मणिपुर की बांस तथा बेंत संस्कृति – 

Architecture

मणिपुर में घाटी तथा पहाड़ियों में लगभग प्रत्येक घर में बेंत तथा बांस शिल्प का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता था। विभिन्न डिज़ाइनों और पैटर्न में साधारण जीवन में आवश्यक लगभग सभी चीजों को शामिल करते हुए विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न प्रकार के उत्पाद बनाए जाते हैं। बांस एक ग्रामीण के जीवन का अभिन्न हिस्सा है चूंकि यह सभी तरीकों से ग्रामीण लोगों के दैनिक जीवन से संबंधित है। यह खेदजनक है कि इस शिल्प का प्रयोग तुलनात्मक रूप से बहुत कम हो गया है। यदि आने वाली पीढ़ियों के लिए विभिन्न बेंत तथा बांस उत्पादों को संरक्षित किया जाना है तो इनका संरक्षण अभी किया जाना चाहिए। 

बांस का प्रयोग विभिन्न वस्तुएँ, उपकरण आदि बनाने के लिए विभिन्न तरीकों से किया जाता है। सामान्यत: लोग केवल वे चीजें बनाते हैं जिनकी उनके दैनिक जीवन में आवश्यकता होती है। सामान्यत: फसल बोने और काटने के मौसम के बाद लोग बैठ कर अपने लिए कुछ चीजें बनाते हैं। ये सामान्य प्रयोग की वस्तुएँ बाजार में बिक्री के लिए नहीं हैं। तथापि बदलते समय और जीवित रहने के लिए धन अर्जित करने की आवश्यकता के कारण स्थानीय शिल्पकारों ने उन चीजों को बनाना और बाजार में बेचना शुरू कर दिया है जिनकी आवश्यकता दैनिक जीवन में होती है और इसके अतिरिक्त सजावट के सामान भी बेचे जाते हैं।

मणिपुर जनजातीय लोगों द्वारा उनके स्वयं के प्रयोग हेतु सुंदर टोकरियों के लिए भी प्रसिद्ध है। इन टोकरियों पर रंगे गए बांस के साथ जटिल पैटर्न बनाए जाते हैं। मणिपुरी टोकरियों की एक विशेषता है – बांस के मछली पकड़ने के जालों की विविधता जो इतनी सुंदरता से तराशे जाते हैं कि ये लगभग मूर्तिकला जैसे दिखाई देते हैं। टोकरियों की एक और किस्म चेंगबोन में बांस का एक गुंबद के आकार का ढक्कन होता है। इनका आवरण काले तथा सफ़ेद रंग के चौकोर तथा वर्ग के साथ वर्गाकार होता है, और यह चार मजबूत पैरों पर खड़ी होती है और इनका प्रयोग कपड़ों को रखने के लिए किया जाता है। मणिपुर में ईख की उत्कृष्ट चटाइयाँ तथा तकिये भी बुने जाते हैं, जिन्हें स्थानीय रूप से कौनफक के नाम से जाना जाता है। एक और प्रकार की दोहरी-बुनाई वाली चटाई राज्य में बुनी जाती है जिसे फाक कहा जाता है। इनकी और अन्य चटाइयों तथा टोकरियों की मणिपुर के बाहर अत्यधिक मांग है।

एक ध्यान देने योग्य रोचक बात यह है कि एक विशिष्ट जातीय समूह के शिल्पकार केवल वही वस्तुएँ बनाएँगे जो उनके स्वयं के लोगों की है। यह एक स्वीकृत परंतु अघोषित कोड है। इस संबंध में कोई अतिक्रमण नहीं किया जाता है। अर्थात एक शिल्पकार अपने जातीय शिल्प तक सीमित रहता है और सामान्यत: ऐसी कोई चीज बनाने का साहस नहीं करता जो दूसरे जातीय समूह से की हो।

आप मणिपुर की घाटी और पहाड़ियों में रह रहे लोगों के सांस्कृतिक जीवन की बांस तथा उनके उत्पादों के बिना कल्पना नहीं कर सकते। बांस के पौधे यहाँ के व्यक्ति के जीवन से एक अथवा अन्य तरीके से संबंधित होते हैं, यहाँ तक कि मृत्यु पर भी। बांस के उपयोगों और उपयोगिता का कोई अंत नहीं है। घाटी में रहने वाले मैतै उनके उपयोग के अनुसार बांस की विशिष्ट क़िस्मों में अंतर करते हैं: प्रथाओं में उपयोग के लिए बांस, लोगों के दैनिक जीवन में उपयोग के लिए बांस, कचरा जलाने के लिए बांस आदि। इस समाज द्वारा उस बांस को पारंपरिक रूप से उपयोज्य बांस के पैक से बाहर रखा जाता है जिसका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता।

बांस की विभिन्न क़िस्मों के अनुसार शिल्पकार विभिन्न तकनीकों तथा अलग-अलग स्वरूपों का प्रयोग करते हुए विभिन्न वस्तुएँ तथा उपकरण बनाते हैं। बांस के अतिरिक्त बेंत का भी घरेलू तथा अन्य उपयोगी वस्तुएँ बनाने में प्रयोग किया जाता है। बेंत ताड़ समूह की होती है। टोकरियाँ, कुर्सियाँ, टेबल आदि बनाने के लिए प्रयुक्त बेंत चढ़ते हुए ताड़ के लंबे लटकते तने से प्राप्त की जाती है। बेंत का तना 200 मीटर अथवा इससे अधिक लंबा भी हो सकता है। मणिपुर में बेंत तामेंगलोंग और चुरचंदपुर जिलों में पाई जाती है, जहां यह बराक नदी की सहायक धाराओं में और इसके तटों पर प्रचुर मात्रा में उगती है। मणिपुर के अन्य पहाड़ी जिलों में भी बेंत कम मात्रा में उपलब्ध है।

वास्तुकला

पुराने समय में मणिपुर की घाटी में रहने वाले लोग अपने घर, खाना पकाने की झौंपड़ियाँ, बाहरी-घर और अन्न भंडार बांस और फूस से बनाते थे क्योंकि दोनों चीजें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थीं। विश्व युद्ध II के बाद के काल में मैतै घरों कि वास्तुकला में परिवर्तन आए। बांस के खंभे तथा स्तंभ को लकड़ी के खंभों से बदला जाने लगे। तथापि फूस की छत वाले घरों के हूम्डांग अथवा निचली छत का आधार और U-ra अथवा ऊपरी छत का आधार तुरंत होने वाले बदलावों से बचे रहे और कुछ समय तक बनाए जाते रहे। यद्यपि बांस के सभी स्तंभों को लकड़ी के स्तंभों से बदल दिया गया परंतु घर के दक्षिण-पश्चिम कोने में एक बांस का स्तंभ बरकरार रखा गया है जहां सनमही (मैतै लोगों के घर में रहने वाले देवता) की पूजा के लिए आरक्षित एक एकांत स्थान है। इस अकेले बांस के स्तंभ को उटंग-वा कहा जाता है, और यह घरों के निर्माण में बांस के स्तंभों का प्रयोग करने की समाप्त होती मैतै वास्तु परंपरा का एक प्रतीक है।

स्तंभों, आधार, छत के आधार, और एक विशिष्ट मैतै घर के निर्माण में आवश्यक विभिन्न अन्य भागों के लिए सौ से अधिक नाम हैं।

एक विशिष्ट मैतै घर की वास्तुकला की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता है खंभों तथा अन्य आधार को सुरक्षित करने अथवा बांधने के लिए कीलों अथवा किसी अन्य धातु का प्रयोग नहीं किया जाना। इस प्रयोजन के लिए पानी में भिगोए गए बेंत तथा बांस के कटे हुए भागों का प्रयोग किया जाता है। खंभों और अन्य आधार को एक दूसरे के साथ मजबूती से बांधे रखने के लिए बांस में छेद किए जाते हैं और इन छेदों में पुंगजे (लगभग 30 सेमी. लंबी बांस की तीखी तथा नुकीली वस्तु) डाले जाते हैं। एक पुंगजे आधुनिक कील की तरह काम करता है। बांस के स्तंभों के ऊपरी सिरे को नोड के बिलकुल ऊपर काटा जाता है ताकि यह मजबूती दे सके।

मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोग अपने घर बनाने के लिए पहाड़ियों से बांस और लकड़ी काटते हैं। स्तम्भ, क्षैतिज आधार खंभे और छत के आधार खंभे लकड़ी और बांस के होते हैं। ऊपरी छत के आधार अधिकतर कटे हुए बांस के होते हैं। छत को ढकने के लिए छप्पर का प्रयोग किया जाता है। चिन-कुकी समूह के लोग सामान्यत: ढेर पर घर बनाने की शैली के घर बनाते हैं, जिसे सामान्यत: कंगठक-हाबा कहा जाता है। कंगठक-हाबा के लिए बांस का अत्यधिक प्रयोग किया जाता है। इन घरों में बांस का बना एक विस्तृत बरामदा होता है, और इस विस्तृत बरामदे के लिए प्लेटफॉर्म को बांस कि बनी चटाइयों से और बेहतर बनाया जाता है। बांस की चटाइयों से अस्थायी दीवारें और स्थायी दीवारें बनाई जाती हैं। तामेंगलोंग जिले में रहने वाले नागा समूह विभाजित बांस से बनी छतों वाले घर बनाते हैं। बांस की बड़ी छड़ियों को ऊर्ध्वाधर दो भागों में विभाजित किया जाता है, और विभाजित बांस को बारी-बारी से रखा जाता है अर्थात ऊपर तथा नीचे की तरफ मुख वाले टुकड़े एक-एक करके। जिरीबाम के कुछ क्षेत्रों में बांस की छड़ियों को टुकड़ों में काटा जाता है। इन काटे गए टुकड़ों को फिर तोड़ा जाता है। छत के किनारे से शुरू करते हुए पूरी छत को ढकते हुए तोड़े गए बांस की पंक्तियाँ एक दूसरे पर रखी जाती हैं वैसे ही जैसे छत को ढकने के लिए छप्पर रखा जाता है।

 

टोकरियाँ

मापन टोकरियाँ

जिन घरों में अनाज होता है उन घरों में सामान्यत: अनाज का मापन करने वाली टोकरियाँ पाई जाती हैं। इन टोकरियों में मापे गए अनाज को एक लंबी बांस की ट्यूब की सहायता से सतह पर समतल किया किया जाता है। मापन टोकरी की रिम को यथासंभव मजबूत बनाने का प्रयास किया जाता है। टोकरियों को उपयोग के दौरान सुविधाजनक बनाने के लिए टोकरी की बाहरी सतह को गोबर से उचित ढंग से संरेखित किया जाता है। मणिपुर में प्रयोग की जाने वाली विभिन्न टोकरियों पर नीचे चर्चा की गई है।

एक लाइतांग टोकरी के मुख का व्यास 37 सेमी. होता है। इसकी ऊंचाई 20.5 सेमी. होती है। लिखाई टोकरी के मुख पर इसका व्यास 46 सेमी. होता है। इसकी ऊंचाई 25.5 सेमी. होती है। शंगबाई एक मैतै सघन बुनाई वाली टोकरी है जिसका प्रयोग अनाज की मात्रा का मापन करने के लिए एक मापन टोकरी के रूप में किया जाता है। इसकी ऊंचाई 25.5 सेमी. होती है और इसके मुख का व्यास 48.5 सेमी. होता है। घाटी में लोग चावल का मापन करने के लिए एक छोटी मापन टोकरी का प्रयोग करते हैं जिसे मिरुक कहा जाता है।

छनाई टोकरियाँ

मणिपुर में पहाड़ियों में और घाटी में रहने वाले लोगों के बीच केले के तने, फूस और मटर के पौधों की बाहरी परत को सूरज कि रोशनी में सुखा कर इसकी राख़ एकत्रित करने की परंपरा है। इस प्रकार प्राप्त राख़ का प्रयोग करी बनाने के लिए किया जाता है। इसे छानने से राख़ में उपस्थित क्षारीय पदार्थ प्राप्त होता है। मैतै लोग राख़ को छानने के लिए शेक नामक एक छोटी टोकरी का प्रयोग करते हैं। शेक लंबे तथा पतले सिरे वाली तथा गोल मुख वाली शंकु के आकार की होती है। गोल मुख के दो ओर पल्ले होते हैं जो मूठ का काम करते हैं। पतले सिरे की नोक पर एक छोटा छेद रखा जाता है ताकि इसमें से छना हुआ द्रव बाहर आ सके। पहले एकत्रित की गई राख़ को खुले मुख से शेक में डाला जाता है और उसके बाद इस राख़ पर पानी डाला जाता है। छना हुआ द्रव जो बाहर आता है उसे “खारी” कहा जाता है। पट्टी को छोड़ कर शेक का व्यास मुख पर लगभग 11 सेमी. होता है और इसकी ऊंचाई 9 सेमी. होती है। कभी-कभी यह देखा जाता है कि घाटी में रहने वाले कुछ वर्गों के लोग क्षारीय द्रव को छानने के लिए शेक के स्थान पर मिरुक (चावल मापने के लिए प्रयुक्त टोकरी) का प्रयोग करते हैं। जनजातीय लोग भी इस प्रयोजन से शेक का प्रयोग करते हैं। इनमें केवल इतना अंतर होता है कि इनके द्वारा प्रयुक्त शेक घाटी के लोगों द्वारा प्रयुक्त शेक से आकार में बड़ा होता है।

पात्र टोकरियाँ

पैरों के साथ ढक्कन वाली वर्गाकार गुंबद के आकार की टोकरी।

पात्र टोकरी का कोई निश्चित आकार नहीं होता और यह उस उद्देश्य के अनुसार निर्धारित किया जाता है जिस उद्देश्य के लिए विशेष रूप से इसका प्रयोग किया जाना है। मैतै कपड़े बनाने के लिए कपास; बाजार में बेचे जाने के लिए सामान;विवाह समारोह, धार्मिक समारोह के लिए फल, सुपारी, पान के पत्ते और अनाज, चावल और सब्जियाँ आदि रखने हेतु ऐसी टोकरियों का प्रयोग करते हैं। जनजातीय समूह कपड़े बनाने हेतु धागा; अनाज, चावल आदि रखने के लिए भी पात्र टोकरियों का प्रयोग करते हैं, तुम्बा अथवा सुखाई गई खाली लौकी में रखी चावल की बियर रखने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है।

मैतै लोगों द्वारा विवाह और अन्य धार्मिक प्रयोजनाओं के लिए प्रयुक्त पात्र टोकरी को लुकमाई के नाम से जाना जाता है। मैतै चेंगचमूक नामक एक विशिष्ट टोकरी का भी प्रयोग करते हैं जिसमें पकाने के लिए अच्छी तरह से छाना गया चावल पानी से पूरी तरह से धोने के लिए रखा जाता है।

पहाड़ियों में, विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में, पर्याप्त रूप से खाली की गई लंबी बांस की ट्यूबों का प्रयोग पेयजल रखने के लिए किया जाता है। इन्हें घर के अंदर भंडारित किया जाता है, प्राय: एक के ऊपर एक रखते हुए।

विलोंग में रहने वाले मरम लोग राशकोक नामक पात्र टोकरी का प्रयोग करते हैं जो बांस के पतले कटे हुए टुकड़ों से खुली बुनाई शैली में बारीकी से बुनी जाती है।

मोयोन और मोनसांग जनजातियाँ इरांग नामक एक विशिष्ट पात्र टोकरी का प्रयोग करती हैं जिसमें भाप में उबाले गए चावल डाले जाते हैं और अवांछित सामग्री जैसे चावल की भूसी, खरपतवार के बीज, छोटे कंकड़ों आदि को बाहर निकाल दिया जाता है। इरांग का आकार नतोदर होता है और इसका तला गोलाकार होता है जो बिना टोकरी के पलटने के डर के टोकरी को दृढ़ता से रखना संभव बनाता है। इरांग को दो प्रकार से बुना जाता है: एक बाहरी बुनाई और एक सतही बुनाई।

मछली पकड़ने की टोकरी

घाटी की महिलाएं उथले पानी में मछली पकड़ने के लिए लॉन्ग नामक एक कटोरी के आकार की मछली पकड़ने की टोकरी का प्रयोग करती हैं। इस टोकरी को कटे हुए बांस के टुकड़ों से बुना जाता है। यह लगभग एक सपाट संरचना होती है। इसके बाद इसे एक सीधे खड़े लकड़ी के ब्लॉक पर रखा जाता है जिसका सिरा अंडाकार होता है। इस लकड़ी के ब्लॉक की ऊंचाई 60 सेमी और व्यास 35 सेमी होता है। उसके बाद कटे हुए बांस के टुकड़ों से बने एक वृत्ताकार पाश को लकड़ी के ब्लॉक में ऊपर से नीचे डाला जाता है और इस प्रकार बांस की संरचना का मुख वृत्ताकार पाश में फिट हो जाता है। सही आकार अर्थात टोकरी का कटोरी का आकार प्राप्त करने के बाद बांस की संरचना का मुख पाश के साथ मजबूती से जोड़ा जाता है। अब टोकरी प्रयोग किए जाने के लिए तैयार है।

घाटी की महिलाएं कमर तक गहरे पानी में मछली पकड़ने के लिए लॉन्ग-ऊप नामक एक मछली पकड़ने की टोकरी का प्रयोग करती हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में मछली पकड़ने का कार्य काइजरा टोकरी की सहायता से किया जाता है। इस टोकरी में लंबे तथा पतले सिरे के साथ एक बड़ा खुला मुख होता है, और इसमें मूठ के रूप में पाश होते हैं।

इस प्रकार पकड़ी गई मछलियों को रखने के लिए प्रयुक्त टोकरियों की सामान्यत: लंबी गर्दन तथा संकरा मुख होता है। मछली को टोकरी से बाहर निकालने से रोकने के लिए टोकरी के “गर्दन” के हिस्से के अंदर शौ नामक बांस का एक उपकरण लगाया जाता है। मछलियों को बाहर निकालने से पहले शौ को हटाया जाता है। शौ का आकार शंकु जैसा होता है। इसका सिरा नुकीला होता है, और इसे आग पर थोड़ा जला कर काला किया जाता है। इसे कटे हुए बांस के टुकड़ों के साथ मजबूती से बांधा जाता है। जब महिलाएं मछली पकड़ने जाती हैं तब उनके द्वारा इन टोकरियों को प्रयोग करने का तरीका होता है – टोकरी में लगे पट्टे को अपनी कमर पर बांधना और टोकरी को अपने दाईं ओर लटकाना।

लोकतक झील के आस-पास रहने वाले लोग पकड़ी गई मछलियों को रखने के लिए ङठोक नामक टोकरी का प्रयोग करते हैं। लोकतक झील पर एक द्वीप कारंग के निवासी, जो अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से मछली पकड़ने पर निर्भर हैं, झील से पकड़ी गई मछलियों को रखने के लिए एक चेपलेई थोप नामक एक बड़ी टोकरी का प्रयोग करते हैं। डोंगी पर चलने वाले मछुआरे लोकतक झील पर मछली पकड़ते हुए पकड़ी गई मछलियों को रखने के लिए शोइरु नामक एक टोकरी का प्रयोग करते हैं। शोइरु का मुख संकरा होता है परंतु इसका तला चौड़ा होता है। इसकी रिम पर टोकरी को पकड़ने की सुविधा के लिए दो पाश अथवा “कान” होते हैं। चप्पू का पतला सिरा दोनों पाशों में डाला जाता है और उसके बाद इससे लटकती हुई मछलियों से भरी टोकरी को कंधों पर उठाया जाता है और ले जाया जाता है।

शंक्वाकार टोकरियाँ

मणिपुर की पहाड़ियों में जनजातीय लोग अभी भी बड़ी संख्या में शंक्वाकार टोकरियों का प्रयोग कर रहे हैं। शंक्वाकार टोकरियाँ प्रमुख रूप से चीजों जैसे जंगल से एकत्रित की गई आग जलाने हेतु काटी हुई लकड़ियों, बांस की ट्यूबों में रखे गए पेयजल, बुआई तथा कटाई दोनों मौसमों के दौरान खेत के औज़ार, अनाज, सब्जियाँ और अन्य आवश्यक सामग्री बाजार से लाने तथा ले जाने आदि के लिए किया जाता जाता है। सामान ले जाने की टोकरियों, खेत के औजारों तथा पानी की बांस की ट्यूबों को ले जाने के लिए प्रयुक्त शंक्वाकार टोकरियाँ सामान्यत: खुली बुनाई प्रकार की होती हैं अर्थात खुली षट्कोणीय बुनाई की बनावट में बनाए गए खुले विकर्णों के पैटर्न में होती हैं।

शंक्वाकार टोकरियाँ सामान्यत: टोकरियों से जुड़ी पट्टियों को सिर पर रख कर ले जाई जाती हैं, और टोकरी पीठ पर टिकी रहती है और इस टोकरी को ले जा रहे व्यक्ति की सामान्य मुद्रा 45 डिग्री के कोण पर झुकी हुई होती है। अत्यधिक लदी हुई टोकरियों को ले जाने के कार्य को आसान बनाने के लिए पुरुष कंधे तक की लंबाई के लेंगकोट नामक एक लकड़ी के उपकरण का प्रयोग करते हैं जिसे पट्टियों से जोड़ा जाता है।लेंगकोट को गर्दन के पिछले हिस्से पर क्षैतिज रूप से रखा जाता है परंतु यह मुख्य रूप से कंधों से ही उठाया जाता है। मोयोन, मोनसांग और लमगंग जनजातियों की महिलाएं लकड़ी के लेंगकोट के बजाय लंबी बेंत का प्रयोग करती हैं। शंक्वाकार टोकरी पर पट्टियाँ दो प्रकार की होती हैं: एक वो जिन्हें टोकरियों पर स्थायी रूप से फिट किया जाता है, और दूसरी जिन्हें हटाया जा सकता है और बदल कर नई लगाई जा सकती है।

टोपियाँ और आभूषण

कटे हुए बांस और बेंत के टुकड़े टोपियाँ तथा आभूषण के मूल स्वरूपों की संरचना के लिए अनिवार्य घटक हैं। जनजातीय पुरुष कटी हुई बेंत से बुनी गई एक टोपी का प्रयोग करते हैं जो एक टोपी की तरह एकदम सही फिट होने के लिए बनाई जाती है और जिसे ये नृत्य करते समय पहनते हैं। खरम जनजातीय लोग अपने कानों को बांस के बने फूलों से सजाते हैं। जनजातीय लोग अपनी बाँहों तथा पैरों को भी क्रमश: खुडंगयाई अथवा कंगन और खुबोमयाई अथवा पायल से सजाते हैं। खुडंगयाई और खुबोमयाई दोनों बेंत के बनाए जाते हैं। एक सजावटी आभूषण होने के अतिरिक्त खुडंगयाई और खुबोमयाई दोनों युद्ध, लड़ाई आदि में सुरक्षा उपकरणों का कार्य करते हैं।

जाल

झीलों, छोटी नदियों, जल धाराओं, दलदलों आदि में मछली पकड़ने के लिए जालों अथवा लू का प्रयोग एक वर्षों पुरानी पद्धति है। पहाड़ियों में केवल सोरलु नामक एक विशिष्ट प्रकार के लू का प्रयोग किया जाता है। कभी-कभी पहाड़ियों की ढलानों पर तथा तलहटी के समीप रहने वाले लोग घाटी के लोगों द्वारा प्रयुक्त उपकरण से मिलते जुलते काबो-लुइमिटतींग नामक एक विशेष प्रकार के लू का प्रयोग किया जाता है। लू का आकार पकड़े जाने वाली विशिष्ट मछली के आकार और जहां लू रखा जाना है वहाँ पानी की गहराई के अनुसार निर्धारित किया जाता है। इसलिए लू विशिष्ट स्थितियों के अनुसार बनाए तथा प्रयोग किए जाते हैं। घाटी में प्रयोग किए जाने वाले लू के प्रकार हैं: टाओठुम, लुशात-लुबी, सोरलु, सोरलु चिंगाईबी, काबो-लू, आरोनलु, ताइजेब, आयनलु, लू-लू, टेखाओ-लू, ङनप्लु, काओ आदि। उपर्युक्त सभी लूमें से अधिकतर आकार में तुलनात्मक रूप से छोटे होते हैं जबकि टेखाओ-लू, सोरलु, लुशात-लुबी और काओ आकार में काफी बड़े होते हैं। इन बड़े लू के मुख लगभग एक मीटर व्यास के होते हैं, और इनकी लंबाई तीन अथवा चार मीटर तक होती है।

लगभग सभी जालों का बाहर निकला हुआ भाग मछली पकड़ने की टोकरियों के अंदर पाए जाने वाले शौ की तरह तीखा, नुकीला होता है। शौ को लगाने का स्थान विभिन्न जालों के अनुसार अलग-अलग होता है। ये शौ मछलियों के एक बार लू में प्रवेश करने के बाद उन्हें बाहर निकलने से रोकते हैं। मछली पकड़ने की टोकरियों के संबंध में पकड़ी गई मछलियों को बाहर निकालने से पहले शौ को हटाया जाता है। लू के मामले में ऐसा नहीं होता;लू में पहले ढक्कन अथवा इसे ढकने के लिए प्रयुक्त किसी अन्य चीज को हटाया जाता है और उसके बाद पकड़ी गई मछलियों को बाहर उडेला जाता है।

पुतले और चित्र

खुली षट्कोणीय बुनाई की बनावट में विकरणीय पैटर्न में बुनी गई टोकरियाँ पहाड़ियों के लोगों द्वारा अपने पूर्वजों की याद में किए जाने वाले मृत्यु संस्कारों में पक्षी के पुतलों के रूप में प्रदर्शित की जाती हैं। एक नए बनाए गए घर के मुहूर्त पर “प्रीति भोज” के अवसर पर और बुरी आत्माओं को भगाने के लिए किए जाने वाले संस्कारों में भी ऐसी टोकरियों के पुतले दिखाई देते हैं। कुछ जनजातीय समूह मानव खोपड़ियों को प्रदर्शित करने वाले बांस के बने पुतले बनाते हैं। ये घर के बरामदे में रखे जाते हैं।

उमंगलई हराओबा(वन देवताओं के उत्सव) के समय मैतै पुजारी (माइबा) और पुजारिनें (माइबी) कांसे के मुखौटे रखते हैं जो कटे हुए बांस की बनी टोकरियों के अंदर उमंगलई को प्रदर्शित करते हैं। कांसे के मुखौटों वाली टोकरियों की देवताओं की छवियों के रूप में पूजा की जाती है। छवि को पूरा करने के लिए मुखौटे के चारों ओर तथा नीचे कपड़ा लपेटा जाता है। हराओबा के पूरा होने पर मुखौटे और कपड़े टोकरी से हटा लिए जाते हैं, और टोकरी को अगले हराओबा में उपयोग के लिए मंदिर के अंदर ‘सुरक्षित’ ढंग से रख दिया जाता है।

संगीत वाद्य यंत्र

पहाड़ियों में जनजातीय लोग बांस के बने विभिन्न वायु संगीत वाद्य यंत्र प्रयोग करते हैं। ये मुख्य रूप से मुंह से बजाए जाते हैं। लमबंग आदिवासी पुलह नामक एक बांसुरी जैसा वायु संगीत वाद्य यंत्र बनाने के लिए एक छोटी प्रजाति के बांस की कटी हुई ट्यूबें बनाते हैं। इस वाद्य यंत्र में 4 से 7 छेद होते हैं। मरींग आदिवासी भी तौतरी नामक एक ऐसा ही संगीत वाद्य यंत्र प्रयोग करते हैं। कॉम इसे थैबे कहते हैं। थोडौ आदिवासी एक ही बांस के तने से अलग-अलग लंबाई की तीन ट्यूब काटते हैं और इन ट्यूबों को विभिन्न संगीत नोट उत्पन्न करने के लिए अलग-अलग बजाया जाता है। थडौ ऐसे संगीत वाद्य यंत्र को ठेफिट कहते हैं। लमबंग आदिवासी रेलरु नामक एक विशिष्ट वायु वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं जो बीच में एक संलग्न प्रक्षेपण, जिसमें से संगीत के नोट उत्पन्न करने के लिए फूँक मारी जाती है, के साथ एक मीटर लंबी खोखली बांस की ट्यूब होती है।लगभग सभी जनजातीय समूह असमान आकार के चार से पाँच ट्यूबों, जिन्हें एक साथ जोड़ा जाता है, से बने एक संगीत वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं और इसमें छोटी ट्यूब थोड़ी दूरी तक बड़ी ट्यूब में प्रविष्ट होती है। इस वाद्य यंत्र को बिगुल की तरह बनाया जाता है। लमबंग जनजातीय लोग संगीत वाद्य यंत्र बनाने के लिए बांस की कठोर बाहरी परत और रसदार अंदरूनी परत दोनों का प्रयोग करते हैं। दोनों परतों की आवश्यक लंबाई 30 सेमी है। कई जनजातीय समूह एक रोचक संगीत वाद्य यंत्र बनाने के लिए कटे हुए बांस के बारीक टुकड़ों अथवा पाया को समायोजित करते हैं जिसे मुंह से बजाया जाता है। पाया 15 सेमी लंबा और 1.5 सेमी चौड़ा होना चाहिए।

छाते

ग्रामीण क्षेत्रों के लोग काम पर जाते समय और धान के खेतों में काम करते हुए भी गर्मी और बरसात से बचने के लिए पहने जाने वाले अथवा पकड़े जाने वाले तीन प्रकार के बांस छातों अथवा येनपक का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार प्रयुक्त येनपक के प्रकार हैं: येङ्खृंग, सलाइटेप और येंगोई। लोकतक झील में मछली पकड़ने के लिए जाने वाले लोग अपने सिर पर येंगोई छाते का एक छोटा स्वरूप पहनते हैं। धान के खेतों में काम करते हुए येङ्खृंग छाते का उपयोग करने से शरीर का ऊपरी हिस्सा सीधी धूप से और बरसात में गीला होने से सुरक्षित होता है। इस प्रकार मैदानी क्षेत्रों में रहने वाली स्थानीय जनसंख्या और पहाड़ी ढलानों पर रहने वाले लोग आम तौर पर येङ्खृंग का प्रयोग करते हैं।

सलाइटेप छाता अब व्यावहारिक रूप से प्रयोग में नहीं आता है। कभी-कभी वस्तुओं से भरी हुई शंक्वाकार टोकरी ले जाते समय इस छाते का प्रयोग वर्षा से बचने और वस्तुओं तथा सामग्री को सुरक्षित तथा सूखा रखने के लिए किया जाता है। बिना कवच वाले स्थानों पर बैठी महिला-विक्रेता गर्मी तथा वर्षा से बचने के लिए बड़े येंगोई छातों का प्रयोग करती हैं जो बांस के खंभों पर लगाए जाते हैं।

मणिपुर में गौरैया वैष्णव लोग किसी व्यक्ति की मृत्यु पर और मृत व्यक्ति के “श्राद्ध” पर छोटे येंगोई छाते का प्रयोग करते हैं।

गर्मी तथा वर्षा से बचने के प्रमुख उद्देश्य से बनाए गए येनपक में खुली षट्कोणीय बुनाई की बनावट में विकर्णीय बुनाई का पैटर्न होता है। इसमें दोहरी बुनाई होती है जिसमें बहुत हल्की, सूखी पत्तियों की एक मध्यवर्ती परत होती है। यह येनपक को जलरोधक बनाता है। कुछ लोग मध्यवर्ती परत के लिए पत्तियों के स्थान पर वारुकक (कल्म आवरण) का प्रयोग करते हैं। तथापि इसका प्रयोग बहुत कम किया जाता है क्योंकि यह येनपक को भारी बना देता है। वारुकक की मध्यवर्ती परत वाले येनपक का प्रयोग मृत्यु संस्कारों में किया जाता है। पहाड़ी में रहने वाले लोग मध्यवर्ती परत के लिए चौड़ी, कुरकुरी पत्तियों (सागौन जैसे पेड़ों की) का प्रयोग करते हैं। येनपक की आंतरिक तथा बाह्य बुनाई पूरी करने के बाद और मध्यवर्ती परत डालने के बाद येनपक को मजबूती से सुरक्षित बनाने के लिए इसकी रिम को कटे हुए बेंत के टुकड़ों से मजबूती से बांधा जाता है।

कुलचिन्ह

तीन से नौ बांस के गोल छल्लों से सजाए गए, ज्यामितीय आकारों में कटे कपड़ों में लपेटे हुए लंबे बांस के खंभों के स्वरूप वाले कुलचिन्ह मैतै समाज की विशिष्टता है। बांस के खंभे सीधे होने चाहिए, और सबसे बड़ी किस्म के होने चाहिए। छल्ले असमान आकार के होते हैं और सबसे छोटा छल्ला खंभों के सिरे को सजाता है। सबसे बड़ा छल्ला अंत में आता है। तीन कुलचिन्हों को क्षत्र के रूप में जाना जाता है। इन्हें विभिन्न प्रथाओं तथा समारोहों के लिए अनिवार्य माना जाता है। उमंगलई (वन देवता) के सम्मान में मनाए जाने वाले उत्सवों के लिए क्षत्र एक पवित्र वस्तु के रूप में चढ़ाए जाते हैं और प्रयोग किए जाते हैं। इन कुलचिन्हों का प्रयोग “तालाबों को दूसरे स्थान पर ले जाने”, “मंदिरों को दूसरे स्थान पर ले जाने” आदि से संबंधित रिवाजों में भी किया जाता है और मृत्यु के संस्कारों और “फिरोई” (मृत्यु की पहली बरसी) आदि में भी किया जाता है।
लोकतक झील के एक द्वीप कारंग में लोग अपने आँगन में सिरे पर छोटी टहनियों तथा पत्तियों के सुंदर समूह के साथ लंबे बांस के खंभे लगाते हैं। ये कुलचिन्ह दर्शाते हैं कि परिवार की विवाह योग्य पुत्री अपने होने वाले पति के साथ सगाई के बंधन में बंध गई है। हरी-ऊ-थन के उत्सव में मैतै हिन्दू सबसे बड़ी किस्म के लंबे सीधे बांस के खंभे खड़े करते हैं, जिन पर गोल बांस के छल्ले लगाए जाते हैं। गांवों में युवतियाँ गेंदे के फूलों की मालाएँ तैयार करती हैं जिनसे वे बांस के खंभों पर छल्लों को सजाती हैं और इस प्रकार सुंदर फूल-कुलचिन्ह प्रस्तुत करती हैं।

मरींग जनजातीय लोग याकियों उत्सव में अपने आँगन में विभिन्न बांस के कुलचिन्ह बनाते हैं। लोगों को और उस परिवार के लोगों को यह बताने के लिए तीन कुलचिन्ह खड़े किए जाते हैं कि उत्सव मनाया जा रहा है। इन कुलचिन्हों के सिरे पर बांस तथा लकड़ी कि बनी पक्षियों तथा पशुओं की प्रतिकृतियाँ लटकाई जाती हैं। पूरे आँगन के चारों ओर बांस की एक ऊपर उठी हुई बालकनी बनाई जाती है। यह उन लोगों के लिए सीट का काम करती है जो इस अवसर पर ड्रम, घंटियाँ आदि बजाते हैं।

विविध

ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी जल धाराओं और नदियों पर आने-जाने के लिए बांस के पुल बनाए जाते हैं। एक विशेष प्रकार का बांस का पुल, जो अभी भी एक विशिष्ट ग्रामीण दृश्य का हिस्सा है, वह उरोक्थोङ्ग है। ये थोड़े से उभरे हुए पुल होते हैं जिनमें एक लंबा बांस का खंभा होता है जो तंग रास्ता बनाता है, जिससे एक बार में एक व्यक्ति पार जा सकता है। एक एकल बांस की रेलिंग संतुलन बनाने के लिए हाथ रखने के काम आती है। अधिकतर मामलों में उरोक्थोङ्ग भूमि स्तर अथवा नदी तल के स्तर से 8 मीटर अथवा इससे अधिक ऊंचाई पर बनाया जाता है। पहले के दिनों में नालों और पर्वतीय धाराओं को पार करने के लिए बेंत के बने झूलते हुए पुल आवागमन का एकमात्र माध्यम होते थे। घाटी में लोग तालाबों के किनारे पर तथा जल के थोड़ा अंदर परंतु जल स्तर से थोड़ा ऊपर नहाने के लिए और तालाब से पानी लेने के लिए ठोंगरा अथवा मचान जैसी संरचना बनाते हैं।

लॉयन-लूम, फ्लाई शटल लूम आदि के कई भाग बांस से बनाए जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग प्रत्येक मैतै घर में बांस के बने दरवाजे और बांस के खंभों तथा बांस के कटे हुए टुकड़ों से निर्मित चारदीवारी होती है। मणिपुर में बारीकी से तराशे हुए छोटे दांतों के साथ बांस के कंघे आम तौर पर प्रयोग किए जाते थे जब तक कि हाल ही में इन्हें प्लास्टिक के कंघों ने प्रतिस्थापित नहीं कर दिया। तथापि प्रथाओं, समारोहों के लिए देवताओं को चढ़ाए जाने वाले कंघे अभी भी बांस के बनाए जाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में कुछ जनजातीय समूह अभी भी बांस के बने धनुष तथा तीरों का प्रयोग करते हैं। मैतै भी बांस के बने धनुष तथा तीरों का प्रयोग करते हैं, परंतु केवल प्रथागत प्रयोजनों से। बांस के कटे हुए टुकड़ों और बांस की जड़ों का प्रयोग धूम्रपान की पाइप बनाने में किया जाता है। बांस से बनी आवाज करने वाली वस्तुएँ धान के खेतों में पक्षियों को भगाने के लिए लटकाई जाती हैं। लटगाए गए बांस के टुकड़ों को धागों से जोड़ा जाता है और ये ऐसी आवाजें उत्पन्न करते हैं जो पक्षियों को डरा कर भगा देती हैं। सेनापति जिले में रहने वाले जनजातीय लोग बांस से बने एक नोकदार डंडे का प्रयोग करते हैं जिससे पौधे से अनाज को अलग करने के लिए धान को कूटा जाता है। बेंत से बनी टेबलों, कुर्सियों, सीटों आदि का प्रचुरता से प्रयोग किया जाता है। कुछ खिलौने जैसे पिचकारी अथवा खिलौने का जल-पंप, खिलौने के पवन खेवन आदि भी बांस से बनाए जाते हैं।