Kalakosa
कुमारजीवा: दर्शनिक और भविष्य द्रष्टा” 3-5 फरवरी, 2011 को अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी और प्रदर्शनी
संकल्पना नोट
बौद्ध विद्वानों जिन्होंने भारत से चीन और चीन से भारत की यात्रा की है, ने क्लासिकी युग में चीन-भारत के सांस्कृतिक संबंधों के उद्भव में योगदान दिया है। क्लासिकी युग में चीन-भारत के सांस्कृतिक-संबंधों के उद्भव होने में योगदान दिया है। उन्होंने न केवल बौद्ध धर्म के प्रसार में योगदान दिया वरन मध्य एशिया और चीन की भारतीय सभ्यता के पथप्रदर्शक के रूप में सामाजिक और आर्थिक संबंधों की समझ में भी योगदान दिया। दुर्भाग्यवश भारत के प्राचीन अभिलेख उनके विषय में मौन है किंतु चीनी और मध्य एशियाई भाषाओं में अनेक दस्तावेज परिरक्षित हैं। प्रस्तावित संगोष्ठी उन महान संतों में से एक-कुमारजीवा के बारे में जानकारी खोजने, मूल्यांकित करने तथा आदान-प्रदान करने का एक प्रयास है।
केवल कुछ ही चीनी अभिलेखों की अब तक खोज की गई है जिनमें चीन में भारतीय संतों के जीवन और रचनाओं का बखान किया गया है। ऐसा एक अभिलेख गाओ सेंग युआन (विख्यात संतों की जीवनियां) हैं तथा एक अन्य महत्वपूर्ण रचना कुआंग हंगमिंग ची (संग चाओं के मृत्युलेख) है। एक विख्यात विद्वान कुमारजीवा था जिसने दीर्घावधिक संपोषित लक्ष्य: बौद्ध धर्म के मूलभाव के प्रचार के साथ राजनैतिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक तथा भाषाई अड़चनों को तोड़ा ।
कुमारजीवा अथवा चीनी भाषा में ज्यु मो लुओ शी, का जन्म कूचा के मध्य एशियाई नगर में हुआ था। वह एक भारतीय ब्राह्म्ण और कूचीन राजकुमारी का पुत्र था। उसके पिता का नाम कुमारायान और उसकी माता का नाम ‘‘जीवा’’ था। जीवा अपने पुत्र की कुशाग्रबुद्धि को साफ तौर पर पहचान सकती थी। उसकी माता ने उसे सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध दार्शनिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण देने का संकल्प लिया। इस तरह कुमारजीवा ने छोटी उम्र में ही वृहत साहित्य अभिधर्म से जानकारी प्राप्त की। जब वह सात वर्ष के थे, उसकी माता बौद्ध संन्यासिन बन गई और उसने अपना जीवन अपनी माता का अनुसरण करते हुए व्यतीत करना तथा कूचा, कश्मीर और काशगढ में विख्यात विद्वानों के मार्गदर्शन में बौद्ध धर्म के सिद्धांत का अध्ययन करना शुरू किया। बीस वर्ष की आयु में उसे कूचा के राजसी दरबार में नियुक्त किया गया। काशगढ़ में वह हीनयान से महायान में रूपांतरित हो गया। वह एक प्रतापी संत था और उत्तरी भारत में उस समय प्रचलित बौद्ध धर्म की विचारधारा के ज्ञान में पूर्णतया दक्ष था। सन 379 ई. में कुमारजीवा की ख्याति चीन में फैल गई और उसे वहां लाने के लिए प्रयास किए गए। फू चियान, पूर्व चीनी सम्राट उसे अपने दरबार में लाने के लिए इतना उत्सुक था, जैसा कि कुछ स्रोतों से पता चलता है, कि उसने कुमारजीवा को चीन लाने के लिए सन 384 ई. में कूचा पर विजय प्राप्त करने के लिए अपना सेनापति लु कुआंग को भेजा। लु कुआंग ने कुमारजीवा को पकड़ लिया और सत्रह वर्षों तक परवर्ती लियांग के पश्चिमी साम्राज्य में बंदी के रूप में रखा, पहले उसे अपमानित किया गया अैर ब्रह्मचर्य की उसकी प्रतिज्ञाओं को तोड़ने के लिए उसे बाध्य किया गया और तत्पश्चात उसे अपने दरबार में एक कर्मचारी के रूप में काम में लिया गया। लंबी अवधि की बंदी-स्थिति से कुमारजीवा को चीनी भाषा को अधिक पूर्णता के साथ सीखने का अवसर प्राप्त हआ।
परवर्ती चीन वंश, याओ कुल कुमारजीवा को चांग-ऊन लाने की जोरदार कोशिश कर रहा था। किंतु लु कुआंग उसे मुक्त करने से इनकार करता रहा। अंतत: एक सेना भेजी गई और कुमारजीवा को शासकों द्वारा गर्मजोशी से स्वागत के साथ सन 402 में चांग-अन लाया गया। शीघ्र ही उसने अनुवाद कार्य अपना जो राज्य द्वारा प्रायोजित था। याओ हशिंग ने उसे ‘‘राष्ट्र के शिक्षक’’ (राजगुरू) की उपाधि अर्पित की। उसने सैंकड़ों संत श्रोतागण के समक्ष चीनी विशेषज्ञों के एक दल की अध्यक्षता की। कुछ वर्षों के भीतर ही उसने करीब 300 खंडों में संस्कृत से 54 पाठों का चीनी में अनुवाद किया।
कुछ महत्वपूर्ण पाठ जिनका श्रेय कुमारजीवा को दिया गया, है: डामंड सूत्र, अमिताभ सूत्र, लोटस सूत्र, विमला कीर्तिनिर्देश सूत्र, मुलामध्यमारिक तथा अष्टशस्त्ररिका-प्रज्ञापरामिता सूत्र।
भारत-चीनी सांस्कृतिक संबंधों तथा अन्य संबंधित मुद्दों के संवर्धन में कुमारजीवा के योगदान का समालोचनात्मक रूप से अध्ययन और मूल्यांकन करने के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने 3 से 5 फरवरी 2011 तक तीन दिनों के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की है। निम्नलिखित उप-विषयों पर शोध-पत्र आमंत्रित किए गए हैं:
- जीवनियां और मौखिक पौराणिक गाथाएं
- चीनी भाषा में अनूदित दार्शनिक पुस्तकें
- मूल संस्कृत पाठ
- कुमारजीवा के जीवन और दर्शन से संबद्ध विषय
कुमारजीवा पर आईजीएनसीए द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी और प्रदर्शनी बहुमूल्य है क्योंकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कृत और चीनी भाषा में उसकी श्रेष्ठता, विद्वता, दक्षता और खास करके धर्माज्ञा के प्रति उसकी श्रद्धा को स्वीकारती है। कुमारजीवा धर्मरक्षा और ह्वेनसांग के साथ-साथ ऐसे महारथी हैं जो अपने विशिष्ट सदगुण द्वारा और बौद्ध धर्म की सूक्ष्म–दार्शनिक पद्धतियों का प्रसार करके श्रेष्ठता अर्जित करते हैं। इस प्रक्रिया की शुरूआत धर्मरक्षा द्वारा की गई थी जो यु-चिह था जिसने कुमारजीवा में अपना पूर्ण विकास प्राप्त किया और ह्वेनसांग में पराकाष्ठा प्राप्त की। कुमारजीवा पूर्वी एशिया में व्यावहारिक बौद्ध धर्म में संकेंद्रित रहा। उसने विशुद्ध, असीम और अकल्पनीय रूपांतरणों का सृजन करके सर्वाधिक प्रामाणिक प्रस्तुतियों के रूप में धार्मिक सूत्रों की मंजूषा विरासत के तौर पर सौंपा है। उसकी रचनाओं के प्रभाव को पूर्वी एशिया में महायान बौद्ध धर्म के लगभग सभी अनुयायी वर्गों/संप्रदायों में अभी भी महसूस किया जा सकता है।
महत्वपूर्ण समय-सीमाएं:
सार की प्रस्तुति: 15 नवंबर, 2010
पूर्ण शोध पत्र की प्रस्तुति: 31 दिसंबर, 2010
सम्मेलन की तारीख: 3-5 फरवरी, 2011
Contact Details:
डॉ. शशिबाला, संगोष्ठी की समन्वयक – 9811841183 drshashibala56@gmail.com
डॉ. अजय कुमार मिश्रा, संगोष्ठी के समन्वयक – 9810214677
कार्यालय : 091+011+23388437
ईमेलl: kujeevaseminar@gmail.com
Venue:
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, 11, मानसिंह रोड, नई दिल्ली-110001