Bengaluru Regional Centre
परियोजनाएं
शोध और प्रकाशन विभाग के रूप में एसआरसी आधारभूत अवधारणाओं के अन्वेष्ण, लिखित सिद्धांतों को मौखिक से संबद्ध करने, दृश्य को श्रव्यन से संबद्ध करने तथा सिद्धांतों को व्यिवहार्यता के साथ संबद्ध करने हेतु कटिबद्ध है। यह प्राथमिक और द्वितियक संदर्भों से व्यापक डाटाबेस तैयार करने का प्रयास करता है। एसआरसी द्वारा संचालित कुछ परियोजनाएं इस प्रकार हैं:
शब्द और उपकरण (मूर्तिकारों का कैंप)
कार्यशालाः 9 मार्च, 2008 को कश्यप शिल्प पर आधारित विभिन्न मूर्तिकारों की एक कार्यशाला का आयोजन किया गया। इसको 30 मार्च 2008 तक समाप्त होने की संभावना है। छह शिल्पी, दो गुरु और बारह छात्र इस परियोजना के लिए चयनित किये जा चुके हैं।
मेलूकोट में मंदिर परंपराएं और पर्व
मेलूकोट श्री वैष्णव के चार पवित्र केंद्रों में से एक है। यह मंदिर सेलुवा नारायण को समर्पित है और इसकी विशेषता इसके साल भर चलने वाले कर्मकांड हैं। सीडी रोम में इसका एक विस्तृत डिजिटल दस्तावेज तैयार किया गया है।
गोम्मता महामत्सकाभिषेक का दस्तावेजीकरण
श्रवणबेलगोला में फरवरी, 2006 के दौरान बाहुबलि के महामस्तकाभिषेक के अंतिम दिन हुए कर्मकांड का दस्तावेजीकरण किया गया। इस दस्तावेजीकरण में कर्मकांडों का विशिष्ट विवरणों को शामिल किया गया है और इसके महत्व को देखते हुए इसका डीडी पर प्रसारण किया गया।
महाभारत उत्सव
13 से 21 नवंबर 2005 के दौरान महाभारत संशोधन प्रतिष्ठान द्वारा प्रस्तुत महाभारत उत्सव के कलाकारों के चित्रों का दस्तावेजीकरण किया गया।
लुप्त होती जा रही लोक-परंपराओं का प्रलेखन (सितम्बर, 2005 से अगस्त, 2006 तक)
यह सहकारी कार्यक्रम इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के दक्षिणी क्षेत्रीय केन्द्र और कन्नड़ एवं संस्कृति निदेशालय ने मिल-जुलकर पूरा किया था। लुप्त होती जा रही लोक-परंपराओं के बारे में ‘ईवनिंग इन सम्सा’ के नाम से यह कार्यक्रम प्रत्येक मास के अंतिम मंगलवार को आयोजित किया गया। सितम्बर, 2005 से अगस्त, 2006 के बीच कुल चौबीस प्रस्तुतिकरण किए गए। इन सभी प्रस्तुतियों का प्रलेखन किया गया है।
संस्कृत नाटक स्वप्नवासवदत्तम की रचनात्मक प्रस्तुति
स्वप्नवासवदत्तम छह अध्यायों का एक उत्कृष्ट नाटक है जिसके रचनाकार प्रसिद्ध संस्कृत कवि भास हैं। भरत के नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार इस पारंपरिक भारतीय नाटक की समृद्धि को प्रदर्शित किया गया और इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा इसका दस्तावेजीकरण किया गया। इसे संस्कृत नाटकों के प्रदर्शन के लिए मॉड्यूल का
कला संबंधी अनुभव
-ध्वनि-औचित्य-वक्रोक्ति का सिद्धांत जिसका पालन सार्वभौमिक तौर पर कला के सभी प्रमुख रूपों में किया जाता है)
यह परियोजना रस, ध्वनि, औचित्य और वक्रोक्ति से जुड़े वैज्ञानिक और प्रयोजनीय स्वरूपों पर केंद्रित होगा। यह अध्ययन इन सिद्धांतों और इनके वर्तमान प्रचलनों को संबोधित होगा। इस संबंध में 24 अगस्त, 2004 को एक सेमिनार का आयोजन किया गया, जिसमें निम्न विशेषज्ञों ने शोधपत्र प्रस्तुत किया, वे हैं- महामहोपाध्याय डॉ. आर. सत्यनारायण, पद्मविभूषण डॉ. पद्म सुब्रमण्यम, शतावधानि डॉ. आर. गणेश और डॉ. चूड़ामणि नंदगोपाल. प्रो. जीसी त्रिपाठी, डॉ. एन रामानाथन, प्रो. पप्पू वेणुगोपाल और डॉ. एसआर रामास्वामी उपस्थित थे। प्रो. एस.के. रामचंद्र राव ने अध्यक्षता की थी।
इन शोधपत्रों के महत्व को देखते हुए इन्हें प्रकाशित किया गया।
दक्षिण भारत की मुराल चित्रकला का दस्तावेजीकरण
यह परियोजना कला के ऐतिहासिक अध्ययन और दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में पायी गयी मुराल चित्रकला के संरक्षण पर केंद्रित है। अब तक 20 साइटों का दस्तावेजीकरण किया जा चुका है। वर्तमान में संग्रहित दृष्य सामग्रियों का डाटाबेस तैयार किया जा रहा है।
अप्तोर्याम सोम याग (10 से 20 अप्रैल, 2004), त्रिशूर
सात महत्वपूर्ण सोम यज्ञों में से सातवें और सबसे बड़े इस सोम याग में ‘गरुण चयन’ शामिल था; गरुण चयन में मुख्य अग्नि-वेदी का निर्माण मिट्टी की एक हजार पक्की ईंटों की सहायता ‘फैले हुए डैनों वाले गरुण’ के आकार में किया जाता है। इस यज्ञ का आयोजन वैदिक यज्ञ प्रतिष्ठान, मुलनकुन्नतुकवू और ओम शांति धाम, बंगलुरू द्वारा किया गया। निम्हांस, इसरो, एनएएल, भारतीय विज्ञान संस्थान और अन्य राष्ट्रीय संस्थानों से आए वैज्ञानिकों के दल ने प्रकृति, मानव-जाति, पशुओं और वनस्पतियों पर यज्ञ के प्रभाव का अध्ययन किया। इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के दक्षिणी क्षेत्रीय केन्द्र ने इस आयोजन के प्रलेखन का समन्वयन किया। इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की मीडिया यूनिट ने डीडी- भारती पर इस आयोजन के प्रसंगों का प्रसारण किया।