Janapada Sampada
त्रिपुरा की बांस और बेंत संस्कृति
इस सीमावर्ती पर्वतीय क्षेत्र की कला और हस्तकलाओं, शिल्प और वास्तु, वस्त्रों, लकड़ी की नक्काशी, टोकरी बनाने और बेंत तथा बांस के कार्यक्षेत्र की अद्भुत परम्परा है| बांस और बेंत इस राज्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्तशिल्प है| यह हस्तशिल्प पूरे राज्य में फैला हुआ है जहां अगरतला शहर के अलावा कैलासहर, धर्मनगर, खोवाई, सदर, सुआमोरा और बेलोनिया के उपमंडलों में इसकी सघन उपस्थिति है| बनाई जाने वाली वस्तुओं में चटाईयां, झोले, मूरा, फल की टोकरियां और फूलदान शामिल हैं| राज्य सरकार द्वारा गठित हस्तशिल्प शिक्षक संस्थान (क्राफ्ट टीचर्स इंस्टीट्यूट) ने इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है।
राज्यस उद्योग विभाग अगरतला में एक डिजाइन एक्सरटेंशन केंद्र संचालित करता है और अखिल भारतीय हस्तपशिल्पी बोर्ड ने एक बांस तथा बेंत विकास संस्थाएन स्थापित किया था, जिसके द्वारा बांस के रासायनिक प्रशोधन में अनुसंधान का कार्य शुरू किया गया है। यह बांस कार्य, अनुकूलन, संरक्षण तथा शिल्पब डिजाइन में एक उन्नोत प्रशिक्षण पाठ्यक्रम भी प्रदान करता है। अगरतला जेल में भी फर्नीचर के सामान को बनाया गया था। अगरतला में, एक प्राइवेट रजिस्टमर्ड सोसायटी तथा कई अन्यल एककों ने बांस के स्क्री न, लैंप स्टैंइड तथा टेबल-मैट में विशिष्टवता प्राप्तइ करते हुए लोकप्रिय वस्तुकओं का उत्पाोदन शुरू किया है।
बांस को प्राथमिक सामग्री के रूप में प्रयुक्तत करते हुए त्रिपुरा के मैदानी भागों में अनेक ढांचे बनाए जाते हैं। ये ढांचे घर, अनाज के गोदाम, दुकानें, कार्यस्थ्ल या वृहत्तग मालगोदाम भी हो सकते हैं। वे तीव्र भूकंपों को सहन करने के लिए हल्केन निर्मित-स्थतल होते हैं, साथ ही, वे पवनरोधी भी होते हैं। त्रिपुरा राज्यप चीरे हुए बांस से निर्मित बांस के स्क्रीोनों के लिए विख्यातत है, ये इतनी बारीकी से बुने होते हैं कि वे प्राय: हाथीदांत की तरह दिखते हैं। वे बांस की रंगीन पटिटयों से उत्कृष्ट रूप से अधिरोपित होते हैं।
अगरतला, त्रिपुरा की बेंत और बांस की कार्यशाला का दृश्य
त्रिपुरा में बांस की चटाई का फलता-फूलता उद्योग है। बांस की चटाई को मीटर के हिसाब से बेचा जा सकता है अथवा उत्पादों में परिवर्तित किया जा सकता है। चटाई की प्रति मीटर कीमत बांस के चीरे की बारीकी, चटाई की चौड़ाई तथा प्रति 25 मिमी प्रयुक्त ताना धागों की संख्या तथा रंग पर निर्भर करती है। बांस की चटाई को रूपांतरित करके अनके उत्पाद जैसे कि पंखे, लैंपस्टैंड, हैंडबैग तथा अनेक सजावटी वस्तुएं बनाई जाती हैं। सबसे सरलतम सजावटी वस्तु 600 मिमी लंबी चटाई से बना वाल-हैंगिंग है जिस पर ऑयल रंगों से बना एक चित्र है। वाल हैंगिेंग के सिरे बांस की पट्टियों से मजबूत बनते हैं। चटाई के अपशिष्ट टुकड़ों से बना एक अन्य सजावटी उत्पाद फूल की छडि़यां हैं। बांस से बनी मेज की चटाई सर्वाधिक लोकप्रिय उत्पादों में से एक है। वे अपेक्षित लंबाई तथा चौड़ाई में हथकरघे पर बुने हुए होते हैं। अधिक बारीक सजावटी की उच्चतर श्रम लागत होती है। कुछ चटाई के सेटों पर स्थानीय कलाकारों द्वारा बनाए गए सजावटी तैलीय चित्र होते हैं।
चायदानी की टोप तथा ट्रे एक अन्य उत्पाद है। अर्ध-चक्रीय तथा चक्रीय पंखे बांस की चटाई से बनते हैं,जिनमें चटाई की एकदिशीय नम्य किस्म का इस्तेमाल किया जाता है। लैंम्पशेड भी बांस की ठाट से निर्मित होते हैं। यह खूबसूरत लगता है जब इसे प्रकाश के सामने देखा जाता है क्योंकि चटाई की बुनावट अधिक स्पष्ट हो जाती है। बांस की ठाट से तरह-तरह के आकारों और बनावटों वाले हैंड बैग बनाए जाते हैं। सामान्य तौर पर सख्त संरचना के साथ इनके कड़े किनारे होते हैं। बुने हुए बांस के ठाटों से बने उत्पादों के अलावा अगरतला में कई अन्य उत्पाद तैयार किए जाते हैं। इनमें मुड़े हुए बांस के फूलदान तथा लैंपस्टेंड, नक्काशीदार तथा संरचित पात्र जैसे कि मग तथा पेंसिल होल्डर और बांस की संरचित पटिटयों से निर्मित कई अन्य नए सामान शामिल हैं। यहां मुख्य बल विभिन्न हस्तशिल्प मंडियों के जरिए देहात के बाजारों में बिक्री के लिए अभिप्रेत सजावटी उत्पादों का निर्माण करने पर है।
रियांग के घर
त्रिपुरा के रियांग जनजातीय लोग अपने घरों के निर्माण में प्रमुख सामग्री के रूप में बांस का इस्तेलमाल करते हैं। कुछ मामलों में, छप्पोर की छत भी बांस की पत्तियों से बनाई जाती है। ये घर सामान्यल पहाड़ी निवास स्थाान होते हैं जो वृहत क्षैतिज चबूतरा, घर का फर्श निर्मित करने के लिए बांस के चीरों पर निर्मित किया जाता है। बांस के खंभे एक वर्गाकार जाली पर व्यूवस्थित होते हैं और झुके हुए समग्र बांस के ढांचे इन्हें मजबूती प्रदान करते हैं। छत के ढांचे को सहारा देने के लिए अपेक्षित संख्याह में खंभे फर्श के चबूतरे की सतह से ऊपर विस्तृबत होते हैं।
रियांग के घर की योजना सामान्य तौर पर एक लंबी आयत की तरह होती है जिसके सामने एक आच्छातदित बरामदा तथा पीछे के भाग में एक खुला बरामदा होता है। एक एकल छत सामने के बरामदे तथा कमरे को घेरती है। इसकी छत दोनों ओर नीचे झुकी हुई होती है।
कमरे की फर्श को ढकने तथा दीवारों और दरवाजों को बनाने के लिए बांस के चपटे किए गए तनों से निर्मित बोर्ड का प्रयोग किया जाता है। दोनों बरामदों की फर्श या तो समग्र बांस से अथवा साथ-साथ रखे गए लंबवत अर्द्धांशों से बनाए जाते हैं और फर्श के नीचे शहतीर के ढांचे से जुड़े रहते हैं। एक एकल लकड़ी का टुकड़ा, जो सांचेदार होता है, घर के सामने की ओर छोटी सीढ़ी बनता है।
त्रिपुरा के खेत/घर की चारदीवारें
त्रिपुरा के खेत की चारदीवारें
त्रिपुरा के मैदानों में देखी जाने वाली सामान्यन खुले खेत की चारदीवारें बांस के लंबवत चीरों से बनी होती हैं जहां अंतर्ग्रथन क्षैतिज तथा शीर्षवत ढांचे अच्छीा तरह से स्थित होते हैं। सामग्रियों के किफायती उपयोग के साथ एक सुदृढ़ ढांचा प्राप्तथ करने के लिए समग्र बांस के संयोजनों, लंबवत अर्द्धांशों , चतुर्थांशों तथा छोटे आयामों के चीरों वुग इस्ते़माल किया जाता है। उपयुक्ति लंबाई के कटे हुए बांस के तनों को जमीन में कसा जाता है तथा खंभों के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इन्हेंत दूर-दूर स्थित किया जाता है और खंभों के बीच लंबवत अर्द्धांशों के क्षैतिज ढांचों को रखा जाता है। ये या तो ढांचों से कसकर बांधे जा सकते हैं अथवा गर्तिका संधि के जरिए जुड़े होते हैं जहां क्षैतिज ढांचा खंभे में काटकर बनाए गए छिद्र से होकर इसके आर-पार जाता है।
ढांचों के एक साथ मिले रहने से बांधने की आवश्यधकता भी होती है, इस प्रकार श्रम की बचत होती है तथा बांधने के किसी विशेष सामग्री के प्रयोग से बचा जाता है। जब बांधने का कार्य किया जाता है तो बेंत के चीरों, तार की लंबाई या स्थाशनीय रूप से उपलब्ध कुछ तंतु रस्सेा का उपयोग किया जाता है। तंतुदार रस्सेो बनाने के लिए बांस के मोड़े गए चीरों का भी उपयोग बांधने की सामग्री के रूप में किया जाता है।
घर की चारदीवारें
त्रिपुरा के मैदानों में घरों के चारों ओर चारदीवारी में बांस के 50 से 75 मिमी व्याेस के तनों को चपटा करके बनाए गए बांस के बोर्ड का इस्तेरमाल किया जाता है। चारदीवारें अवरूद्ध तरह की होती हैं जिनमें बोर्ड बिना किसी खाली स्थाानों के एक साथ संघटित संकुलित बुने हुए होते हैं। सादी बुनावट, ट्वील बुनावट तथा यदा-कदा टि्वल पैटर्न की सजावटी विविधता का प्रयोग किया जाता है। प्राय: ये चारदीवारें मानव की ऊंचाई से ऊपर तक विस्तृ त होती हैं। चारदीवार को जमीन में स्थित किए गए बांस के समग्र ढांचों द्वारा सहारा दिया जाता है तथा इन्हेंव यथा आवश्योक रूप से दूर-दूर रखा जाता है। इन चारदीवारों को बनाने में अत्यरधिक सावधानी बरती जाती है।
टोकरियां
बांस तथा बेंत विपणन टोकरी, त्रिपुरा
खुली बुनावट की सामान ढोने वाली टोकरियां
जमातिया ईंधन टोकरी
त्रिपुरा के जमातिया द्वारा टोकरी का इस्तेमाल ईंधन की लकड़ी ढोने के लिए किया जाता है। यह पूरी तरह से बांस के बाहरी चीरे से बनी होती है जो करीब 7 मिमी चौड़ा तथा 1.5 मिमी मोटा होता है। इस टोकरी का 330 मिमी विकर्ण का वर्गाकार आधार, 390 मिमी व्यास का किनारा तथा 540 मिमी की ऊंचाई होती है। वर्गाकार आधार के ऊपर इसके सिरे बाहर की ओर किनारे में फैलने से पूर्व धीरे-धीरे संकीर्ण होते हुए कटि में बदल जाते हैं।
बंद बुनावट की सामान ढोने वाली टोकरियां
रियांग की सामान ढोने वाली टोकरियां
यह त्रिपुरा के रियांग जनजाति द्वारा अनाजों को ढोने तथा सामान्य-प्रयोजन के क्रय-विक्रय हेतु प्रयुक्त की जाने वाली बंद-बुनावट की टोकरी होती है। पुरूष तथा महिलाएं दोनों इस टोकरी का इस्तेमाल करती हैं; हालांकि प्रत्येक मामले में आकार अलग-अलग हो सकते हैं। वैसे महिला की टोकरी अपेक्षाकृत छोटी होती है। यह बांस के चीरे से बनी होती है जबकि बंधन संबंधी कार्य में बेंत के चीरे की थोड़ी मात्रा प्रयुक्त की जाती है।
इस टोकरी का 340 मिमी विकर्ण का वर्गाकार आधार होता है और इसके सिरे किनारे की ओर फैल जाते हैं। किनारे का व्यास 480 मिमी होता है तथा इस टोकरी की ऊंचाई 470 मिमी होती है। टोकरी का आधार टि्वल पैटर्न में बुना होता है।
सामान ढोने की कम गहरी टोकरियां
(i) अगरतला की टुकड़ी: त्रिपुरा के बंगालियों द्वारा कम गहरी टोकरी का उपयोग किया जाता है। इस टोकरी का वर्गाकार आधार होता है तथा इसके सिरे तीक्ष्ण रूप से फैलते हुए एक वृहत चक्रीय किनारे बन जाते हैं। वर्गाकार भाग के कोने उतने नुकीले नहीं होते हैं और वर्गाकार आधार बिलकुल चपटा होता है। अगरतला की टुकड़ी के किनारे का व्यास 390 मिमी होता है और वर्गाकार आधार के विकर्ण का माप 220 मिमी होता है। इस टोकरी की ऊंचाई 150 मिमी होती है।
(ii) कारावाला टुकड़ी: कारावाला टुकड़ी त्रिपुरा का बंगाली उत्पाद है। यह बनावट में अगरतला के टुकड़ी के सदृश होता है सिवाय इस अपवाद के कि चार मजबूत हैंडल इस टोकरी से जुड़े होते हैं। कारावाला टुकड़ी का इस्तेमाल निर्माण सामग्री की ढुलाई के लिए किया जाता है। यह टोकरी बांस के चीरे से बनी होती है जबकि इसके हैंडल बेंत के चीरे से बने होते हैं। इसका 210 मिमी विकर्ण का वर्गाकार आधार होता है और इसके किनारे तेजी से फैलते हुए 425 मिमी व्यास के चक्रीय किनारे में बदल जाते हैं। हैंडल को छोड़कर इस टोकरी की ऊंचाई 170 मिमी होती है। हैंडल को कारा कहते हैं जो बेंत के मजबूत चीरों के जोड़े का उपयोग करते हुए बनाया जाता है।
(iii) लाई: लाई एक छोटी टोकरी होती है जो त्रिपुरा के बंगालियों द्वारा चावल धोने के लिए प्रयुक्त की जाती है। इसका 220 मिमी विकर्ण का वर्गाकार आधार होता है और इसके किनारे बाहर की ओर फैलते हुए 320 मिमी व्यास के चक्रीय किनारे में बदल जाते हैं। इस टोकरी की ऊंचाई 140 मिमी होती है। बांस के अंतराफलक के चौड़े चीरों से निर्मित ताने के तत्वों के दो सेट आधार को वर्गाकार बनाते हैं। बाना (वेफ्ट) एक डबल-स्टार्ट कुंडली होती है जो ताने को 2-अफ 2-डाउन टि्वल ढांचे में बांधती है। इसके किनारे को बेंत के चीरे के बंधन द्वारा बुने गए सिरे के भीतरी सतह से बंधे हुए बांस के चीरे के एकल वलय द्वारा सुदृढ़ किया जाता है।
लघु भंडारण टोकरियां
(i) सेम्पा खड़ी: सेम्पा खड़ी एक छोटी टोकरी होती है जिसका आकार वर्गाकार-आधार वाली प्रिज्म की तरह होता है और इसका उपयोग त्रिपुरा के बंगालियों द्वारा छोटी-छोटी वस्तुओं को रखने के लिए किया जाता है। इस टोकरी की ऊंचाई 65 मिमी होती है। इसे विकर्णीय बुनावट विधि का इस्तेमाल करके बांस के खुरदुरे भीतरी चीरों से बुना जाता है।
(ii) त्रिपुरा की खजूर की टोकरी: इस टोकरी का उपयोग खजूर रखने के लिए किया जाता है तथा इसे कमरबंध के नीचे लटकते हुए ले जाया जाता है। इसे विकर्णीय-बुनावट विधि का इस्तेमाल करके बांस के भीतरी खुरदुरे चीरों से बुना जाता है। इसका आकार गहरी आयताकार थैली जो ऊपर की ओर खुली हो, के समान होता है। इसका आधार एक सीधी रेखा होती है जिससे इसके किनारे बाहर की ओर उभरे हुए होते हैं।
अन्य कार्यों के लिए छोटी टोकरियां
(i) तुरी: तुरी एक छोटी अर्ध-गोलाकार टोकरी होती है जो बांस से बनी होती है और त्रिपुरा के बंगालियों द्वारा मुरमुरे चावल रखने के लिए प्रयुक्त होती है। इसका व्यास 170 मिमी होता है और इसकी ऊंचाई 80 मिमी होती है। इसके किनारे को बांस के मोटे चीरों द्वारा निर्मित वलयों के बीच रखकर सुदृढ़ किया जाता है और इसके किनारे को बेंत के चीरे के बंधन का उपयोग करके सजावटी तरीके से बांधा जाता है।
(ii) मवेशी के नालमुख: त्रिपुरा के मैदानों के बांस से बुने हुए नालमुखों का इस्तेमाल मवेशियों को चावल के खेतों में चरने से रोकने के लिए किया जाता है। इन्हें अनेक तरह की निर्माण विधियों का इस्तेमाल करके तश्तरी की आकृति वाली टोकरियों की तरह बुना जाता है। इसमें बांस के चौड़े चीरे होते हैं जो ताना बनाते हैं जिन्हें निचले भाग पर अरीय ढंग से अतिव्यापन करने के लिए व्यवस्थित किया जाता है। बाना में बांस के एक साथ लिए गए तीन चीरों का उपयोग किया जाता है और इन्हें मोड़ा जाता है ताकि मोड़ों के बीच ताना के सामान को संभालकर रखा जा सके क्योंकि यह सिरे के चारों ओर तेजी से बढ़ता है। किनारा आत्म-सुदृढ होता है।
बड़ी भंडारण टोकरियां
(i) त्रिपुरा की अनाज भंडारण टोकरी: त्रिपुरा में अनाज टोकरी का बड़ा वर्गाकार आधार होता है जिसके सिरे बड़े चक्रीय किनारे की ओर पतले होते जाते हैं। ये टोकरियां पेशेवर शिल्पकार द्वारा बनाई जाती हैं और साप्ताहिक बाजारों में बेची जाती हैं। उन्हें अनाज रखने के लिए प्रयुक्त किए जाने से पहले गाय के गोबर चिकनी मिट्टी तथा चावल के भूसे के मिश्रण से लेपा जाता है।
त्रिपुरा का मुदाह : त्रिपुरा का मुदाह बांस तथा बेंत के चीरे से बनी हुई कम ऊंचाई की मेज होती है। बांस का उपयोग ढांचे तथा किनारे की संरचना में किया जाता है, जबकि बेंत के चीरे का उपयोग सभी सामानों को बांधने और सीट के बुनावट में किया जाता है। मुदाह के ढांचे की संरचना बहुत भारी सामान को सहारा देने के लिए अपेक्षाकृत पतले अंगों के प्रयोग के लिए किया जाता है। ऐसा अत्यधिक पतले अंगों जो एक-दूसरे को सहारा दे रहे हों, की सहायता से किया जाता है। विस्तृत बंधन कार्य मुदाह को मजबूती प्रदान करता है और सजावटी बुनाई का उपयोग सीट तथा किनारे के आवरण में किया जाता है।
मछली पकड़ने का जाल तथा मछली की टोकरी
(i) सुधा: यह त्रिपुरा के जमातिया जनजाति द्वारा प्रयुक्त किया जाने वाले मछली पकड़ने का जाल होता है। यह मुख्यत: आरी-तिरछी खपाची से लटकाया हुआ एक जाल होता है और इसे दोनों हाथों से पकड़ा जाता है ताकि जाल का अग्रभाग इसके ढांचे की ओर और जल के प्रवाह के विरूद्ध प्रवृत्त हो। जाल में तैरकर आने वाली मछलियों को पानी से बाहर निकाल लिया जाता है और टोकरी में रख दिया जाता है।
यह जाल एक ओपन-टि्वल बुनावट से बुना हुआ बांस का आयाताकार ठाट होता है। ठाट के अधिक लंबे किनारों को खपाची के जोड़ों के बीच संभाले रखा जाता है और ये एक ओर ठाट के बाहर तक विस्तृत होते हैं। खपाचियों को लगभग 30 अंश के कोण पर आरा-तिरछा रखा जाता है और क्रॉस की छोटी भुजाएं मूठ (हैंडल) बनती हैं।
(ii) डल्ला: यह वर्गाकार आधार के साथ त्रिपुरा की मछली की टोकरी होती है और इसे बांस की पंद्रह पटिटयों जिनमें से 7 एक दिशा में और 8 उनके समकोणों पर होती हैं, से खुली टोकरी बुनावट से बुनी हुई होती है। ये पट्टियां आधार की सभी दिशाओं से बाहर की ओर विस्तृत होती है जिससे कि उन्हें टोकरी के ढांचे के लिए खूंटियां बनाने हेतु मोड़ा जा सके। खुंटियों के बीच की दूरी अपेक्षित आकार के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। इस टोकरी की टोटी पतली होती है।
पठला: त्रिपुरा का पठला बारिश से बचाव की युक्ति है। इसके शीर्ष शंकु का आधार 230 मिमी है जिसकी ऊंचाई 110 मिमी है और वृत्ताकार शेड जो थोड़ा नीचे की ओर प्रवृत्त होता है, का व्यास 550 मिमी होता है। पांच तत्वों से निर्मित एक पंचभुज, जिनमें से प्रत्येक में बांस की तीन-तीन पटिटयां होती हैं, शंकु के शीर्ष को घेरे रहता है। शंकु पर उत्तरवर्ती षटभुज भी प्रत्येक तत्व की तीन-तीन पट्टियों से बना होता है। बांस की पांच चौड़ी आपस में गूंथी हुई पट्टियाँ शंकु के शीर्ष को सुदृढ़ करती हैं। इन पट्टियों को शंकु पर की बुनावट में डालकर उनके स्थान पर स्थिर किया जाता है।
विविध उत्पादें
(i) जानवरों की बुनी हुई आकृतियां: अगरतला में, कुछ शिल्प कार बांस की बारीक खपाचियों से जानवरों की बुनी हुई छोटी आकृतियां बनाते हैं। वे खिलौनों तथा सजावटी वस्तु ओं दोनों के रूप में अभिप्रेत होते हैं। ये आकृतियां बारीक खपाचियों को समान रूप से बुनकर अथवा गूंथकर तैयार की जाती हैं।
(ii) त्रिपुरा की बांस की सीटियां: बांस की छोटी सीटियां छोटे व्यालस के तने के भागों से बनाई जाती हैं। मुख्यर नली की एक ओर एक गांठ होती है जो पतली होती हुई उस गांठ के निकट एक छोटे छिद्र को भेदने से पूर्व शंकु बनाती है, शंकुदार सिरे पर एक छोटे समग्र तने का उपयोग करते हुए माउथ-पीस लगाया जाता है और मुख्य नली में छिद्र के ऊपर हवा आने के लिए एक छोटा रिक्तस स्थाउन छोड़ा जाता है। सीटी बजाने पर कर्णभेदी आवाज निकलती है।
धूम्रपान पाइप
रियांग हुक्का
त्रिपुरा की रियांग जनजाति के लोग तंबाकू पीने के लिए एक बड़े हुक्के का प्रयोग करते हैं। यह तीन भागों से बना होता है। मिटटी का कटोरा बांस की छोटी नली से बांस के जलपात्र से जुड़ा होता है। जलपात्र का भाग अत्यधिक व्यास का समग्र तना होता है और इसके लंबाई वाले भाग के दो आंतरिक गांठ होते हैं। मुख्य केंद्रक मध्यपद हट जाता है जबकि निम्नतर गांठ जलपात्र बनने के लिए प्रतिधारित किया जाता है। छोटे व्यास के बांस से निर्मित बांस की छोटी नली पात्र के भीतर से हो करके जलस्तर के नीचे तक जाती है। दूसरी ओर, दूसरा सिरा मिट्टी के कटोरे में मिलता है जिसमें तंबाकू को जलाया जाता है।
हुक्का पीते समय रियांग जनजात के लोग पात्र के खुले सिरे पर अपने हाथ रखते हैं और अपने हाथ तथा खुले छिद्र के सिरे के बीच एक खाली स्थान छोड़ते हैं। घूम जो पहले पात्र के भीतर रखे गए पानी से होते हुए गुजरता है खींचने के लिए इस खाली स्थान पर मुंह रखा जाता है।