तियों का प्रादुर्भाव होता था। प्राचीन भारतीयों की धारणा थी कि संस्कारों के द्वारा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। इन के द्वारा मनुष्य को यह अनुभूति होती है कि संपूर्ण जीवन ही आध्यात्मिक साधना है।

इस प्रकार संस्कारों के द्वारा सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में सुंदर समन्वय स्थापित किया गया था। शरीर और उसके कार्य अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक माने जाते थे न कि बाधक।

संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य की पाशविकता को परिष्कृत- मानवता में परिवर्तित करना था। प्राचीन काल में मनुष्य के जीवन में धर्म का विशेष महत्व था। संस्कारों का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करना था कि वह विश्व में मानव और अतिमानव शक्तियों के साथ समन्वय स्थापित कर सके। इनका उद्देश्य मनुष्य को बौद्धिक ओर आध्यात्मिक रुप से सुसंस्कृत बनाना था।

गर्भाधान से जन्म तक के संस्कारों का उद्देश्य सुजनन विज्ञान की शिक्षा और विद्यारंभ से समावर्तन तक के संस्कारों का शैक्षिक महत्व था। विवाह संस्कार का सामाजिक महत्व था। इस संस्कार के द्वारा मनुष्य का पारिवारिक जीवन सुखी बनता था और समाज में सुव्यवस्था रहती थी। अंत्येष्टि संस्कार का उद्देश्य पारिवारिक और सामाजिक स्वास्थ्य परिवार के जीवित व्यक्तियों को सांत्वना प्रदान करना था।

ये संस्कार वर्ण- धर्म और आश्रम- धर्म दोनों का अभिन्न भाग थे। वर्ण- धर्म का उद्देश्य व्यक्ति के कार्यों को समाज के हित को ध्यान में रख कर नियंत्रित करना था। आश्रम धर्म का भी यही उद्देश्य है, किंतु इसमें प्रमुख रुप से व्यक्ति के हित को ध्यान में रखा जाता था। इन दोनों दृष्टिकोणों को मिलाने वाली कड़ी संस्कार है। संस्कारों के द्वारा व्यक्ति पहले से अधिक संगठित और अनुशासित होकर एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश करता था। इस प्रकार प्रशिक्षण देकर व्यक्ति को समाज के लिए पूर्णतया उपयोगी बनाया जाता था। गृहस्थाश्रम में योग्य संतान उत्पन्न करके पति- पत्नी समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करते थे, किंतु साथ ही वे अपनी निजी उन्नति भी करते थे। गृहस्थाश्रम भी वानप्रस्थ की और इसी प्रकार वानप्रस्थ संन्यास की पृष्ठभूमि हैं। सभी आश्रम व्यक्ति को उस के लक्ष्य मोक्ष की ओर ले जाते हैं।

संस्कार के समय जो धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं, वे व्यक्ति को इस बात की अनुभूति करती है कि उसके जीवन में इस संस्कार के बाद कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन होने जा रहा है। उदाहरण के लिए उपनयन संस्कार उसे इस बात की अनुभूति कराता है कि वह इस संस्कार के बाद उस समुदाय की सांस्कृतिक परंपरा का अध्ययन करेगा, जिस समुदाय विशेष का वह सदस्य है। इसी प्रकार विवाह संस्कार के बाद संतानोत्पत्ति करके अपने समुदाय की शक्ति बढ़ाने का निश्चय करता है। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर वह समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करके धर्म- संचय करता है, जिससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है, जो उसे उसके जीवन के लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की ओर अग्रसर करती है।

संस्कारों के समय की जाने वाली धार्मिक क्रियाएँ व्यक्ति को इस बात की अनुभूति कराती थी कि अब उसके ऊपर कुछ नई जिम्मेदारियाँ आ रहीं हैं, जिन्हें पूरा करके ही वह समाज की और अपनी दोनों का उन्नति कर सकता है। इस प्रकार संस्कार पूर्वजन्म के दोषों को दूर करके और गुणों का विकास करने में सहायक होकर व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करके व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति में सहायक होते थे, इसलिए प्राचीन भारत में संस्कारों का इतना महत्व था।

कालांतर में जन साधारण संस्कारों के सामाजिक और धार्मिक महत्व को भूल गए। संस्कार एक परम्परा मात्र रह गए। उनमें गतिशीलता न रही। समाज की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन नहीं किए गए। उनमें मानव को सुसंस्कृत बनाने की शक्ति न रही। वे नित्य चर्या से संबंधित धार्मिक- कृत्य मात्र रह गए। उनका जीवन पर प्रभाव लेशमात्र भी न रहा। अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण जीवन की संकल्पना ही बदल गयी है। अब मानव उन अतिमानव शक्तियों में विश्वास नहीं करता, जिनके अशुभ प्रभाव को दूर करने और अच्छे प्रभाव को आकर्षित करने के लिए संस्कार किए जाते थे, किंतु मानव जीवन का स्रोत अब भी एक रहस्य है। अतः मनुष्य अब भी संस्कारों के द्वारा अपने जीवन को पवित्र करना चाहता है। मनुष्य अब भी यह भली- भांति जानता है कि जीवन एक कला है। उसको सफल बनाने के लिए जीवन का परिष्कार करने की आवश्यकता है। व्यक्ति के सुसंस्कृत होने पर ही समाज सुसंस्कृत हो सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वर्तमान काल में भी संस्कारों का अपना अलग महत्व है। संस्कारों का रुप बदल सकता है, किंतु जीवन को सफल बनाने की दिशा में उनका महत्व कम नहीं हो सकता।

प्रमुख संस्कार :-

वर्तमान समय में व्यक्ति के जीवन में संपन्न होने वाले प्रमुख संस्कार निम्न है :-

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Content Prepared by Dr. Rajeev Pandey

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