निजी संग्रह

कतिपय सर्वश्रेष्ठ भारतीय विद्वानों एवं कलामर्मज्ञों के निजी संग्रह सहेजने का सौभाग्य, कलानिधि संदर्भ पुस्तकालय को प्राप्त हुआ है। ऐसी दस विभूतियों के संग्रह पुस्तकालय को या तो स्वयं उन्हीं के हाथों या फिर उनके परिवार जनों के सौजन्य से पहले ही प्राप्त हो चुके हैं। इन कलामर्मज्ञों ने ये संग्रह अपने निजी प्रयोग के लिए वर्षों की कड़ी मेहनत से जुटाए हैं; इनमें न केवल पुस्तकें शामिल हैं बल्कि ऐसे कई अन्य कला-रूप शामिल हैं जो अपने आप में अनूठे हैं। इन सभी संग्रहों को अलग-अलग, उपयुक्तम वर्गीकरण में सुरक्षित रखा गया है और इनके समुचित कैटलॉग तैयार किए गए हैं ताकि प्रयोकर्ताओं के लिए ये सुगम हो सकें। ये सभी संग्रह, पुस्तकालय के मैजनीन (बिचले) तल में रखे गए हैं।


pc_skcप्रोफेसर सुनीति कुमार चटर्जी संग्रह
प्रो. सुनीति कुमार चटर्जी (1890-1977) अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भाषाशास्त्री और चोटी के साहित्यकार थे। उन्हें अनेक पुस्तकों की रचना करने एवं असंख्य आलेख तैयार करने का श्रेय प्राप्त है। प्रोफेसर चटर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातक की डिग्री प्राप्तय की। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय तथा फ्रांस के सोबोन विश्वविद्यालय में भारोपीय भाषा-विज्ञान, बांगला भाषा की उत्पत्ति एवं विकास, स्लाव और ऑस्ट्रो-एशियाई भाषा-विज्ञान का अध्ययन एवं शोध कार्य किया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से डी. लिट. की डिग्री प्राप्त की। वे कम से कम तीन दर्जन भाषाओं के ज्ञाता थे; इनमें प्राचीन और आधुनिक भारतीय और विदेशी भाषाएं जैसे संस्कृत, हिन्दी, गोथिक, अवेस्ता, यूनानी, लैटिन, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, इतालवी, सभी दक्षिण भारतीय भाषाएं, भारत की कुछ जनजातीय भाषाएं आदि-आदि शामिल थीं। 1927 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में तुलनात्मक दर्शनशास्त्र के खैरा प्रोफेसर पद सहित उन्होंने अनेक अकादमिक पदों को सुशोभित किया। प्रोफेसर चटर्जी के महान योगदान का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1964 में भाषा-विज्ञान के राष्ट्रीय शोध प्रोफेसर के रूप में प्रतिष्ठित किया। प्रो. चटर्जी को 1956 में भारत सरकार द्वारा गठित संस्कृत आयोग का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की जो साहित्य की ही नहीं, इतिहास की भी धरोहर है। वे 1961 में बंगीय साहित्य परिषद्, कलकत्ता के अध्यक्ष बने और 1968 से 1972 तक वे साहित्य अकादमी के भी अध्यक्ष रहे।

प्रो.चटर्जी ने रबीन्द्रनाथ टैगोर के साथ सुदूर पूर्व के देशों का भ्रमण किया और अपनी रूचिकर बंगाली कृति ‘द्वीपमय भारत’ में उन्हों ने इस क्षेत्र की महान सांस्कृतिक धरोहर के बारे में अपने अनुभव दर्ज किए। वे बंगाली साहित्य, भारत की जनजातीय संस्कृतियों, तथा एशिया की कला एवं संस्कृति के भी विशेषज्ञ थे। अंग्रेजी, बंगाली और हिन्दी में उन्होंने प्रभूत लेखन किया। उनकी उल्लेखनीय कृतियों में से कुछ कृतियां हैं- बांगला भाषा की उत्पत्ति एवं विकास, बांगला भाषावेत्तर भूमिका (बांगला में), भारत संस्कृति, किरात जन संस्कृति, तथा आर्यभाषा और हिन्दी (हिन्दी में)।

प्रोफेसर चटर्जी का अति विशिष्ट एवं बहुमूल्य संग्रह जिसमें 20,000 से अधिक पुस्तकें शामिल हैं, उनके सुपुत्र श्री सुमन चटर्जी ने भारत सरकार के शिक्षा एवं संस्कृति मंत्रालय के कला विभाग को भेंट किया। यह संग्रह आगे चलकर 1986 में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र को सौंप दिया गया।

प्रो. चटर्जी के संग्रह की भाषागत एवं विषयगत व्यांप्तिस, उनकी अध्यवसायी वृत्ति के अनुरूप अति विस्तृत है। इस संग्रह में संस्कृत, अंग्रेजी, बांगला, हिन्दी, तमिल, अरबी, फारसी, अवेस्ता, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी, रूसी और सीरियाई भाषा की पुस्तकें शामिल हैं। इन पुस्तकों के विषय भी बहुत व्यापक हैं जैसे कि वैदिक साहित्य; अवेस्ता, यूनानी और लैटिन साहित्य; कुरान की टीकाएं; और यूनानी, लैटिन, आर्मीनियाई, अरबी व्याकरण व भाषाशास्त्र, इतिहास, कला, संस्कृति आदि पर टीकाएं इसमें शामिल हैं। यद्यपि इनमें से अधिकांश पुस्तकें अत्यधिक दुर्लभ एवं अप्राप्तर हैं फिर भी इनमें से शेष बची पुस्तकें इस प्रकार हैं:

फॅर द्वारा लिखित ‘न्यू टेस्टामेंट’- सीरियाई और होमरकालीन यूनानी भाषा में

रिचर्ड जॉन कुनलिफ द्वारा लिखित ‘ए लेक्सिकोन ऑफ होमरिक डायलेक्ट’

ई. सेनार्ट द्वारा संपादित ‘महावस्तुक अवेदना’

ई.बी. कोवैल और आर.ए. नील द्वारा संपादित ‘दिव्यासवदान’

इस संग्रह में सामान्य संदर्भ सामग्री के रूप में अनेक पुस्तकें और मूल्यवान पंफलेट भी शामिल हैं।
उनके संग्रह का यह दान तीन शर्तों के अधीन किया गया था:

(i) कि संग्रह का नाम ‘प्रोफेसर सुनीति कुमार चटर्जी संग्रह’ रखा जाए

(ii) कि समूचे संग्रह को पुस्तकालय के एक पृथक् खंड में रखा जाए, तथा

(iii) ‘सुनीति कुमार चटर्जी स्मृति व्याख्यान’ शीर्षक से एक स्मृति व्याख्यान-माला शुरू की जाए।
यह उल्लेख करते हुए हमें संतोष का अनुभव हो रहा है कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने ये तीनों शर्तें पूरी कर दी हैं।

प्रोफेसर चटर्जी अपने समय की एक महान विभूति थे। जिसमें प्रमुख हैं उनकी सर्वज्ञान-संपन्नता, फोटोग्राफिक स्मरण-शक्ति। और मानव सभ्यता के बारे में उनकी असीम जिज्ञासा ने उन्हें यह स्था्न दिलाया था। वे सच्चे अर्थों में बहु-ज्ञानी थे। प्रोफेसर चटर्जी पुनर्जागरण-काल की पीढ़ी के ऐसे चमकते सितारे थे जिन्होंने भारतीय बौद्धिक परंपरा को एक नई दिशा प्रदान की।


hazari_prasad_dwivedijiआचार्य डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी संग्रह
हजारी प्रसाद द्विवेदी (1907-1979) यद्यपि संस्कृत, पाली और प्राकृत तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं के पारंपरिक ज्ञान में आकंठ डूबे रहने वाले विद्वान थे लेकिन उनके भाग्य में हमारे अतीत और वर्तमान के बीच महान सेतु-निर्माता बनना लिखा था। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भारतीय सृजनात्मक एवं समालोचनात्मक लेखन में अतुलनीय योगदान किया है। ‘साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ तथा ‘मध्यकालीन धर्म साधना’ जैसी कृतियों ने हिन्दी साहित्य में समालोचना के इतिहास को एक नई दिशा प्रदान की। संस्कृत के अध्येता के रूप में शास्त्रों का गहन अध्ययन करके उन्होंने साहित्यत-शास्त्र का एक नए दृष्टि्कोण से मूल्यांकन किया; उन्हें साहित्य की मूलपाठ परंपरा का महान टीकाकार ठीक ही माना जाता है। कबीर के पुनर्मूल्याकन का श्रेय उन्हीं को जाता है।

एक लेखक के रूप में उनकी रचनात्मकता के दर्शन ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, पुनर्नवा, चारूचंद्रलेख तथा ‘अनामदास का पोथा’ आदि कृतियों में किए जा सकते हैं जिनमें उन्होंने अलग-अलग ऐतिहासिक युगों का अति सूक्ष्म् एवं सुबोध परिवेश और वातावरण रचा है। बोल-चाल की शैली का प्रयोग करते हुए भी वे अपने लेखन में उन मौलिक अवधारणाओं और विचारों को सामने लाने में सफल रहे हैं जो भारतीय परंपरा का प्राणतत्व हैं। उनकी ओजस्विता उनकी रचनाओं के संग्रह में प्रकट हुई है। उनका रचना संग्रह 12 खंडों में प्रकाशित हुआ है।

1940 से 1950 तक वे विश्वभारती में हिन्दी भवन के निदेशक पद पर रहे। शांतिनिकेतन में अपने कार्यकाल के दौरान वे गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के निकट संपर्क में आए। ऐसा माना जाता है कि मानवीय मूल्यों में उनकी अगाध श्रद्धा जो उनकी कृतियों में प्रतिबिंबित होती है, का अंकुरण रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रभाव में ही हुआ था। शांतिनिकेतन में हिंदी का अध्या्पन करते हुए भी वे बंगाली साहित्य की सूक्ष्म-संवेदनाओं, नंदलाल बोस के सूक्ष्मता सौंदर्यबोध, अपनी जड़ों की खोज के प्रति क्षितिमोहन सेन की ललक और गुरूदयाल मलिक के सौम्य लेकिन बेधक हास्य का बोध प्राप्त करने में सफल रहे। वे संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बांगला, पंजाबी और गुजराती सहित अनेक भाषाओं के प्रकांड पंडित थे।
1955 में डॉ. द्विवेदी को भारत सरकार ने प्रथम राजभाषा आयोग का सदस्य नियुक्त किया। 1957 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया और 1960 में उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के अध्यक्ष एवं प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया गया। लगभग सेवानिवृत्ति के समय तक वे इस पद पर बने रहे। आचार्य द्विवेदी को भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी को भी पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ था।

इस प्रतिष्ठित अग्रणी विद्वान का पुस्तकालय भी तदनुरूप ही विशाल है जिसमें 13,000 से अधिक जिल्दें हैं और इसमें संस्कृत, पाली, प्राकृत तथा हिन्दी कृतियों के दुर्लभ संस्करण व आधुनिक भारतीय भाषाओं के बारे में लिखित सृजनात्मक एवं समालोचनात्मक कृतियों के बृहद् संग्रह के साथ-साथ धर्म व दर्शन पर अनेक प्रचलित ग्रंथ शामिल हैं। 1988 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री राजीव गांधी के आवास पर आयोजित एक समारोह में आचार्य द्विवेदी के सुपुत्र डॉ. मुकुंद द्विवेदी ने यह संग्रह इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र को दान में दिया था।


pc_tjsटैगोर जयदेव सिंह संग्रह
टैगोर जयदेव सिंह (1893-1986) एक विख्यात संगीत-विशारद, शास्त्रीय संगीत पारखी, तथा भारतीय दर्शन एवं कश्मीरी शैवमत के महान विद्वान थे। वे बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न थे और उनमें एक दार्शनिक, संस्कृतज्ञ, तथा संगीत-शास्त्राज्ञ का विरल संयोग था। वे डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर में दर्शनशास्त्र एवं अंग्रेजी के व्याख्यापता रहे। 1945 में, उन्हें युवराजदत्त कॉलेज, लखीमपुर खीरी का प्राचार्य नियुक्त किया गया। ऑल इंडिया रेडियो के मुख्य निर्माता (1956-1962) के रूप में उन्होंने शास्त्रीय संगीत के उत्थान में भारी योगदान किया।

टैगोर जयदेव सिंह को 1973 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उनकी असाधारण विद्वातमकता के सम्मान-स्वरूप 1974 में उन्हें पद्म-भूषण से सम्मानित किया गया और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तथा कानपुर विश्वविद्यालय ने डी. लिट. की मानद उपाधि से भी विभूषित किया। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ की ओर से संगीत वाचस्पति पुरस्कार तथा संगीत विद्यापीठ, बम्बई की ओर से सारंगदेव अध्येतावृत्ति सहित उन्हें अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए।

टैगोर जयदेव सिंह ने अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें तीन खंडों में कबीर वांग्मय (संपादन एवं टीका), और ‘प्रत्या भिज्ञहृदय’ नाम से निर्वाण की बौद्ध अवधारणा पर आधारित रचना का अंग्रेजी अनुवाद, भारतीय संगीत का संक्षिप्त इतिहास, विज्ञान-भैरव, और शिव-सूत्र मुख्य हैं।

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र को साहित्यिक दृष्टि से अति मूल्यवान 1,100 जिल्दों का उनका निजी संग्रह का एक भाग प्राप्त हुआ है। यह संग्रह विशेष रूप से सौंदर्य-शास्त्र, शैवमत, दर्शन-शास्त्र, संगीत-शास्त्र और संस्कृत साहित्य जैसे विषयों में समृद्ध है। इनमें से अधिकांश पुस्तकों का प्रकाशन 1890 से 1950 की अवधि में हुआ। उनके संग्रह में शामिल कुछ पुस्तकें इस प्रकार हैं-

जे हेस्टिंग्स द्वारा संपादित ‘द इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रेलिज़न एंड एथिक्स’

‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ बुद्धिज़्म’- लेखक जी.पी.मलालसेखर

‘द डान ऑफ सिविलाइजेशनः इजिप्ट एंड शाल्डाकया’- लेखक जी. मास्पीारो

‘ए क्रिटिकल एक्सपोज़ीशन ऑफ बर्गसन्स’ फिलॉसफी, ए हिस्टोरिकल स्टडी ऑफ इंडियन म्यूजिक’- लेखक रिचर्ड पिशेल

एन.बी. उतगीकर द्वारा लिखित ‘दकन का प्रारंभिक इतिहास’ सहित सर आर.जी. भंडारकर का रचना-संग्रह

ज्ञानेश्वर द्वारा लिखित ‘द सांख्यख सूत्राज ऑफ पंचशिखा एंड अदर एंशिएंट सेजेस’

आर्थर अवालन द्वारा संपादित ‘प्रिंसपल्स ऑफ तंत्रा- द तंत्रतत्व ऑफ श्रीयुत् शिव चन्द्र विद्यार्णव भट्टाचार्य’

टैगोर जयदेव सिंह की पुत्री श्रीमती मंजुश्री सिंह द्वारा इस समृद्ध संग्रह के उदारतापूर्वक किए गए दान के लिए इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र उनका बहुत आभारी है।


pc_mncप्रो. महेश्वतर नियोग संग्रह
प्रो. महेश्वर नियोग (1918-1995) एक पुरातत्वविद्, साहित्य-समालोचक और कवि थे। उन्होंने अपना समस्त जीवन सृजनात्मकता, भारत-विद्या अधिगम एवं अनुसंधान के लिए समर्पित कर दिया। उनकी कृतियों में विषयवस्तु के रूप में समग्र भारत-विद्या के सभी विषय जैसे कि- भाषा एवं इतिहास, शब्दकोश निर्माण एवं वर्तनी, व्याकरण, अश्म लेख एवं मानवजाति-शास्त्र, इतिहास-शास्त्र एवं संतचरित लेखन, ललित कला, चित्रकारी, संगीत, नृत्य एवं नाटक, धर्म एवं लोककथाएं इत्यादि शामिल हैं। उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अपना कॅरियर आरंभ किया। उन्हें अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए जिनमें पद्मश्री (1972), असम साहित्य सभा का दुर्लभ सम्मान-सदस्य महीयान (1978), गुवाहाटी विश्वविद्यालय में मानद प्रोफेसर (1988), असम का संत शंकरदेव पुरस्कार (1988) और संगीत नाटक अकादमी का फेलो (1995) शामिल हैं।

प्रो. नियोग की कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकाशित कृतियां हैं: शंकरदेव तथा उनके पूर्ववर्ती, असम में वैष्णव पंथ और आंदोलन का आरंभिक इतिहास, वैष्णव संगीत में लय, पूर्वोत्तर के धर्म, भावना, प्राच्य रचनावली, असमी नाटक तथा रंगमंच, शंकरदेव का भक्ति रत्नाकर एवं भक्ति की अवधारणा का इतिहास, तथा असम की कला एवं चित्रकला।

यद्पि प्रो. नियोग की अधिकांश कृतियां समालोचना एवं शैक्षिक शोध के बारे में हैं फिर भी वे एक सृजनात्मक कलाकार एवं कवि थे। उदाहरण के लिए उनके दो कविता-संग्रहों ‘मुसाफिरखाना’ (1971) तथा ‘संचारिणी दीपशिखा’ (1978) में घर से बिछोह के प्रति उनकी तड़प के दर्शन होते हैं और इससे उनकी कल्पनाशील अंतर्दृष्टि का पता चलता है। उन्होंने साहित्यिक समालोचना संबंधी तीन पुस्तकें भी लिखीं- ‘असमिया प्रेम गाथा’ (1958), ‘आधुनिक असमी साहित्य’ (1965) तथा ‘असमिया साहित्यकार रूपरेखा’ (1962)।

उनके संग्रह की 2,600 पुस्तकों में असमिया अध्ययनों, असमी इतिहास, असमी नाटक एवं रंगमंच, तथा असम के वैष्णव साहित्य पर आधारित पुस्तकें शामिल हैं। संग्रह में शामिल अधिकांश पुस्तकें असमी और बांगला भाषा में हैं। इस संग्रह की कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें इस प्रकार हैं:

भृगुमुनि कंगयूंग द्वारा लिखित- आंचलिक भाषा बनाम त्रिभाषा

शंकर देव द्वारा लिखित नाटक संग्रह- अंकीय नाट जो सोलह असमिया नाटकों का संकलन है,

सरबेश्वर काकती द्वारा लिखित- प्राचीन असमिया लिपि।

बड़ी संख्या में उनके द्वारा असमी और देवनागरी लिपियों में भोजपत्रों पर लिखी गई पांडुलिपियां भी इस संग्रह का भाग हैं। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र प्रो. नियोग के परिवार, विशेषकर उनके सुपुत्र श्री प्रणवस्वरूप नियोग का कृतज्ञ है कि उन्होंने यह संग्रह 1996 में केन्द्र को दान किया।


pc_kkcकृष्ण कृपलानी संग्रह

कृष्ण कृपलानी (1907-1992) कराची में वकालत करने वाले एक प्रसिद्ध वकील थे जो गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन की ओर आकृष्ट हुए और 1931 में जेल गए। वे गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के निकट सहयोगी थे। 1933 में वे टैगोर के विश्वभारती विद्यापीठ में पढ़ाने आए और यहां तेरह वर्षों तक कार्य करते रहे।

टैगोर से श्री कृष्ण कृपलानी का गहरा लगाव होने और सम्पूर्ण गांधी युग, नेहरू युग और बाद के समय की परिस्थितियों और मनोभावनाओं के प्रति उनके सहज-बोध से वे एक अद्वितीय जीवनी-लेखक बन गए थे। इन महापुरुषों और उनकी उपलब्धियों के प्रति अपनी दृष्टि को सामने लाते समय व्यक्ति गत भावनाओं के साथ निस्संकग भाव रखते हुए इनमें ताल-मेल बिठाने में उन्हें महारत हासिल थी।

इ.गाँ.रा.क.के. का सौभाग्य है कि कृष्ण कृपलानी की 860 जिल्दों वाला निजी पुस्तकालय उसे प्राप्त हुआ है। इस संग्रह में अनेक दुर्लभ पुस्तकें शामिल हैं। स्वयं कृष्ण कृपलानी ने ही 1986 में यह संग्रह उदारतापूर्वक केन्द्र को दान किया था। इस संग्रह की कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें निम्नलिखित हैं:

रबींद्र रचनावलीः अचलित संग्रह

सत्येंद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित- आमार बाल्यकथाओ आमार बोम्बई प्रबास

ए. एल. बाशम द्वारा लिखित- ‘द वंडर दैट वॉज़ इंडियाः ए सर्वे ऑफ द कल्चर ऑफ द इंडिया सब-कॉन्टिनेंट बिफोर द कमिंग ऑफ द मुसलिम्स’

कृष्ण कृपलानी द्वारा लिखित- ‘रवीन्द्रनाथ टैगोरः ए बायोग्राफी’,

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित-लोक रहस्य,

ऑल्डमस हक्सले द्वारा रचित- डू वॉट यू विलः बारह निबंध,

निर्मल कुमार बोस द्वारा लिखित- ‘माई डे’ज़ विद गांधी’।


pc_nmcडॉ. वी.के. नारायण मेनन संग्रह
डॉ. वी.के. नारायण मेनन (1911-1997) एक महान लेखक तथा विख्यात संगीतज्ञ थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उन्होंने बीबीसी में काम किया था और 1948 में वे आकाशवाणी में आ गए जहां 1965 में वे महानिदेशक बन गए। संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद के अलावा उन्होंने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के अनेक पदों को सुशोभित किया। संगीत एवं प्रसारण सेवा के क्षेत्र में अपनी उल्लेखनीय सेवा के लिए उन्हें 1969 में पद्मभूषण सम्मान से विभूषित किया गया। हरफनमौला डॉ. मेनन ने विविध विषयों पर अपनी लेखनी चलाई जिसमें डब्ल्यू.बी. यीट्स, केरल तथा संचार क्रांति आदि विषयों पर लिखी पुस्तकें शामिल हैं।

डॉ. मेनन ने संगीत एवं साहित्य की भी अनेक मूल्यवान पुस्तकों का प्रणयन किया। उदाहरण के लिए, तकषी शिवशंकर पिल्लई के मलयाली उपन्यास ‘चेम्मन’ का अंग्रेजी भाषा में उनके द्वारा किया गया अनुवाद, एक उल्लेखनीय साहित्यिक उपलब्धि है। उनके संग्रह की कुछ महत्व पूर्ण पुस्तकें इस प्रकार हैं-

टी.आर. हरिहर शर्मा द्वारा लिखित- द आर्ट ऑफ मृदंगम

‘सांस्कृतिक संपदा का संरक्षण और पुनःस्थापन, पारंपरिक सांस्कृमतिक संपदा का परिरक्षण और विकास’ पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (सं.50)

रागिनी द्वारा रचित- नृत्यांजलिः एन इंट्रोडक्शन टु हिंदू डांसिंग

मेरी लाससेलिस द्वारा लिखित- जेन ऑस्टिन एंड हर आर्ट

फ्रैंक एल.एल. हैरिसन द्वारा लिखित- म्यूजिकोलॉजी

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सौभाग्यशाली है कि उसे यह संग्रह प्राप्त हुआ। उनके इस संग्रह में मलयाली साहित्य की और संगीत विषय पर दुर्लभ पुस्तकों के साथ-साथ अखिल भारतीय संगीत सम्मेलनों व संस्कृ्ति के अन्य क्षेत्रों पर आधारित मूल्यवान रिपोर्टें शामिल हैं। 1,850 जिल्दों वाला उनका संग्रह, उनकी पत्नी श्रीमती रेखा मेनन ने 1999 में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र को उदारतापूर्वक दान में दिया था।


pc_hmcहीरामाणिक संग्रह

श्री नसली हीरामाणिक एक कलाकृति-विक्रेता, संग्राहक, पारखी, कला-उद्यमी एवं कला-संरक्षक थे। बंबई में अपने पालन-पोषण के समय ही उन्होंने अपने पिता से कलाकृतियों का व्यवसाय करना सीख लिया था। उनके पिता भी प्राचीन कलाकृतियों के एक सम्मानित व्यवसायी थे। अपनी पारिवारिक कला-वीथिका के प्रबंधन से अपने कला-व्यवसाय का प्रारंभ करते हुए वे बाद में न्यू यॉर्क जाकर बस गए और वहीं पर अपना व्यवसाय जमा लिया। अपनी पत्नी एलिस के साथ हीरामाणिक ने एशियाई कला-कृतियों का समृद्ध संग्रह तैयार कर लिया। इस संग्रह में भारतीय, नेपाली, तिब्बती और इस्लामी कला-कृतियां शामिल थीं। लगभग 2,500 पुस्तकों वाला उनका समृद्ध संग्रह उनकी पत्नी एलिस हीरामाणिक ने इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र को दान में दिया था। इस संग्रह में एशियाई कला-कृतियां एवं वास्तुशिल्प्, मुद्राशास्त्र एवं मूर्तिकला संबंधी पुस्तकें शामिल हैं।


pc_ldcलांस डेन संग्रह
लेंस डेन एक कला इतिहासज्ञ एवं कलाकृति व्यंवसायी हैं। उन्होंने कला-रूपों के बारे में अनेक आलेख एवं पुस्तकें लिखी हैं और अनेक कला-कृतियां इ.गाँ.रा.क.केन्द्र के अभिलेखागार को दान की हैं।

लांस डेन का निजी संग्रह भी इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र को उपहारस्वरूप दिया गया था, जिसमें भारतीय कला एवं स्थापत्य के बारे में लगभग 5,000 दुर्लभ पुस्तकें शामिल हैं। इसमें मुद्राशास्त्र पर भी अनेक पुस्तकें हैं। इनमें से कुछ पुस्तकों के नाम नीचे दिए जा रहे हैं:

मैरिन जुआन द्वारा लिखित-

चाइनीज़ आर्ट

ओलफ कारू द्वारा लिखित- द पठान्स 500 बी.सी. टु 1957 ए.डी.

ई.जे. रेपसन द्वारा लिखित- इंडिया कॉइन्सि,

लेक्सिकॉन ऑफ ट्रावनकोर इंस्क्रिप्शन


pc_dmcदेव मुरारका संग्रह

भारत में जन्मे देव मुरारका लगभग 30 वर्ष तक रूस में रहे। वे पेशे से पत्रकार थे और उन्होंने भारत और विदेश के विविध समाचारपत्रों के लिए काम किया। मॉस्को में पत्रकार के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने बड़ी संख्या में पुस्तकें व पत्र-पत्रिकाएं अपने लिए जुटा रखी थीं।

देव मुरारका 1993 में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र में पधारे और उसी समय उन्होंने इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की तत्कालीन अकादमिक निदेशक (श्रीमती) कपिला वात्स्यायन के समक्ष यह प्रस्ताव किया कि वे अपना संग्रह केन्द्र को सौंपना चाहते हैं। कुछ माह बीमार रहने के पश्चात् 1998 में उनका स्वर्गवास हो गया।

उनकी मृत्यु के कुछ समय पश्चात् उनकी इच्छानुसार, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने उनकी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं की लगभग 4,500 जिल्दों का संग्रह ग्रहण कर लिया। इस संग्रह में अफगानिस्तान, मध्य पूर्व एवं सोवियत संघ के इतिहास और राजनीति के बारे में लिखित पुस्तकें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं लेकिन इनके साथ-साथ इतिहास, राजनीति साहित्य और संस्कृति संबंधी अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें भी संग्रह में शामिल हैं।


pc_vscविनोद सेना संग्रह
प्रो. विनोद सेना ने ‘टी.एस. इलियट-एक नाटककार के रूप में’ विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद 1970 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उन्होंने ‘डब्ल्यू.बी. यीट्‌स- एक साहित्यिक समालोचक के रूप में’ विषय पर अपनी दूसरी डॉक्टरेट डिग्री ली। वे श्रुति इन्फॉर्मेशन सेंटर के संस्थापक निदेशक और श्रुति वेबसाइट के वैब मास्टर हैं। 1998 से वे दिल्ली विश्वविद्यालय की ‘निशक्तक जन समिति’ के संस्थापक-अध्यक्ष रहे हैं। प्रो. सेना, दिल्ली विश्वविद्यालय से सन् 2000 में अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने अनेक पुस्तकों का लेखन एवं संपादन किया है और शोध जर्नलों के लिए उन्होंंने अनेक आलेख लिखे हैं। उनके संग्रह में निम्नलिखित पुस्तकें शामिल हैं:

‘द पोएट एज़ क्रिटिकः डव्ल्यू.बी.यीट्स ऑन पोइट्री, ड्रामा एंड ट्रेडिशन

‘डव्ल्यू.बी.यीट्सः द पोइट एज़ क्रिटिक’

दर्शन सिंह द्वारा संपादित एवं अनूदित- ‘लव एट एवरी स्टैपः माई कॉनसेप्ट ऑफ पोइट्री’

‘द फायर एंड द रोज़ः न्यू ऐसे’ज़ ऑन टी.एस. इलियट’- राजीव वर्मा के साथ संपादित

‘द ऑटोबायग्राफी ऑफ एन इंडियन मोंक’ (डव्ल्यू.बी.यीट्स द्वारा लिखी प्रस्तासवना के साथ)- संपादक श्री पुरोहित स्वामी

‘लिटरेचर ईस्ट एंड वैस्ट’- जी.आर. तनेजा के साथ संपादित

प्रो. सेना ने 800 जिल्दों वाला अपना संग्रह 2005 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को दान किया है। इस संग्रह में डब्ल्यू.बी.यीट्‌स, टी.एस. इलियट के बारे में अनेक पुस्तकें, बड़ी संख्या में यूरोपीय साहित्यक में उपलब्ध नाटकों के अंग्रेजी अनुवाद, रंगमंच के बारे में कुछ विचारोत्तेजक पुस्तकें, तथा साहित्यिक समालोचना की कुछ महत्त्वपूर्ण एवं अनुपलब्धतर कृतियां शामिल हैं। टी.एस. इलियट की चित्रात्मक जीवनी (जो कभी लिखी न जा सकी) तैयार करने के लिए जो स्लाइडें प्रो. सेना ने कई वर्ष की मेहनत से तैयार की हैं वे कदाचित अपने ढंग का सर्वाधिक विस्तृत कार्य है जो अन्यसत्र उपलब्ध नहीं है।


pc_kvcडॉ. (श्रीमती) कपिला वात्स्यायन संग्रह

1928 में जन्मी डॉ. वात्स्यायन भारतीय शास्त्रीय नृत्य एवं भारतीय कला तथा स्थापत्य की अग्रणी विद्वान हैं। डॉ. वात्स्यायन ने भारत सरकार में अनेक वरिष्ठ पदों पर अपनी सेवाएं दी हैं, जिनमें सचिव, संस्कृति विभाग (मानव संसाधन विकास मंत्रालय) का पद भी शामिल है। वे इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की संस्थापक सदस्य-सचिव हैं और अभी भी इसके न्यासी के रूप में इस केंद्र से जुड़ी हुई हैं। वे संसद् (राज्यसभा) की मनोनीत सदस्या रही हैं। डॉ. वात्स्यायन, दिल्ली, बनारस, फिलाडेल्फिया, कैलिफोर्निया (सांता क्रूज) इत्यादि विश्वविद्यालयों की संकाय सदस्य भी रही हैं। उन्होंने अनेक सांस्कृतिक, शैक्षणिक एवं विरासत संस्थाओं, संग्रहालयों, अभिलेखागारों इत्यादि की स्थापना का दायित्व भी निभाया है। उन्होंने कला-इतिहास, शिक्षा, संस्कृत, बौद्ध एवं पाली अध्ययनों संबंधी शैक्षिक कार्यक्रमों हेतु नीतिगत रूपरेखा निर्धारण का भी नेतृत्व किया है। वे भारतीय-अमेरिकी संग्रहालय उप-समिति की सचिव भी रही हैं और अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संबंधों के क्षेत्र में विगत 5 दशकों से सक्रिय रही हैं। डॉ. वात्स्यायन ने 15 से अधिक पुस्तकें तथा अनेक शोधपत्र लिखे हैं और उन्हें अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए हैं।

उन्होंने पुस्तकों, अनेक जर्नलों और चित्रों की 6,000 जिल्दों वाला अपना निजी पुस्तकालय इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र को 2007 में दान कर दिया। भारतीय नृत्य, कला एवं स्थापत्य, संस्कृति तथा साहित्य पर अनेक मूल्यवान कला-कृतियां इस संग्रह में शामिल हैं।


pc_mcjcमुनीश चंद्र जोशी संग्रह
श्री मुनीश चन्द्र जोशी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व महा-निदेशक थे। 1993 से 2000 तक वे इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के सदस्य-सचिव भी रहे। मूल स्रोतों में उनकी दिलचस्पी और इतिहास के बारे में उनकी गहरी समझ से तथा संस्कृत, पाली, एवं अन्य भाषाओं के ज्ञान से वे स्मारकों, पुरातात्विक वस्तुओं, और कला-कृतियों के साथ बड़ी ही यथार्थपरक रीति से जुड़ जाते थे। भारत के अलग-अलग हिस्सों में उन्होंने कई बृहद् पुरातात्विक अन्वेषण कराए और ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई भी कराई। कला और स्थापत्य के क्षेत्रों में उनकी महती सेवाओं को देखते हुए एशियाटिक सोसाइटी ने श्री जोशी को मरणोपरांत ‘आर.पी. चंदा सेंटिनरी मेडल’ से सम्मानित किया। 1162 पुस्तकों के उनके संग्रह में धर्मों, भारतीय कला, मुद्रा-शास्त्रि, स्मारकों, मंदिर स्थापत्यकला, पुरातत्व, शिलालेखों और भारतीय एवं विदेशी संग्रहालयों के कैटलॉगों के बारे में सामग्री शामिल है। भिन्न-भिन्न पुरातात्विक स्थलों के 5000 फोटोग्राफ एवं 300 स्लाइडें भी उनके संग्रह में शामिल हैं जो अप्रैल, 2011 में उनके पुत्र श्री प्रतीक जोशी ने इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र को उदारतापूर्वक दान कर दीं।