Ullavur and Kundratthur I (Hindi)

भारत के दो समृद्ध, सुन्दर, स्वशासी गाँव—
उल्लावूर एवं कुण्ड्रत्तूर

समाजनीति समीक्षण केन्द्र के हम लोगों ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कलाकेन्द्र के सहयोग से सम्प्रति तमिलनाडु के दो ग्रामों उल्लावूर एवं कुण्ड्रत्तूर के भूगोल, इतिहास, अर्थ-व्यवस्था और समाज एवं राज्यव्यवस्था का विस्तृत वर्णन करते हुए दो पुस्तकों का प्रकाशन किया है। पुस्तकों के लेखक-संपादक जतिन्दर कुमार बजाज एवं एम. डी. श्रीनिवास हैं। लोकार्पण का सूचना पत्र यहाँ उपलब्ध है। इस आलेख में हम इन पुस्तकों की विषय-वस्तु एवं इन से अंग्रेजों से पहले के भारत की समाज एवं राज्यनीति संबंधी जो समझ बनती है वह संक्षेप में रखने का प्रयास कर रहे हैं।

चौंतीस वर्ष पूर्व हमने जब समाजनीति समीक्षण केन्द्र की स्थापना की थी तो हमारे समक्ष एक प्रमुख उद्देश्य यह जानना था कि अंग्रेजों के पूर्व के भारत की प्रशासनिक व्यवस्थाएँ कैसे चलती थीं और भारत में समाज एवं राज्य के मध्य क्या संबंध हुआ करता था।

इन प्रश्नों के उत्तर का एक स्रोत तो हमारा सभ्यतागत साहित्य है। हमने उस दिशा में कुछ अध्ययन किया है। केन्द्र की पहली कुछ पुस्तकें और विशेषतः अन्नं बहु कुर्वीत इसी आधार पर लिखी गयीं थी। उस साहित्य से संकल्पना के स्तर पर इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं।

सौभाग्य से हमारे पास इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का एक और स्रोत भी था। आदरणीय धर्मपालजी ने १७६७-१७७४ के मध्य अंग्रजों द्वारा किये गये चेन्नै के आसपास स्थित चेङ्गलपेट्टु जागीर क्षेत्र के प्रायः २,००० ग्रामों के एक बहुत विस्तृत सर्वेक्षण के अभिलेख देखे थे। इस सर्वेक्षण के माध्यम से लगता है अंग्रेज भी कदाचित् इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहे थे कि तब तक भारतीय लोगों की प्रशासनिक एवं अन्य सार्वजनिक व्यवस्थाएँ क्या थीं। इसके अतिरिक्त वे यह भी जानना चाहते थे कि इन गाँवों का कुल उत्पादन क्या था और वे उससे कितना लगान निकाल सकते थे।

यह सर्वेक्षण बारनार्ड सर्वेक्षण के नाम से जाना जाता है। तमिलनाडु राज्य अभिलेखागार में इस सर्वेक्षण के अंग्रेजी सारांश के अभिलेख उपलब्ध हैं। यह सारांश ताड़पत्रों पर अंकित अधिक विस्तृत आंकड़ों के आधार पर बनाया गया था। गाँव से सम्बन्धित समस्त आंकड़ों को गाँव के कनक्कपिल्लै (लेखपाल) द्वारा नियमित अंकित करते रहने की प्रथा कदाचित् दीर्घ काल से इस क्षेत्र में चलती आ रही थी। बारनार्ड ने अपना सर्वेक्षण इन्हीं ग्राम-कनक्कपिल्लैओं के द्वारा उनकी पारंपरिक रीति के अनुरूप ही करवाया था।  सौभाग्य से हम छह-सात सौ गाँवों के इन ताड़पत्रों को भी देख पाये हैं।  ताड़पत्रों में दिये गये आंकड़े बहुत विस्तृत हैं। इनमें गाँव के प्रत्येक परिवार के मुखिया का नाम, जाति, कार्य एवं उसके घर के विस्तार का उल्लेख है, प्रत्येक मंदिर, प्रत्येक तालाब अथवा अन्य जल-स्रोत का, प्रत्येक खेत के विस्तार और उसमें १७६२ से १७६७ के पांच वर्षों में हुए उत्पादन का, और फिर उस उत्पादन के प्रायः एक-तिहाई अंश के विभिन्न सार्वजनिक कार्यों के लिये नियोजन के विस्तृत आंकड़े हैं।

हमने बारनार्ड सर्वेक्षण के समस्त उपलब्ध आंकड़ों का संकलन एवं विश्लेषण किया है। अनेक गाँवों से संबंधित ताड़पत्रों के आंकड़ों को पढ़ कर उनका आधुनिक तमिल और अंग्रेजी में अनुवाद करने का कार्य भी हमने किया है। सद्यप्रकाशित जिन दो पुस्तकों की चर्चा हम इस आलेख में कर रहे हैं, उनमें बारनार्ड सर्वेक्षण के अंग्रेजी अभिलेखों एवं उनसे जुड़े तमिल ताड़पत्रों के विस्तृत आंकड़ों और इन गाँवों में अथवा उनके आसपास पाये जाने वाले प्रचुर शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों आदि के आधार पर इस क्षेत्र के दो गाँवों, उल्लावूर और कुण्ड्रात्तूर का वर्णन किया गया है।

इस अध्ययन से भारत के ग्रामों के जो मुख्य आयाम हमें समझ आये हैं वे संक्षेप में इस प्रकार है—

१.    भारत के प्रत्येक गाँव का अपना व्यक्तित्व है। गाँव कुछ घरों का जमघट मात्र नहीं है

गाँव एक सुस्पष्ट एवं सुस्थिर स्वशासित इकाई है। प्रत्येक गाँव का अपना सुदीर्घ इतिहास है। अपनी चिन्हित सीमाएँ हैं और इन सीमाओं की सुरक्षा करने की व्यवस्थाएँ हैं। गाँव की सीमाएँ इतनी स्थिर मानी जाती थीं कि थॉमस मुनरो १८१३ में हाउस ऑफ कॉमन्स में भारतीय व्यवस्थाओं के विषय में साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि—

“A village in India does not apply to what is commonly called a village in this country [United Kingdom], a collection of houses; a village is certainly a portion of country, generally from two to four square miles, the boundaries of which are unalterable; whatever cessions or transfers of country are made in the course of war from one power to another, the boundaries of the village remain permanent; …”

इसलिये इन दो पुस्तकों में हमने दोनों गाँवों के बहुत विस्तृत और बहुआयामी मानचित्र प्रस्तुत किये हैं।

२.    भारत के प्रत्येक गाँव का सुदीर्घ इतिहास है। 

शिलालेखों, ताम्रपत्रों, कथा-वार्ताओं, काव्यों-महाकाव्यों आदि में दीर्घ काल से अपने गाँवों का उल्लेख आता रहा है। जिन दो गाँवों के विषय में ये पुस्तकें हैं, उनकी ऐतिहासिकता तो अनेक प्रकार से अंकित है।

 कुण्ड्रत्तूर से ५५ शिलालेख संकलित किये जा चुके हैं । ये ११५३ से १७२६, अथवा चोळवंश के उत्कर्ष से मुगलकाल के अंत तक का इतिहास बताते हैं। कुण्ड्रत्तूर के इतिहास के साक्षी सेक्किऴार भी हैं। वे कुण्ड्रत्तूर में उत्पन्न हुए और तमिळ् शैव परम्परा के ६३ सन्तकवि नायन्मारों की गाथाओं का संकलन करके स्वयं ६४वें नायन्मार् के रूप में प्रतिष्ठित हुए।  कुण्ड्रत्तूर के अनेक स्थल उनकी स्मृति सहेजे हुए हैं। उनके जन्मस्थान पर एक मन्दिर स्थापित है। यहाँ का प्रमुख नागेश्वरर् मन्दिर उन द्वारा स्थापित माना जाता है और मन्दिर के भीतर उनकी पृथक् सन्निद्धि है। भव्य बालवारायार् ताल उनके भाई के नाम से है। आधुनिक काल में एक नया भव्य स्मारक उनके नाम से बनाया गया है।

कुण्ड्रत्तूर का नाम यहाँ पहाड़ी (तमिळ् में कुण्ड्र) पर स्थित सुब्रह्मण्यर् के मन्दिर से आता है और उनका इतिहास तो पौराणिक काल का है। सामान्यतः इस मन्दिर को कुण्ड्रत्तूर मुरुगन कहा जाता है। यहाँ के जनजीवन में आज भी इन मुरुगन का प्रमुख स्थान है। मन्दिर में आने वाले अनेक श्रद्धालुओं का यहाँ की अर्थ एवं यातायात व्यवस्था में बड़ा योगदान है।

उल्लावूर के आसपास के क्षेत्र का उल्लेख पल्लव काल के विख्यात कासाक्कुड़ी ताम्रपत्र में आता है। उल्लावूर के उत्तर में तेन्नेरि के मन्दिरों और दक्षिण में पालार्, चेय्यार् और वेगवती के पवित्र त्रिवेणी संगम पर स्थित अप्पन् वेंकटेश पेरुमाल् के मन्दिर की भीतियों पर सघनता से अंकित चोळ् काल के शिलालेख इस क्षेत्र के दीर्घ इतिहास के साक्षी हैं।

३.    भारत का गाँव धन-धान्य से समृद्ध था।

हमारे आकलन के अनुसार इस पूरे क्षेत्र का उत्पादन १ टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष था। आज अति-विकसित देशों में ऐसा उत्पादन होता है। आज के भारत का माध्य उत्पादन तो इसका पाँचवा भाग मात्र है। उल्लावूर का वार्षिक उत्पादन २.५ टन प्रतिव्यक्ति था। यह क्षेत्र के अत्युच्च माध्य से भी अढ़ायी गुना अधिक था। उल्लावूर, जैसा कि हमने पुस्तक में दिखाया है, कृषि में उत्कृष्ट था।

४.    भारत का गाँव केवल कृषि पर आधारित नहीं था।

उत्पादन में कृषि की प्रधानता थी। पर इस उत्पादन का उपयोग अनेकानेक कार्यों के लिये होता था। बार्नार्ड के सर्वेक्षण के अनुसार पूरे क्षेत्र के आधे के आसपास परिवार ही पूर्णतः कृषि से संबंधित हैं। अन्यों में बुनकर, बढ़ई, लोहार, स्वर्णकार, वणिक, शिक्षक, वैद्य, पुरोहित, संगीतकार, नृतक आदि परिवार थे। आजकी जनगणना के मापदण्डों से इनमें से अधिकतर गाँव नगरीय श्रेणी में ही आते।

उल्लावूर अवश्य कृषि-प्रधान था। कुण्ड्रत्तुर में तो कृषि गौण थी। वह प्रमुखतः संस्कृति एवं विद्वत्ता का केन्द्र था। वहाँ के ४७१ घरों में से ११६ घर बुनकरों के थे।

उल्लावूर अपना सब कौशल कृषि में ही दिखाता था। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यहाँ के लोग तीन ऋतुओं में छह धान की फसलें उगाते थे। इनमें से कुछ फसलें अत्यन्त विशिष्ट एवं सुगन्धित धान की होती थीं।

५.    भारत का गाँव सुन्दर था। 

 जो आंकड़े, प्रमाण एवं स्थान हमने देखे हैं उनसे स्पष्ट है कि भारत के गाँव और घर व्यवस्थित योजनाबद्ध सलीके से बनते थे। गाँव में एवं उसके आसपास स्थित अनेक मन्दिर, ताल-तालाब, पेड़ों के झुरमुट, फूलों के उद्यान आदि सब मिल कर अत्यन्त सुन्दर परिदृश्य की रचना करते थे।

 कुण्ड्रत्तूर एवं उल्लावूर के विलक्षण सौंदर्य का कुछ आभास चित्रों में देने का प्रयास इन पुस्तकों में हुआ है। इस आलेख के साथ इन ग्रामों के कुछ चित्र भी हमने दिये हैं।

६.    भारत का गाँव स्वशासी था। 

अट्ठारहवीं शताब्दी के आंकड़ों के अनुसार उस समय के विपुल उत्पादन का प्रायः एक तिहाई भाग गाँव-समाज के विभिन्न सार्वजिनक कार्यों के संपादन के लिये नियोजित कर दिया जाता था।

इस नियोजन के लिये भाग निकालने की परम्परा से चली आ रही एक विस्तृत पद्धति थी। इस पद्धति के दो भाग थे, एक को स्वतन्त्रम् कहते थे, दूसरे को मेरै। स्वतन्त्रम् भी दो स्तरों पर निकलता था। पहला स्वतन्त्रम् उपज की गहाई और तुलाई से पहले निकाल लिया जाता था। दूसरा स्वतन्त्रम् भी तुलाई से पहले निकलता था परन्तु गहाई के पश्चात्। तुली हुई उपज से दो प्रकार के मेरै निकलते थे। एक मेरै आधा सरकार वाले अंश और आधा कृषक् वाले अंश से निकलता था। एक अन्य मेरै उपज के केवल सरकार वाले अंश से निकलता था। ये चारों भाग मिल कर कुल उपज का प्रायः तीसरा भाग बनते थे।

जिन कार्यों के लिये उपज के प्रायः एक-तिहाई भाग का इस प्रकार नियोजन किया जाता था, उनकी सूचि बहुत लंबी है। इनमें गाँव की सुरक्षा करने वाले पालैयक्कारर् एवं तुक्किरिक्कारर् आदि, गाँव का लेखा रखने वाले कनक्कपिल्लै, सिंचायी व्यवस्थाओं की देखभाल करने वाले वेट्टि, उपज की तुलाई करने वाले अलवुक्कारन्, मन्दिरों के परिचारक, पुरोहित, नर्तक, देवदासियाँ एवं संगीतकार और पाठशालाओं के शिक्षक आदि आते थे। बढ़ई, लोहार, सुनार का भी भाग होता था, नाई और धोबी का भी और गाँव के वैद्य का भी। मन्दिरों, गाँव के संस्थापक गृहस्थों और कृषि में सहायक परैय्या गृहस्थों का भी अलग भाग होता था। गाँव के अपने संस्थानों एवं कार्यवाहकों के अतिरिक्त क्षेत्र के प्रमुख मन्दिरों, क्षेत्रीय स्तर के पालैयक्कारों, लेखपालों, विख्यात विद्वानों आदि के लिये भी गाँव की उपज से मेरै निकलता था। इस प्रकार राज्य से अपेक्षित समस्त कार्य गाँव स्वयं अपनी उपज में से विभिन्न कार्यों एवं संस्थानों के लिये निश्चित भाग निकाल कर कर लेता था।

विभिन्न संस्थानों एवं सार्वजनिक कार्यों के लिये उपज के एक अंश के अतिरिक्त प्रायः इन सब हिताधिकारियों को कृषि-भूमि का कुछ भाग मान्यम के रूप में दिया जाता था, जिसका अर्थ था कि भूमि के इस भाग के राजस्व का अधिकार उन्हें प्राप्त होता था। पूरे क्षेत्र में कृषि-भूमि का प्रायः एक चौथायी भाग मान्यम था। कुण्ड्रत्तूर में यह भाग २० प्रतिशत के आसपास था। उल्लावूर की भूमि अत्यन्त उपजाऊ है। वहाँ कृषि-भूमि (सेयकाल्) का मात्र आठवाँ भाग मान्यम था।

कृषि-भूमि का एक अंश का राजस्व मान्यम के रूप में पाकर गाँव के ये सब संस्थान एवं गृहस्थ सम्प्रभुता में भागीदार बन जाते थे। सम्प्रभु स्वशासी गाँव अपना शासन इन हिताधिकारियों के माध्यम से चलाता था। इस दृष्टि से गाँव ही राज्य था।

ऐसा स्वशासी गाँव भारतीय नीति की प्राथमिक इकाई था । गाँव अपने से बड़े क्षेत्र के संस्थानों एवं कार्यों का भी पोषण करता था। महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता के तुरन्त पूर्व स्वतन्त्र भारत के लिये समुद्रीय वृत्तों जैसी ऐसी ही व्यवस्था की कल्पना प्रस्तुत की थी। उस कल्पना में प्रत्येक वृत्त के केन्द्र में ग्राम था और वह वृत्त फैलता हुआ सम्पूर्ण राष्ट्र की रचना करता था। भारत के स्वशासी गाँव ऐसे  ही थे।

 करणीय 


आजकल देश में अनौपनिवेशिकरण की बहुत चर्चा हो रही है। अंग्रेजों जो औपनिवेशिक व्यवस्था स्थापित कर गये हैं उससे उबरना तो तभी होगा जब हम अपने स्वशासी गाँवों को स्वशासन का अधिकार लौटा देंगे। वैसा करने में लगता है अभी हमें समय लगेगा। हम उस दिशा में बढ़ते रहें, उसके लिये आवश्यक है कि हम उन स्वशासी गाँवों का स्मृति को बनायें रखें। स्मृति को जीवित रखने के लिये हमें निम्न कार्य तो करते ही रहना चाहिये —

भारत के इन सुन्दर, समृद्ध , स्वशासी एवं अनादि गाँवों का अध्ययन करते रहें।

अभिलेखों, शिलालेखों, ताम्रलेखों, ताड़पत्रों, सभ्यतागत साहित्य आदि का संकलन-संरक्षण-अध्ययन करते रहें।

कुछ विशिष्ट गाँवों का संरक्षण एवं जीर्णोद्धार करते रहें जिससे वे उस सनातन आदर्श के सजीव उदाहरण के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित रहें।

इसी प्रक्रिया से समृद्ध सनातन भारत का प्रामाणिक इतिहास लिखा जायेगा। इसी प्रक्रिया से समृद्ध सनातन भारत औपनिवेशिक काल की अपनी निद्रा से पुनः जागृत हो पायेगा।