अरुणाचल प्रदेश की बांस और बेंत संस्कृति – परिचय

बांस की बोतल

अरुणाचल प्रदेश की एक जीवंत शिल्प परंपरा है और यहाँ की प्रत्येक जनजाति शिल्पकारी में उत्कृष्ट है। बेंत और बांस इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण शिल्प है, और यहाँ की कारीगरी बहुत उच्च स्तर की है। बहुत से आदिवासी अपनी स्वयं की टोपियाँ बनाते हैं, जो प्राय: अत्यधिक सजावटी होती हैं, जिन्हें पक्षियों की चोंच तथा पंखों अथवा लाल रंग से रंगे हुए बालों के गुच्छों से सजाया जाता है। ये विभिन्न प्रकार की टोकरियाँ, बैग और अन्य पात्र भी बनाते हैं। यहाँ बेंत की विभिन्न बुनी हुई तथा सादी बेल्ट पाई जाती है, और उत्तरी सुबनसिरी में आदिवासी बेंत तथा रेशे की विस्तृत रूप से बुनी गई चोली भी बनाते हैं।

बेंत और बांस पूरी तरह से पुरुषों का शिल्प है और बनाई जाने वाली सर्वाधिक आम वस्तुएँ हैं धान, ईंधन तथा पानी को भंडारित करने और ले जाने के लिए टोकरियाँ, स्थानीय शराब बनाने के लिए पात्र, चावल की प्लेटें, धनुष और तीर, टोपी, चटाई, कंधे पर लटकाने वाले बैग आदि।बांस और घास की सुंदर पट्टियों से बनाए गए आभूषण और हार भी प्रसिद्ध हैं। बांस की वस्तुओं पर जला कर लकड़ी पर नक्काशी का काम भी किया जाता है।

टोपी, आदि जनजाति

बांगनी, अपातानी, हिल मिरि और आदि बेंत तथा बांस के काम में विशेषज्ञता प्राप्त कारीगर हैं। ये सुंदर टोकरियाँ, बैग, टोपियाँ और आभूषण बनाते हैं जो उनके कौशल को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। मोन्पा और शेर्दुक्पेन बांस का उपयोग करते हैं परंतु उतना अधिक नहीं जितना अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों में किया जाता है। बांस का प्रयोग टोकरी बनाने के लिए किया जाता है। टोकरी बनाना इन क्षेत्रों में एक प्रमुख शिल्प है। ये बांस से टोकरियाँ, अनाज के पात्र, चावल की बियर के पात्र, झोला, खाने की प्लेटें आदि बनाते हैं। बेंत से ये टोपी, बेंत की बेल्ट, पायल, कुर्सियाँ, टेबल, अलमारियाँ, खिलौने आदि बनाते हैं। उनके द्वारा घरेलू स्तर पर बांस तथा बेंत से बनाई गई वस्तुएँ टोकरी बनाने की सभी आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। अब बेशक सरकार द्वारा व्यावसायिक आधार पर टोकरियाँ बनाने के लिए विभिन्न केंद्र स्थापित किए गए हैं। बुनाई तथा षट्कोण में टोकरी बनाने की खुली तथा बंद दोनों तकनीकों का अनुसरण किया जाता है।

टोपी, मिशमी जनजाति

रंगी गई बेंत अथवा बांस की पट्टियों का प्रयोग एक टोकरी में बुनाई करने के बजाय सामान्यत: पोशाक की विभिन्न वस्तुओं के लिए किया जाता है। अपातानी लोगों में रंगी गई बेंत की पट्टियों का प्रयोग एक प्रकार का कमरबंद बनाने में किया जाता है जिसे स्थानीय रूप से अवू के नाम से जाना जाता है। निशि लोग बांस की पट्टियों को काले रंग में रंगते हैं और इनका विशेष रूप से हाथ पंखे बनाने में प्रयोग किया जाता है। नोकटे और वांचो अधिकतर रंगी गई बेंत की पट्टियों का प्रयोग उनकी टोपी, कमरबंद, हैडबैंड, बाजूबंद आदि बनाने में करते हैं। कभी-कभी नृत्य में प्रयुक्त नृतकों की टोकरियाँ भी सीमित संख्या में रंगी गई पट्टियों से सजाई जाती हैं। रंगाई में प्रयुक्त रंग सीमित होते हैं। सर्वाधिक आम रंग हैं लाल, काला और पीला। अपातानी लोगों का कमरबंद लाल रंग में रंगा जाता है। वांचो और नोकटे की टोपियाँ निरपवाद रूप से लाल बेंत की पट्टियों से बुनी जाती हैं। इनमें पीले तथा काले रंग को कभी-कभी देखा जाता है।

तथापि मोन्पा अपनी पट्टियों को विभिन्न रंगों में रंगते हैं जिनमें से लाल, गुलाबी, भूरा, पीला, हरा और नीला आम हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न मिश्रित रंग भी देखे जाते हैं। निशि और बांगनी अपने हाथ पंखों के लिए बांस की पट्टियों को काले रंग में रंगते हैं। अरुणाचल प्रदेश में रंगने की सामग्री वनस्पति पदार्थ होती है।

बेंत की टोपी, ईदु मिशमी जनजाति

किसी विशेष रंग की प्राथमिकता प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर प्रतीत होती है। काला और लाल ही वे रंग हैं जो इस क्षेत्र के जंगलों में उगाई जाने वाली ज्ञात वनस्पति डाई से बनाए जा सकते हैं और इसलिए ये लोग इन दो रंगों को प्राथमिकता देते हैं। तथापि मोन्पा आधुनिक पेंट का प्रयोग करते हैं और इसलिए इनके यहाँ विभिन्न मिश्रित रंग दिखाई देते हैं।

अपातानी लोगों के लिए डाई करने से न केवल वस्तु की सुंदरता बढ़ती है बल्कि इसे एक अच्छा परिरक्षक माना जाता है। इस प्रकार यह नोटिस किया जाता है कि अपातानी बेंत का कमरबंद अथवा अवू लगातार प्रयोग किए जाने के बावजूद अधिक टूट-फूट के बिना ऐसा ही बना रहता है। डाई में संरक्षात्मक विशिष्टता होती है चूंकि यह कीड़ों और कवक को इसे नुकसान पहुंचाने से दूर रखती है।

अरुणाचल प्रदेश के बांस और शिल्प बहुत संभावना वाले हैं। इसे एक उचित दिशा की आवश्यकता है ताकि लोग इस शिल्प का अनुसरण कर सकें, अपनी स्वयं की कल्पना तथा परंपराओं का प्रयोग करके इसका अधिक से अधिक उत्पादन करने की क्षमता विकसित कर सकें। बहुत सी आशा और इस जनजातीय शिल्प को इसके शीर्ष तक पहुंचाने की संभावना के साथ इनका भविष्य सुनहरा है।

बेंत और बांस के प्रकार

बोतल, मोन्पा जनजाति

बेंत और बांस वह कच्ची सामग्री बनाते हैं जो घर बनाने से टोकरियाँ, मछली पकड़ने का जाल, परिधान से संबंधित वस्तुओं, झूलते पुल के निर्माण, धार्मिक सामग्री आदि जैसी दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करती है। यहाँ तक कि एक जनजातीय झोंपड़ी में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो देशी पौधों का प्रयोग किए बिना बनाया गया हो। अरुणाचल प्रदेश के लोगों ने क्षेत्र की पारिस्थितिकी द्वारा उन्हें दिए गए कच्चे माल का पूर्ण उपयोग किया है।

यह देखा गया है कि Poaceae और Arecaceae दो प्रमुख पादप परिवार हैं जिन्होंने अरुणाचल की सामग्री संस्कृति को आकार दिया है। बांस की विभिन्न किस्में Poaceae परिवार की हैं। नीचे वानस्पतिक परिपाटी के अनुसार प्रजातियों की सूची दी गई है (i) Dendrocalamus Hamiltonii. (ii) Dendrocalamus Hookerii. (iii) Dendrocalamus Giganteus. (iv) Pseudostachyum Polymorphum. (v) Cephalostachyum Fuchsianum. (vi) Bambusa Pallida.

 

बेंत की टोपी, मिशमी जनजाति

Poeceae के परिवार के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण पौधा, जो अरुणाचल की सामग्री संस्कृति को आकार देने में बड़ी भूमिका निभाता है, वह Arecaceae परिवार के कैलेमस समूह का है। बेंत की ऐसी विभिन्न किस्में हैं जिनका लगातार बांस के पात्र, परिधानों की सहायक सामग्री, विभिन्न वस्तुओं की लाइनिंग और झूलते पुलों के निर्माण में प्रयोग किया जाता है।

आदि बेंत पुल

कुछ प्रजातियाँ नीचे चिह्नित की गई हैं: 

(i) Calamus Tenuius.

(ii) Calamus Guruba.

(iii) Calamus Extensus.

(iv) Calamus Erectus.

(v) Calamus Leptospadix.

(vi) Calamus Floribundus.

(vii) Calamus Flagellum.

(viii) Livistona Jenkinsiana.

(ix) Pinanga Gracilis.

बेंत से बनी सामग्री का वर्गीकरण

गैलोंग बांस की टोकरी

कार्य को ध्यान में रखते हुए अर्थात उपयोग को आधार बनाते हुए बेंत से बनी सम्पूर्ण सामग्री को आसानी से निम्नलिखित प्रमुख भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. सामान ले जाने की टोकरी
2. भंडारण टोकरी
3. पात्र
4. तनावयुक्त टोकरी
5. सजावटी टोकरी
6. मछली पकड़ने की टोकरी
7. चटाई
8. विविध वस्तुएँ

थैलेनुमा टोकरियाँ (सटीक बांस की पट्टियों का प्रयोग करके), तगिन जनजाति

इनके अतिरिक्त बेंत की सामग्री से बड़ी संख्या में वस्तुएँ बनाई जाती हैं। इनका प्रयोग विविध प्रयोजनों से किया जाता है जैसे व्यक्तिगत श्रृंगार, पोशाक, रक्षा आदि की वस्तुएँ। वस्तुओं के इस समूह को विविध उपयोग की बेंत की बनी वस्तुओं की श्रेणी में रखा जा सकता है।

टोकरियों के आकार के संदर्भ में इनका वर्गीकरण

शंक्वाकार टोकरी

शंक्वाकार टोकरियों का प्रयोग निरपवाद रूप से सामान ले जाने के प्रयोजन से किया जाता है। ये डफला, हिल-मिरि, तगिन, गेलोंग, नोकटे और वांचो के बीच प्राय: पाई जाती है। यह दर्शाने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि यहाँ की स्थलाकृति और इन टोकरियों के शंक्वाकार आकार के बीच एक निश्चित संबंध है। जहां तक स्थलाकृति के साथ अनुकूलन का संबंध है डफला सामान टोकरी, जिसे स्थानीय रूप से एगे के नाम से जाना जाता है, को तकनीकी दृष्टिकोण से सर्वोचित टोकरी माना जा सकता है। डफला गाँव पर्वत श्रेणियों के उच्च भागों में स्थित हैं। उनके झूम खेत, जल स्रोत और खेल आरक्षित क्षेत्र गाँव की सीमा से बहुत दूर स्थित होते हैं। परिणामस्वरूप उन्हें अपना भार जैसे धान, आग जलाने के लिए लकड़ी, पानी की ट्यूब आदि अपने कंधों पर ले जाना होता है और पर्वत पर ऊपर चढ़ना पड़ता है। इस प्रक्रिया में ऊपर चढ़ते हुए पीछे टोकरी टांग कर जाते हुए सामान ले जाने वाले को इस प्रकार झुकना पड़ता है कि वह क्षैतिज स्तर से 120-डिग्री का कोण बनाए। डफला टोकरी की एक और विशिष्टता है कि यह चीजों को ले जाने के लिए अधिक लाभदायक है।

टोकरी की सतह का वह भाग जो वाहक की पीठ पर होता है वह लगभग सपाट तथा सीधा होता है और इसके सामने का हिस्सा बाहर की ओर निकलता है। सपाट हिस्सा थोड़ा लचीला होता है ताकि यह पीठ पर आराम से टिका रह सके।

सामान ले जाने की अर्द्ध-शंक्वाकार टोकरी

तलहटियों और समतल घाटियों में निवास करने वाले पदम, मिनयोंग, पासी, डिगारु, मिशमी, शेर्दुक्पेन आदि की वाहक टोकरियाँ आकार में एकरूपता दर्शाती हैं; ये सटीक रूप से शंक्वाकार बुनी जाती हैं। यद्यपि इन टोकरियों की संरचना लंबी तथा पतली होती है, फिर भी इनका आधार निरपवाद रूप से सपाट होता है।

कुछ टोकरियों जैसे पदम लोगों की बाई और मिनियोंग लोगों की एगिन में आधार में चार छोटे पैर दिए जाते हैं। दूसरी ओर डिगारु मिशमी वाहक टोकरी जैसे थी में आधार के चारों ओर बेंत की पट्टियों से एक छोटा सपाट बांस का स्टैंड दिया जाता है।

बेलनाकार टोकरी

ये टोकरियाँ सीधी बाह्य संरचना वाली होती हैं और इनका तला पूरी तरह से सपाट होता है। इनका प्रयोग भंडारण और वस्तुएँ ले जाने के लिए किया जाता है। धान्यागार में अनाज का भंडारण करने के लिए प्रयुक्त टोकरियों में इस क्षेत्र में सभी स्थानों पर आकार में एकरूपता है। इनका आधार सपाट होता है, इनकी बाह्य संरचना गोल तथा सीधी होती है। सामान्यत: इन टोकरियों की ऊंचाई 3 से 4 फुट होती है और इनका व्यास लगभग 4 फुट होता है। चूंकि इनका प्रयोग घरों तक सीमित है, सपाट तले तथा सीधी बाह्य संरचना वाली इस प्रकार की टोकरी के अपने लाभ होते हैं। अपातानी वाहक टोकरियाँ सपाट तले वाली और बेलनाकार होती हैं। सामान्यत: इनका प्रयोग महिलाओं द्वारा हल्का भार जैसे सब्जियाँ, बीज आदि ले जाने के लिए किया जाता है।

सपाट टोकरी

थैलेनुमा टोकरी

इस प्रकार की सामान ले जाने वाली टोकरी का वितरण अरुणाचल प्रदेश राज्य के संदर्भ में जलवायु घटक के प्रभाव का सूचक प्रतीत होता है। इस बिन्दु को स्पष्ट करने के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है देशी थैले अथवा सपाट बटुए जैसी टोकरियाँ जो सामान्यत: तगनी, डफला, हिल मिरि तथा आदि लोगों में पाई जाती हैं।

यह टोकरी सपाट होती है और इसे कंधे पर दो पट्टियों द्वारा उठाया जाता है। कुछ आदि थैलों जैसे नारा की बाह्य सतह थोड़ी नतोदर होती है। यह टोकरी में थोड़ा अधिक स्थान बना देता है। इस टोकरी की आकृति इसे प्राकृतिक रूप से वर्षा से बचाती है। यह टोकरी की सतह पर पानी को एकत्रित होने से रोकती है और पानी को धीरे-धीरे नीचे बह जाने देती है।ये कभी-कभी एक प्रकार की छाल से संरेखित की जाती हैं ताकि यह पूर्णतया सुनिश्चित किया जा सके कि पानी अंदर न सोख लिया जाए।

डफला ताली एक सर्वोचित सपाट थैला है। इसे वर्षा से सुरक्षित बनाने के लिए तामा रेशों को बाह्य सतह में फिट किया जाता है। टोकरी की सपाट प्रकृति के कारण तामा रेशे टोकरी को पूरी तरह से वर्षारोधी बनाने के लिए अधिक प्रभावी ढंग से प्रयोग किए जाते हैं।

संकुचित मुंह वाली टोकरी

डफला, हिल मिरि, आदि, मिशमी और तंगसस लोगों द्वारा प्रयोग की जाने वाली अधिकतर छोटी टोकरियों का मुंह उनकी संरचना की तुलना में सामान्यत: संकुचित होता है। ये लगभग गोलाकार होती हैं। ऐसी टोकरी का एक अच्छा उदाहरण है गेलोंग लोगों की हूसक। इस टोकरी की ऊंचाई लगभग 10 सेमी. होती है और इसकी अधिकतम परिधि लगभग 20 सेमी. होती है। मुंह का व्यास 5 सेमी. होता है।

विविध उपयोग की बेंत की वस्तुएँ

थैलेनुमा टोकरी का आगे से दृश्य

वस्तुओं के इस समूह को निम्नलिखित में विभाजित किया जा सकता है: –

  • रक्षात्मक शस्त्र: बरसाती, हेलमेट, टोपी और कवच
  • परिधान से संबंधित वस्तुएँ: रिस्टबैंड, काफलेट, बाजूबंद, पायल, ब्रेस्ट बैंड आदि
  • घरेलू सामान: विनोइंग पंखा, हाथ पंखा, ड्राइंग ट्रे आदि

टोकरी बनाने में प्रयुक्त उपकरण और सामग्री

टोकरियाँ बनाने और बेंत की विभिन्न अन्य वस्तुएँ बनाने के लिए आम तौर पर प्रयुक्त उपकरण एक प्रकार का लंबा चाकू होता है जिसे दाव के नाम से जाना जाता है। दाव और चाकू के अतिरिक्त कॉयल टोकरियों में लौह तथा बोन सुइयों की आवश्यकता होती है। ये सुइयां पतली, गोल और पतले सिरों वाली होती हैं। कुछ जनजातियों में दो भिन्न प्रकार की सुइयां पाई जाती हैं। इनमें से एक का प्रयोग बारीक काम के लिए किया जाता है और दूसरी का प्रयोग कड़े काम के लिए किया जाता है। बोन सुइयां अत्यधिक दुर्लभ होती हैं। दाव का सामाजिक-धार्मिक महत्व उतना ही महत्वपूर्ण है जितना इसका उपयोग मूल्य है। अरुणाचल प्रदेश के लोगों के सामाजिक-आर्थिक जीवन में दाव का महत्व तभी मापा जा सकता है जब विशिष्ट स्थलाकृतिक तथा सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों पर ध्यान दिया जाता है।

टोकरी बनाने की तकनीक/टोकरी बनाने के पैटर्न

एक देशी साँचा

पूरे अरुणाचल प्रदेश में बुनी गई टोकरियों की तीन प्रमुख किस्में दिखाई देती हैं –चौकोर कार्य, विकर्णीय और षट्कोणीय। दूसरी ओर गूँथने तथा बटने की तकनीकें बहुत कम दिखाई देती हैं, और इनका प्रयोग सामान्यत: पूरी टोकरी बनाने के बजाय टोकरी की सहायक वस्तुएँ बनाने में किया जाता है।

यह देखा गया है कि आदि टोकरियों में कोणीय तथा क्रॉस पैटर्न आम हैं, जबकि अपातानी और मिशमी जनजातियों में सामान्यत: हीरे का पैटर्न प्रयोग किया जाता है। अरुणाचल में टोकरियों के पैटर्न अत्यधिक सीमित हैं और ये पैटर्न निरपवाद रूप से ज्यामितीय हैं जो विशेष रूप से आदि, अपातानी, डफला, मिशमी तथा मोन्पा लोगों की टोकरियों में काफी अधिक पाए जाते हैं। प्रत्येक ज्यामितीय पैटर्न और इसके साथ जुड़ा अर्थ ही महत्वपूर्ण है।

सामाजिक-धार्मिक महत्व

अरुणाचल प्रदेश की पूर्ण भौतिक संस्कृति में बेंत और बांस व्यापक रूप से दिखाई देते हैं। कच्चे माल के रूप में बेंत तथा बांस के प्रयोग के साथ टोकरी बनाने की तकनीक स्वाभाविक रूप से प्रौद्योगिकीय विकास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान बनाती है। यह पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि बेंत से बने सामान बनाने की तकनीक का प्रयोग केवल टोकरी बनाने तक सीमित नहीं है। यह बेंत के झूलते हुए पुल के निर्माण से ले कर धार्मिक सामग्री बनाने तक के लिए प्रयोग की जाती है। यहाँ तक कि व्यक्तिगत सौंदर्य की छोटी वस्तुएँ जैसे काफलेट, लेगलेट, हार आदि भी बेंत से बनाए जाते हैं। दाव हैंडल को गूंथना और दाव म्यान बनाना बेंत का सामान बनाने की तकनीक के उल्लेखनीय उदाहरण हैं।

बांस की 4 सेमी. चौड़ी पट्टी को गर्म किया जाता है और टोकरी का एक वर्गाकार “दिखावटी आधार” बनाने के लिए इसे मोड़ा जाता है।

अरुणाचल प्रदेश में बेंत का सामान बनाने की तकनीक का सर्वाधिक उल्लेखनीय व्यावसायिक पहलू शायद इस तथ्य में है कि यह विशेष रूप से पुरुषों के लिए आरक्षित है। दूसरी ओर वस्त्रों की बुनाई में महिलाओं का पूर्ण नियंत्रण है। इस बात का कुछ स्पष्टीकरण है कि क्यों पुरुषों का इस विशेष शिल्प में एकाधिकार है। अरुणाचल प्रदेश के लोग अधिकतर खाद्य उत्पादक हैं। ब्रह्मपुत्र घाटी के लोगों के विपरीत यहाँ हम श्रम के विभाजन के संबंध में एक विशिष्ट स्थिति देखते हैं। महिलाएं वास्तविक उत्पादक हैं। कृषि कार्यों में पुरुषों का कार्य पेड़ काटने और जंगल को साफ करने तक सीमित है। ऐसी परिस्थितियों में महिलाएं अधिकतर झूम खेत में अथवा पूरे वर्ष खाना एकत्रित करने में व्यस्त दिखाई देती हैं। पुरुष पूरे वर्ष काफी आराम करते हैं। ये आराम का समय घरेलू वस्तुओं के निर्माण में बिताया जाता है, और टोकरी तथा बेंत से बना सामान इनमें एक प्रमुख वस्तु है।

इस प्रकार बेंत तथा बांस का कार्य अरुणाचल प्रदेश में प्रमुख कुटीर उद्योग का हिस्सा हैं। अरुणाचल में कोई आर्थिक आधिक्य नहीं है परंतु श्रम के सावधानीपूर्वक विभाजन के कारण पुरुषों को काफी आराम का समय मिलता है जिसका उपयोग उत्पादक कार्य में किया जाता है। इसलिए यहाँ का राष्ट्रीय जीवन अत्यधिक उत्पादक है और कलात्मक रूप से सुविकसित है।

बेंत का सामान बनाने की तकनीक से बनाई गई वस्तुओं का सामाजिक महत्व प्रमुख रूप से प्रतीकात्मक मूल्य पर निर्भर करता है। प्रतीकात्मक मूल्य पर निम्नलिखित के माध्यम से ज़ोर दिया जाता है: (i) बेंत से सामान बनाने की तकनीक परिधान की एक सहायक वस्तु के रूप में और (ii) बेंत से सामान बनाने की तकनीक राजनैतिक सम्मान के रूप में।

सभी धार्मिक संरचनाएँ जैसे वेदी, मूर्तियाँ आदि, जो धार्मिक उत्सवों तथा प्रथाओं के प्रदर्शन के लिए तैयार की जाती हैं, बेंत से सामान बनाने की तकनीक से बनाई जाती हैं और सजाई जाती हैं। अपातानी, निशि, आदि जनजातियों में देवताओं और आत्माओं के प्रतीक के रूप में मूर्तियाँ बांस के काम में कटे हुए बांस से बनाई जाती हैं।

काफी बड़े वर्गाकार आधार तथा चौड़े गोल मुंह वाली टोकरी। टोकरी को विकर्णीय डिजाइन में बुना गया है।

तकनीक और वास स्थान में सीधा संबंध है। इसलिए बेंत से सामान बनाने की तकनीक का तकनीकी-स्थलाकृतिक अध्ययन अर्थहीन हो जाता है यदि स्थलाकृति की प्रकृति, जलवायु और पारिस्थितिकी पर ध्यान न दिया जाए।इसलिए पर्वत की स्थलाकृति, झूम खेती तथा सीढ़ीदार खेती और एक बांस तथा बेंत आधारित भौतिक संस्कृति के बीच एक प्रौद्योगिकीय संतुलन है। पारंपरिक उद्योग के एक पहलू के रूप में बेंत से सामान बनाने की तकनीक अर्थव्यवस्था को निश्चित रूप से प्रभावित करती है। इसके अतिरिक्त लोगों के एक विशिष्ट समूह की सामाजिक-राजनैतिक स्थिति भी आर्थिक जीवन में प्रतिबिंबित होती है। इसलिए बेंत से सामान बनाने की तकनीक के कार्यात्मक अध्ययन में उस समूह का सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक जीवन प्रतिबिंबित होना निश्चित है। विभिन्न सामाजिक घटनाएँ जैसे शिल्प के आधार पर श्रम का विभाजन, जनजातीय सुदृढ़ता के आधार के रूप में चटाई की समारोहपूर्ण बुनाई, सम्मान तथा राजनैतिक प्राधिकरण के रूप में टोकरी जैसी भौतिक वस्तुएँ अरुणाचल प्रदेश में बेंत का सामान बनाने के कार्यात्मक पहलू से सक्रिय रूप से अंतरसंबंधित हैं। कुछ टोकरियों के साथ जुड़े प्रतीकात्मक मूल्य (जैसे आदि लोगों के मोपिन त्योहार में और वांचो के ‘ओजिएल’ नृत्य में प्रयुक्त टोकरी) के अतिरिक्त अन्य सजातीय वस्तुओं का एक निश्चित कार्यात्मक उन्मुखीकरण होता है।

घरेलू उत्पाद

 

तराजू का पलड़ा (गूँथे हुए बांस का बना)

वांखाओंग

वांखाओंग नोकटे जनजाति द्वारा बनाया जाने वाला एक विनोइंग पंखा है।

अपातानी बांस करछुल

अपातानी लोग उनकी बांस की पानी की ट्यूबों में भंडारित पानी को बाहर निकालने के लिए एक रोचक करछुल का प्रयोग करते हैं। यह दो भागों में बनाया जाता है, पात्र और हैंडल।

अपातानी बांस का कंघा

अरुणाचल के अपातानी और निशि बांस के एकल टुकड़े से काट कर बनाए गए कंघों का प्रयोग करते हैं। एक काफी पतले आवरण वाले बांस की एक चौड़ी पट्टी का प्रयोग किया जाता है। इन कंघों में एक ओर दूर-दूर स्थित मोटे दाँत होते हैं और दूसरी ओर पास-पास स्थित पतले दाँत होते हैं। केंद्रीय छल्ले का एक भाग दोनों प्रकार के दांतों को विभाजित करता है। कंघे के अंदर की ओर आंतरिक केंद्रीय छल्ले को सपाट काटा जाता है और बाहरी रिज को एक सजावटी घटक के रूप में रखा जाता है। ये कंघे उपयोगी हैं और सजावटी भी होते हैं।

सुधूम

अपातानी लोगों के धूम्रपान पाइप को सुधूम कहा जाता है। इसकी कटोरी तारे नामक एक बेंत से बनी होती है जबकि छड़ी पेपू नामक ईख बांस से बनी होती है। बेंत के कोमल गूदेदार केंद्रीय हिस्से को हटाने के लिए जला कर कटोरी में खाली स्थान बनाया जाता है। अपातानी लोगों द्वारा ऐसा ही एक ओर पाइप बनाया जाता है जहां कटोरी बांस की बनाई जाती है।

अरुणाचल में सुबनसिरी जिले की निशि जनजाति अपातानी लोगों जैसा एक पाइप बनाती है और इसे हुतुसिल्ली कहा जाता है।

टोपी और बरसाती

यती

टोपी, अपातानी जनजाति

अरुणाचल की अपातानी बरसाती यती दो भागों में बनाई जाती है जिन्हें मोड़ी गई बांस की रस्सियों के लंबे फंदों से पकड़ कर रखा जाता है। सबसे ऊपर का हिस्सा आयताकार होता है। दूसरा भाग एक सपाट आयताकार टुकड़ा होता है जो पीठ को बचाता है। दोनों भागों में लट की तरह गुथी हुई बांस की पट्टियाँ होती हैं जो माथे पर टिकती हैं। जब ऊपरी भाग की आवश्यकता नहीं होती तब इसे पीछे कर दिया जाता है और यह मोड़ी गई बांस की रस्सियों के दो लंबे फंदों से पीछे के कवच से लटकता रहता है।

दोनों भाग बीच में पत्तियों की एक परत को सैंडविच की तरह लगा कर एक खुली-षट्कोणीय बुनाई की दो परतों से बनाए जाते हैं। सभी किनारों को मजबूती से बंधे बेंत के दो आधे टुकड़ों के बीच रखा जाता है।

मोन्पा टोपी

अरुणाचल प्रदेश की मोन्पा जनजाति स्वयं को सूरज तथा बरसात से बचाने के लिए एक उथली शंक्वाकार टोपी का प्रयोग करती है। यह टोपी दो परतों में बनाई जाती है। बाहरी परत सघन विकर्णीय डिजाइन में बनाई जाती है, जबकि आंतरिक परत एक खुली-षट्कोणीय बुनाई में बनाई जाती है। इस टोपी को जलरोधक बनाने के लिए केले के पेड़ के तने की एक परत को सुखाया जाता है और इन परतों के बीच सैंडविच किया जाता है। इन परतों के किनारों पर पकड़ बनाई जाती है जिन्हें मजबूती से बंधी बेंत की दो पट्टियों के बीच सैंडविच किया जाता है। टोपी के अंदर गुथे हुए बांस का एक हैडबैंड फिट किया जाता है जिसे ठोडी के नीचे तक बांधे जाने वाली एक पट्टी से सिर पर टिका कर रखा जाता है।

बोपा

टोपी (हॉर्नबिल, बाल और बेंत), आदि जनजाति

अरुणाचल की अपातानी और निशि जनजातियाँ कुंडली वाली टोपियाँ प्रयोग करती हैं जो सिर पर एक खोपड़ी टोपी की तरह फिट हो जाती है। बोपा आकार में थोड़ी शंकु जैसी होती है। इन टोपियों को मोड़ी गई बेंत की रस्सियों और लाल रंग में रंगी गई हॉर्नबिल की चोंच से सजाया जाता है।

Bolup

बोलूप

बोलूप अरुणाचल की जनजाति आदि गेलोंग द्वारा प्रयोग की जाने वाली एक टोपी है। यह एक क्षैतिज नाव के आकार की रिम के साथ एक अर्द्ध-अंडाकार कटोरी प्राप्त करने के लिए बेंत की लंबाई में कुंडली बना कर बनाई जाती है। यह टोपी काफी मजबूत होती है। अरुणाचल की अन्य जनजातियों द्वारा बनाई जाने वाली टोपियों में ऐसी ही संरचना का प्रयोग किया जाता है। स्वरूप तथा सजावट के घटकों में भिन्नता होती है, परंतु मूल संरचना समान है। कुछ मामलों में बेंत की मोटी पट्टियाँ होती हैं जिन्हें अतिरिक्त सुरक्षा के रूप में सिर पर बांधा जाता है। अन्य टोपियों में रंगी गई ऊन अथवा पंखों को सजावटी घटकों के रूप में प्रयोग किया जाता है ।

शब्दकोश:

अपातानी; आदि; बांगनी; डफला; डिगारु; गेलोंग; हिल मिरि; मोन्पा; मिशमी; मिनिनयोंग; निशि; नोकटे; पासी; पदम; शेर्दुक्पेन; तगिन; टंगसा; वांचो; अरुणाचल प्रदेश की जनजातियाँ।

तमा: तमा रेशे सागो ताड़, जिसे स्थानीय रूप से ताचे कहा जाता है, की एक प्रजाति से प्राप्त किए जाते हैं।.