Adi Drishya Department
‘आदि-दृश्य’ पर प्रदर्शनी
संस्कृत शब्द ‘आदि दृश्य’ का अभिप्राय ‘आदि’ शब्द की बहु-विधि व्याख्या से है। इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने ‘आदि दृश्य’ प्रदर्शनी की कल्पना की है जिसमें दर्शकों के लिए प्रागैतिहासिक कला के साथ अनुभूति-परक संपर्क की भाव-भूमि रची जाएगी। इस प्रदर्शनी से मानव-मात्र की जीवंत कलाओं के परिवर्तनशील पक्षों में प्रवेश का आधार तैयार होगा। ऐसा विश्वास है कि अपने आस-पास की दुनियां के बारे में मनुष्य को जो ज्ञान हुआ, वह उसकी दृष्टि-इन्द्रि और उसकी श्रवण-इन्द्रि के आदि-बोध के माध्यम से हुआ। प्रागैतिहासिक अतीत में और समकालीन संस्कृतियों में भी इन दोनों ज्ञानेन्द्रियों ने कलाकारों की दृष्टि-जन्य और श्रवण-जन्य अभिव्यक्तियों को उत्प्रेरित किया है। अपनी दृष्टि–क्षमता के माध्यम से अन्वेषण करते हुए हम विश्व का ऐसा रूप-संसार रच सकते हैं जिसका अस्तित्व अब लगभग समाप्त हो चला है और इस प्रकार रचित उस रूप-संसार की सहायता से उस जीवन-शैली का अनुमान लगाने का प्रयास कर सकते हैं जो आज की दुनियां में मौजूद तो है लेकिन उसके स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया है। इसके अलावा इस प्रदर्शनी में इस बात पर भी बल दिया जाएगा कि दर्शक के हृदय में तत्कालीन भौतिक एवं पर्यावरणीय प्रतिवेश में काल की अवधारणा के साथ-साथ समस्त मानवमात्र के लिए समान रूप से आवश्यक अपरिवर्तनशील शारीरिक एवं अभौतिक जरूरतों की अवधारणा, क्रमिक विकास के ताने-बाने में अतीत और वर्तमान को परस्पर जोड़े बिना भी स्पष्ट हो जाए।
स्वरूप की विविधता और समय की बहु-विध संकल्पना को ध्यान में रखते हुए इसका कोई औचित्य नज़र नहीं आता कि शैल कला को समय की क्रमिक व्यवस्था के संदर्भ में परखा जाए जिसमें उसे इतिहास के निश्चित काल-क्रम से बांध दिया जाता है। संकल्पना के तौर पर यह प्रदर्शनी उन सार्वभौमिक पक्षों को उजागर करने का प्रयास करेगी जो प्रागैतिहासिक काल में पल रही भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में उपस्थित थे। आशय यह है कि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के कला-रूपों को एक दूसरे के अगल-बगल रखकर यह दर्शाया जा सकता है कि मानस-दर्शन की इस प्रणाली में ऐसे सार्वभौमिक आयाम मौजूद हैं जिनकी प्रचुर प्रासंगिकता आज के समय में है। सच तो यह है कि हमारा प्रयास भारतीय जनों के हृदय में अतीत की हमारी विरासत और इसके सातत्य के प्रति महत्तर समझ विकसित करने का होगा।
प्रागैतिहासिक शैल कला की व्याख्या अलग-अलग सैद्धांतिक दृष्टिकोणों से की गई है जो आम तौर पर ‘आदिम मनोभाव’ के अस्पष्ट एवं भ्रमपूर्ण विचारों पर आधारित हैं। यह मान लिया जाता है कि आदिम मानव के अंदर ‘गंभीर सौंदर्य बोध’ और ‘उच्चतम नैतिक एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता’ का अभाव था। क्रमिक विकास की अवधारणा के अनुरूप ही- मानवीय संज्ञानात्मक विकास के विचारों और भाषा के क्रमिक उद्भव की प्रक्रिया पर विमर्श करते हुए ‘कला के उद्भव’ के संबंध में ‘वैज्ञानिक’ दावे किए जाते हैं। लेकिन हमें इस तथ्य को नज़रों से ओझल नहीं होने देना चाहिए कि पुरातन विश्व में जीवनशैली पर ‘ब्रह्मांड-केन्द्रक’ दृष्टि हावी थी। शैल कला के चितेरों और उपनिषदीय दर्शन के प्रतिपादक ऋषियों ने भी ब्रह्मांड और उसमें मानव की स्थिति के संबध में अपनी यही प्रतीति प्रकट की है। दोनों ही ब्रह्मांड को पावन कला-कृति के रूप में देखते हैं। यह हर्ष का विषय है कि पुरातन भारतीय कला-सिद्धांत ग्रंथों में किया गया प्रतिपादन उस संदर्भ से मेल खाता है जिसे आज हम आदिम कला के रूप में जानते हैं। शैल कला का मूलभूत अन्तर्बोध, मूलभाव और शैलियां उनकी कला-कृतियों में सतत् रूप से मौजूद हैं।
प्रागैतिहासिक शैल कला-रूपों, डिज़ाइनों, रंगों और संकल्पनाओं की महत्ता से संभवत: हमारे पारंपरिक तौर-तरीकों की ओजस्विता को मजबूती मिलती है और इनमें हमारा विश्वास बढ़ता जाता है। इन तत्वों जो संभवत: सभी कला-रूपों के मूल में हैं, से कलामर्मज्ञों को अपनी संकल्पनाओं और परंपराओं की सजीव कल्पना करने में सुविधा होती है। परंपरागत दर्शन में उद्भवशील समकालीन कला की ओजस्विता प्रकट होती है। आदिवासी कला प्रसंगों से सादृश्य स्थापित करते हुए हम बहुत आसानी से यह कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक काल के लोगों ने प्रकृति की संकल्पना अपने कला-रूपों में कर ली होगी और बेहतर जीवन के लिए वे अपने अधिष्ठाता देवी-देवताओं और शक्तियों की आराधना किया करते थे। कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए लोगों को विवश एवं प्रेरित करने के मूल में जो आवेग था, उसका प्रयोजन उपभोग का था जिसमें आहार की अनवरत आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए दयालु जादुई शक्तियों का आह्वान किया जाता था। शैलाश्रय निवासियों का मुख्य आहार था- आखेट के पशु और यह आखेट नियमित तौर पर किया जाता था। पशुओं का चित्रण करने में शैलाश्रय निवासियों का संभवत: यह विश्वास था कि ऐसा करने से उन्हें आखेट में सफलता मिलेगी, और भरपूर संख्या में वहां जंगली जानवर विचरण करेंगे और जब वे आखेट पर जाएंगे तो ये जंगली जानवर उनके हथियारों का निशाना बन जाया करेंगे। इस प्रकार से प्रागैतिहासिक शैल कला एक प्रकार से जादुई-धार्मिक रूप गृहण कर लेती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि भालों से बिंधे हुए बारहसिंगों का चित्रण शैलाश्रयों में करने से सफलता के जादुई आह्वान का उद्देश्य भी पूरा होता था क्योंकि अनेक आदिवासी समूह अभी भी बुरी शक्तियों के प्रतीकात्मक पुतले बनाते हैं और उत्सवपूर्वक उनका शिरोच्छेद करते हैं।
इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा किए गए प्रलेखनों और अवाप्तियों के आधार पर प्रस्तावित प्रदर्शनी से शैल कला के अवधि-निर्धारण की समस्या का तो समाधान न होगा क्योंकि अवधि-निर्धारण का काम विवादों से भरा है। इसके अलावा शैल कला का व्यापक संदर्शन भी हमेशा कोई सरल काम सिद्ध नहीं होता क्योंकि समय गुज़रने के साथ इसमें एक छवि पर दूसरी छवि का चित्रण होने, संयुक्त जुड़ावों की और संज्ञानात्मक संचयन की समस्याएं खड़ी हो गई हैं। इसलिए प्रदर्शनी का प्रमुख बल आदिम मानव के सामाजिक रिवाज़ों और जीवन-शैली पर तथा शैल कला चित्रणों के क्षेत्रीय अंतरों पर रहेगा। स्वदेशी जीवंत कला परंपराओं का प्रदर्शन भी इस प्रदर्शनी का हिस्सा होगा।
प्रस्तावित प्रदर्शनी में एक खंड भारत की शैला कला के लिए होगा और वह खंड मुख्य तौर पर इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा पहले ही किए जा चुके प्रलेखनों और अवाप्तियों पर आधारित होगा। इस खंड में आदिम मानव के सामाजिक रिवाज़ों और जीवन-शैली पर तथा शैल कला चित्रणों के क्षेत्रीय अंतरों पर बल दिया जाएगा। प्रदर्शनी के इसी खंड के एक पृथक् हिस्से में सौरा (ओडिशा), वरली (महाराष्ट्र) और राठवा (गुजरात) समुदायों की स्वदेशी जीवंत कला परंपराओं का प्रदर्शन किया जाएगा। शैल कला प्रदर्शनी के अंतरराष्ट्रीय खंड का मुख्य आधार प्रतिनिधियों से संग्रहीत किए गए फोटोग्राफ होंगे। इस के लिए अनुमति हमें मिल गई है। इस प्रदर्शनी की रूप-रेखा/प्रदर्शन में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली का सहयोग मिल रहा है। प्रदर्शनी की तैयारी पर काम चल रहा है। इस अवसर पर एक प्रदर्शनी कैटलॉग भी प्रकाशित किया जाएगा।
‘आदि-दृश्य’ पर प्रदर्शनी
संस्कृत शब्द ‘आदि दृश्य’ का अभिप्राय ‘आदि’ शब्द की बहु-विधि व्याख्या से है। इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने ‘आदि दृश्य’ प्रदर्शनी की कल्पना की है जिसमें दर्शकों के लिए प्रागैतिहासिक कला के साथ अनुभूति-परक संपर्क की भाव-भूमि रची जाएगी। इस प्रदर्शनी से मानव-मात्र की जीवंत कलाओं के परिवर्तनशील पक्षों में प्रवेश का आधार तैयार होगा। ऐसा विश्वास है कि अपने आस-पास की दुनियां के बारे में मनुष्य को जो ज्ञान हुआ, वह उसकी दृष्टि-इन्द्रि और उसकी श्रवण-इन्द्रि के आदि-बोध के माध्यम से हुआ। प्रागैतिहासिक अतीत में और समकालीन संस्कृतियों में भी इन दोनों ज्ञानेन्द्रियों ने कलाकारों की दृष्टि-जन्य और श्रवण-जन्य अभिव्यक्तियों को उत्प्रेरित किया है। अपनी दृष्टि–क्षमता के माध्यम से अन्वेषण करते हुए हम विश्व का ऐसा रूप-संसार रच सकते हैं जिसका अस्तित्व अब लगभग समाप्त हो चला है और इस प्रकार रचित उस रूप-संसार की सहायता से उस जीवन-शैली का अनुमान लगाने का प्रयास कर सकते हैं जो आज की दुनियां में मौजूद तो है लेकिन उसके स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया है। इसके अलावा इस प्रदर्शनी में इस बात पर भी बल दिया जाएगा कि दर्शक के हृदय में तत्कालीन भौतिक एवं पर्यावरणीय प्रतिवेश में काल की अवधारणा के साथ-साथ समस्त मानवमात्र के लिए समान रूप से आवश्यक अपरिवर्तनशील शारीरिक एवं अभौतिक जरूरतों की अवधारणा, क्रमिक विकास के ताने-बाने में अतीत और वर्तमान को परस्पर जोड़े बिना भी स्पष्ट हो जाए।
स्वरूप की विविधता और समय की बहु-विध संकल्पना को ध्यान में रखते हुए इसका कोई औचित्य नज़र नहीं आता कि शैल कला को समय की क्रमिक व्यवस्था के संदर्भ में परखा जाए जिसमें उसे इतिहास के निश्चित काल-क्रम से बांध दिया जाता है। संकल्पना के तौर पर यह प्रदर्शनी उन सार्वभौमिक पक्षों को उजागर करने का प्रयास करेगी जो प्रागैतिहासिक काल में पल रही भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में उपस्थित थे। आशय यह है कि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के कला-रूपों को एक दूसरे के अगल-बगल रखकर यह दर्शाया जा सकता है कि मानस-दर्शन की इस प्रणाली में ऐसे सार्वभौमिक आयाम मौजूद हैं जिनकी प्रचुर प्रासंगिकता आज के समय में है। सच तो यह है कि हमारा प्रयास भारतीय जनों के हृदय में अतीत की हमारी विरासत और इसके सातत्य के प्रति महत्तर समझ विकसित करने का होगा।
प्रागैतिहासिक शैल कला की व्याख्या अलग-अलग सैद्धांतिक दृष्टिकोणों से की गई है जो आम तौर पर ‘आदिम मनोभाव’ के अस्पष्ट एवं भ्रमपूर्ण विचारों पर आधारित हैं। यह मान लिया जाता है कि आदिम मानव के अंदर ‘गंभीर सौंदर्य बोध’ और ‘उच्चतम नैतिक एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता’ का अभाव था। क्रमिक विकास की अवधारणा के अनुरूप ही- मानवीय संज्ञानात्मक विकास के विचारों और भाषा के क्रमिक उद्भव की प्रक्रिया पर विमर्श करते हुए ‘कला के उद्भव’ के संबंध में ‘वैज्ञानिक’ दावे किए जाते हैं। लेकिन हमें इस तथ्य को नज़रों से ओझल नहीं होने देना चाहिए कि पुरातन विश्व में जीवनशैली पर ‘ब्रह्मांड-केन्द्रक’ दृष्टि हावी थी। शैल कला के चितेरों और उपनिषदीय दर्शन के प्रतिपादक ऋषियों ने भी ब्रह्मांड और उसमें मानव की स्थिति के संबध में अपनी यही प्रतीति प्रकट की है। दोनों ही ब्रह्मांड को पावन कला-कृति के रूप में देखते हैं। यह हर्ष का विषय है कि पुरातन भारतीय कला-सिद्धांत ग्रंथों में किया गया प्रतिपादन उस संदर्भ से मेल खाता है जिसे आज हम आदिम कला के रूप में जानते हैं। शैल कला का मूलभूत अन्तर्बोध, मूलभाव और शैलियां उनकी कला-कृतियों में सतत् रूप से मौजूद हैं।
प्रागैतिहासिक शैल कला-रूपों, डिज़ाइनों, रंगों और संकल्पनाओं की महत्ता से संभवत: हमारे पारंपरिक तौर-तरीकों की ओजस्विता को मजबूती मिलती है और इनमें हमारा विश्वास बढ़ता जाता है। इन तत्वों जो संभवत: सभी कला-रूपों के मूल में हैं, से कलामर्मज्ञों को अपनी संकल्पनाओं और परंपराओं की सजीव कल्पना करने में सुविधा होती है। परंपरागत दर्शन में उद्भवशील समकालीन कला की ओजस्विता प्रकट होती है। आदिवासी कला प्रसंगों से सादृश्य स्थापित करते हुए हम बहुत आसानी से यह कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक काल के लोगों ने प्रकृति की संकल्पना अपने कला-रूपों में कर ली होगी और बेहतर जीवन के लिए वे अपने अधिष्ठाता देवी-देवताओं और शक्तियों की आराधना किया करते थे। कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए लोगों को विवश एवं प्रेरित करने के मूल में जो आवेग था, उसका प्रयोजन उपभोग का था जिसमें आहार की अनवरत आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए दयालु जादुई शक्तियों का आह्वान किया जाता था। शैलाश्रय निवासियों का मुख्य आहार था- आखेट के पशु और यह आखेट नियमित तौर पर किया जाता था। पशुओं का चित्रण करने में शैलाश्रय निवासियों का संभवत: यह विश्वास था कि ऐसा करने से उन्हें आखेट में सफलता मिलेगी, और भरपूर संख्या में वहां जंगली जानवर विचरण करेंगे और जब वे आखेट पर जाएंगे तो ये जंगली जानवर उनके हथियारों का निशाना बन जाया करेंगे। इस प्रकार से प्रागैतिहासिक शैल कला एक प्रकार से जादुई-धार्मिक रूप गृहण कर लेती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि भालों से बिंधे हुए बारहसिंगों का चित्रण शैलाश्रयों में करने से सफलता के जादुई आह्वान का उद्देश्य भी पूरा होता था क्योंकि अनेक आदिवासी समूह अभी भी बुरी शक्तियों के प्रतीकात्मक पुतले बनाते हैं और उत्सवपूर्वक उनका शिरोच्छेद करते हैं।
इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा किए गए प्रलेखनों और अवाप्तियों के आधार पर प्रस्तावित प्रदर्शनी से शैल कला के अवधि-निर्धारण की समस्या का तो समाधान न होगा क्योंकि अवधि-निर्धारण का काम विवादों से भरा है। इसके अलावा शैल कला का व्यापक संदर्शन भी हमेशा कोई सरल काम सिद्ध नहीं होता क्योंकि समय गुज़रने के साथ इसमें एक छवि पर दूसरी छवि का चित्रण होने, संयुक्त जुड़ावों की और संज्ञानात्मक संचयन की समस्याएं खड़ी हो गई हैं। इसलिए प्रदर्शनी का प्रमुख बल आदिम मानव के सामाजिक रिवाज़ों और जीवन-शैली पर तथा शैल कला चित्रणों के क्षेत्रीय अंतरों पर रहेगा। स्वदेशी जीवंत कला परंपराओं का प्रदर्शन भी इस प्रदर्शनी का हिस्सा होगा।
प्रस्तावित प्रदर्शनी में एक खंड भारत की शैला कला के लिए होगा और वह खंड मुख्य तौर पर इंदिरा गॉंधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा पहले ही किए जा चुके प्रलेखनों और अवाप्तियों पर आधारित होगा। इस खंड में आदिम मानव के सामाजिक रिवाज़ों और जीवन-शैली पर तथा शैल कला चित्रणों के क्षेत्रीय अंतरों पर बल दिया जाएगा। प्रदर्शनी के इसी खंड के एक पृथक् हिस्से में सौरा (ओडिशा), वरली (महाराष्ट्र) और राठवा (गुजरात) समुदायों की स्वदेशी जीवंत कला परंपराओं का प्रदर्शन किया जाएगा। शैल कला प्रदर्शनी के अंतरराष्ट्रीय खंड का मुख्य आधार प्रतिनिधियों से संग्रहीत किए गए फोटोग्राफ होंगे। इस के लिए अनुमति हमें मिल गई है। इस प्रदर्शनी की रूप-रेखा/प्रदर्शन में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली का सहयोग मिल रहा है। प्रदर्शनी की तैयारी पर काम चल रहा है। इस अवसर पर एक प्रदर्शनी कैटलॉग भी प्रकाशित किया जाएगा।