राजस्थान के भील

उदयपुर क्षेत्र के भील

राजस्‍थान में कुछ नगरों के  नाम भील राजाओं जो कभी इन  क्षेत्रों  पर शासन करते थे, के नाम पर पड़ा है। उदाहरण के लिए कोटा का नाम कोट्या भील से पड़ा है; बनारस बंसिया भील से व्‍युत्‍पन्‍न हुआ है; और डुंगरपुर का नाम डुंगरिया भील के नाम पर पड़ा है।

इस वेबसाइट में उदयपुर क्षेत्र के छोटी उंदरी तथा बड़ी उंदरी गांवों में रहने वाले भीलों का उल्‍लेख किया गया है। विगत सहस्राब्‍दी से वे इन्‍या पर्वत के किनारे रह रहे हैं जो 12 गांवों में 2000 हेक्‍टेयर भूभाग को आच्‍छादित करती हुई पर्वत श्रेणी है। इस पर्वत श्रेणी के आसपास भगवान शिव के 12 मंदिर छिट-पुट रूप से फैले हुए हैं। पावन दिवसों पर भील लोग 12 घंटों में 12 किलोमीटर तय करते हुए इन्या  पर्वत के निचले भाग को घेरते हैं।

अपने शिव मंदिरों के साथ इन्‍या पर्वत इस समुदाय के लिए पवित्र पर्वत है और इससे  जुड़ी कहानियों ने युगों-युगों से उनकी सामूहिक कल्‍पना को संजोए रखा है। एक चरवाहे के लालच की एक कहानी का युवाओं के दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस कहानी में चरवाहे को सोने की एक डाल मिलती है। वह लालचवश पेड़ से एक-के-बाद-एक शाखा तोड़ना शुरू करता है। किंतु उसके लालच से स्‍वर्ण की डाल पुन: लकड़ी में बदल जाती है।

उदयपुर के भील अपने घरों तथा मंदिरों की दीवारों को देवताओं, फूलों, पशुओं तथा पक्षियों के चित्रों से सजाते हैं। वे इन भित्ति चित्रकारियों को मंदनो कहते हैं। भील मंदनों शैलीगत रेखाचित्र होते हैं। 1984 में जब उदयपुर के जनजातीय अनुसंधान संस्‍थान के सांस्‍कृतिक अधिकारियों को इस क्षेत्र में भेजा गया था तो, उन लोगों ने गोमा पार्गी तथा फूला पार्गी जैसे कलाकारों को इन डिजाइनों को कागज तथा कैनवास पर उतारने के लिए प्रोत्‍साहित किया।उसके बाद से भील अपने घरों तथा मंदिरों की दीवारों पर चित्रकारी की अपनी परंपरा को जारी रखते हुए इन सामग्रियों का इस्‍तेमाल करते रहे हैं।

वे सभी दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं। व्‍यक्तिगत कलाकारों और उनके काम पर एक करीबी नज़र भील कला और संस्‍कृति के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।