अरूणाचल प्रदेश की विविध कला एवं शिल्‍पकला  

प्रस्‍तावना 

अरूणाचल प्रदेश अनेक जनजातियों तथा उप-जनजातियों का निवास-स्‍थान है। इसमें शिल्‍पकारी की विपुल परंपरा है जो इन जनजातियों द्वारा सृजित विविध कला एवं शिल्‍पकला में अपने आप को प्रकट करती है। मोनपास, शेरडुकपेन, अका, बुगुन और अन्‍यों सहित बौद्ध धर्मावलंबी, खूबसूरत मुखौटे, दरी तथा काष्‍ठ के रंगीन बर्तन बनाते हैं। बंगीस और अपतानी थैला टोप, आभूषण इत्‍यादि बनाते हैं। खमतीस और वांग्‍चांस अपनी काष्‍ठ नक्‍काशी के लिए जाने जाते हैं। डाफला महिलाओं द्वारा मिट्टी के बर्तन बनाए जाने की कला विख्‍यात है। 

आभूषण आभूषण

आभूषण निर्माण अरूणाचल प्रदेश में व्या पक रूप से अपनायी जाने वाली एक शिल्पैकला है। चांदी के कारीगर का कार्य अधिक जटिल और कलात्मलक होता है। उसके द्वारा परंपरागत आभूषणों के विनिर्माण में पहला चरण आभूषण कें मोम का सांचा निर्मित करना है। ऐसा वैक्स स्टींक या ऑयल को गर्म करके किया जाता है और फिर मोम तथा लकड़ी के बने मानक सांचो पर रखा जाता है। जहां डिजाइन अनिवार्य होती हैं वहां उन्हेंम महीन वैक्सह क्वामइल से बनाया जाता है और जहां जरूरत होती है उसे चाकू से काटा जाता है।

मोम का सांचा तैयार होते ही अगला चरण सांचे तथा धातु के लिए मिट्टी के पात्र का निर्माण करना है। इस प्रयोजनार्थ चिकनी मिट्टी तथा चारकोल के चूर्ण के एक गीले मिश्रण जिसे टकम कहा जाता है, प्रयुक्त् किया जाता है। बांस के ढांचे पर एक पिंड रखा जाता है और इसे चाकू और राल से चपटे आकार का बनाया जाता है। इस ढांचे को पहले चारकोल के चूर्ण से भीतर ढका जाता है और उसके बाद इस पर रखा जाता है। मोम के छोटे डाट को इससे चिपकाया जाता है जो इसके दूसरे सिरे को केले की पत्तीह की छोटी नली की पेंदी के प्रवेश मार्ग से जोड़ता है। अंतत: सांचे तथा नली को चारकोल के चूर्ण से ढका जाता है जिसे चिकनाईदार आकार दिया जाता है और आग के निकट सूखने दिया जाता है। कुछ समय के बाद केले की नली को हटा दिया जाता है और खाली स्थािन को धातु के टुकड़ों से भर दिया जाता है। इसका मुहाना बर्तन के टुकड़ों से ढक दिया जाता है तथा चारकोल के चूर्ण से सील कर दिया जाता है। यह पुन: सूखा हुआ हो जाता है। नली के करीब-करीब केंद्र में एक छिद्र कर दिया जाता है और मिट्टी का बर्तन अगली प्रक्रिया के लिए तैयार हो जाता है जो जलाने का है। ताजा वृक्ष के कठोर और शुष्क् काष्ठर का इस्तेऔमाल धातु को गलाने के लिए किया जाता है। मिटटी का बर्तन जिसका मुख नीचे की ओर होता है, भटठी पर अवलंबित होता है। इसे ईंधन की लकड़ी से ढका जाता है और इस पर आग लगाया जाता है। करीब बीस मिनट के बाद धातु का परीक्षण छिद्र में लोहे की छड़ डालकर किया जाता है। जब यह तरल पदार्थ में बदल जाता है और फिरोजा ज्वा ला निर्मुक्तर होती है, मिटटी के बर्तन को बांस के दो मजबूत चिमटों के दो जोड़ों की सहायता से हटाया जाता है और धीरे-धीरे उल्टाु घुमाया जाता है। ढांचे में रखा गया मोम तब तक जल जाता है और डाट (प्लहग) गायब हो चुका होता है और गली हुई धातु को ढांचे में जाने के लिए स्थांन छोड़ जाता है। मोम के ढांचे द्वारा निर्मित रिक्तय स्थायन को गली हुई धातु भर देती है। इसे तकनीकी रूप से मोम सांचा प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है और यह मेक्सिको तथा विश्वत के अन्य भागों में प्रचलित है। इस प्रकार ढाले गए आभूषणों को मिट्टी के पात्र को तोड़कर बाहर निकाला जाता है। इसे साफ और चमकीला बनाने के लिए इसे चाकू से खुरचा जाता है तथा पत्थीरों से रगड़ा जाता है।

विभिन्न रंगों तथा आकारों के मनकों के अलावा सजावट में पक्षियों के नीले पंखों तथा भौरों के हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। नोक्टेगस तथ वांचू जनजातीय लोग अपने अनोखे तथा विशिष्टे पैटर्न में मनकों को बुनते हैं। वांचू शीशे के मनके, जंगली बीजों, बेंत, बांस तथा सरकंडे से कान के आभूषण बनाते हैं।

गैलोंग महिलाएं ईयरप्लबग तथा कान की बालियां पहनती हैं। प्ल ग सामान्यआत: पत्तेव, लकड़ी या बांस के होते हैं जबकि बालियां भारी होती हैं क्योंाकि वे लोहे की बनी होती हैं। बालियां अनेक चक्रों में मुड़ी होती हैं और इनका प्रयोग विशेषकर करका गैलोंग महिलाओं द्वारा किया जाता है। महिलाओं की कान-पालियां प्राय: आभूषणें के भारी वजन के कारण कट जाती है। फिर भी, महिलाएं उन्हेंह पहनना कभी भी नहीं छोड़ती है। ऐसे मामलों में बालियां कान-पालियों में नहीं पहनी जाती है वरन कान की पालियों के नीचे एक धागे की सहायता से लटकी हुई होती हैं। मनके के कंठहार पुरूषों तथा महिलाओं, दोनों द्वारा समान रूप से पहने जाते हैं। प्रत्येहक मनके का इसके रंग तथा चमक के अनुसार अपना मूल्यह होता है। कभी-कभी मनके के कंठहार इतने अधिक और भारी होते हैं कि छातियों के ऊपर कोई वस्त्रु नहीं होता है, ये मनके कंठहार उन्हेंभ आसानी से ढक सकते हैं। पीतल के कंगन सामान्यो होते हैं और महिलाएं कलाई से केहुनी तक बढ़ती हुई परिधि के साथ तीन से आठ कंगन पहनती हैं। कमन के चारों ओर, पुरूष बेंत की अनेक पटिटयां पहनते हैं जो निरंतर इस्तेामाल से चमक और चिकनाई प्राप्त कर लेती हैं। महिलाओं द्वारा अपनी कमर के चारों ओर लोहे के कुंडल जो अलग-अलग संख्यास में होते हैं तथा बेंत के धागे अथवा सूत के साथ बंधे होते हैं, पहने जाते हैं। बड़ा कुंडल मध्य में आगे की ओर लटकता हुई होता है और उत्तेरवर्ती कुंडलों का आकार क्रमश: कम होता जाता है और ये जांघों की ओर सबसे बड़े कुंडल के दोनों ओर होते हैं। महिलाएं प्राय: बेंत की पायल पहनती हैं। टखने तथा घुटने के बीच पैरों पर बेंत की कारीगरी की पतली पटटी बुनी हुई होती है। गैलोंग महिलाएं धातु के सिक्कोंा से बने कंठहारों को बहुत पसंद करती हैं। ऐसे कंठहारों में सामान्यहत: एक रूपए, आठ आने तथा चार आने का सिक्काघ होता है। सिक्कोंब पर हुक बने होते हैं और ये धागे से लटके रहते हैं। पत्थ रों से जडि़त चमड़े का कमरबंद एक अन्यक आभूषण होता है। पत्थुर सामने से बड़े तथा किनारे की ओर छोटे होते हैं। ऐसे एक कमरबंद में 100 से 150 पत्थयर सामान्यतत: होते हैं।

अका महिलाएं चांदी के अनेक आभूषण पहनती हैं। चांदी के सामान्ये आभूषण मेलू हैं-छाती के ऊपर पहना जाने वाला चपटे-आकार का आभूषण, रोम्बिन-बड़ी कर्ण घुंडी, गिचली-कान की बालियां तथा गेजुई-कंगन। संपन्नन महिलाएं विशेषकर चांदी के चैनवर्क का जूड़ा पहनती हैं जिसे लेंछी कहते हैं। इन आभूषणों के साथ-साथ महिलाएं अनेक रंगों के मनके के कंठहार भी गले के चारों ओर पहनती हैं। ऐशेरी के नाम से ज्ञात पैतृक कंठहार महिलाओं द्वारा सर्वदा और पुरूषों द्वारा अक्सलर पहना जाता है। यह विवाह के समय दूल्हेस को दिए जाने वाले लड़की के दहेज का एक आवश्यरक भाग बनता है। इसे पवित्र और अन्यह आभूषणें की अपेक्षा अधिक मूल्यावान माना जाता है क्यों्कि यह घर की पैतृक संपत्ति का भाग होता है।

ईडु मिशमिस के आभूषण थोड़े और साधारण होते हैं। पुरूष तथा महिलाएं अनेक तरह के मनकों के कंठहार पहनती हैं। सर्वाधिक सामान्यो कंठहार अरूलाया है जिसमें एक साथ जुड़े चालीस से साठा उजले मनके होते हैं। एक अन्य तरह का कंठहार बीस में छोटे-छोटे उजले मनकों से बना लेकपोन होता है। प्राय: पुरूष तथा महिलाएं दोनों कान के फैले हुए पालियों में बांस का टुकड़ा पहनते हैं। कुछ चांदी के सिक्कोंो से या लाल तथा नीले मनकों से अलंकृत चांदी की बालियां पहनते हैं। अकखरे चांदी के पतले प्ले ट से निर्मित कान की बाली होती है और महिलाओं द्वारा पहनी जाती है।

हथियार

विभिन्‍न तरह के दाव

प्राचीन काल से ही हथियार जनजातीय जीवन का अभिन्नी अंग रहा है। हालांकि कुछ हथियार अप्रचलित हो गए हैं और उनकी जगह आधुनिक हथियारों ने ने ली है, फिर भी परंपरागत हथियारों का उनका अपना स्थाेन है। हथियारों का प्रयोग युद्ध तथा शिकार और दैनिक कार्य में किया जाता है। ऐसे सभी हथियारों का निर्माण स्थाकनीय तौर पर किया जाता है। अका लोगों का सर्वाधिक महत्विपूर्ण हथियार तीर-धनुष है जिन्हेंह क्रमश: टकेरी और मू के नामों से जाना जाता है और इनका प्रयोग शिकार में व्याहपक रूप से किया जाता है। प्रयोक्तार की आवश्यिकता के अनुसार हथियारों का आकार भिन्न -भिन्नत हो सकता है। शिकार में प्रयुक्तर किए जाने वाले बड़े हथियार लोहे के सिरों से सज्जित होते हैं और इन पर एकोनाइट जहर का लेप किया जाता है। धनुष प्राय: कंधों से लटके होते हैं जबकि तीर थाऊवाऊ नामक बांस के तरकश में रखी जाती है।
एक अन्यं हथियार जो मूल रूप से युद्ध से संबद्ध किंतु अब रक्षा से संबद्ध है, एक तरह की अपरिष्कृ त बरछी है जिसका एक सिरा लोहे के तीक्ष्णह कीलों से नोकदार बनाया जाता है। इसे लक्ष्यक पर दूर से फेंका जाता है।

युद्ध तथा शांति दोनों में प्रयुक्तब किया जाने वाला सर्वाधिक सामान्यद हथियार दाव होता है। यह लोगों के दैनिक कार्य जैसे कि लकड़ी तथा बांस के टुकड़े काटने, झाडि़यों और वन में अन्य़ पेड़ों को साफ करने इत्याकदि में व्या पक रूप से उपयोगी होता है। यह इस्पाोत का बना होता है और प्रयोग नहीं किए जाने की स्थिति में प्राय: बांस के आवरण से ढंका जाता है। दाव के लिए स्थाथनीय शब्दा वेट्ज है।
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तीर-धनुष


तीर-धनुष अका की तरह पइलीबोस भी विभिन्नल तरह के हथियारों का प्रयोग करते हैं। वे इसे एक विशेष स्था न पर रखते हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त। किए जाने वाले कुछ हथियार निम्नहलिखित हैं:-
क) उई-बेंत के धागे के साथ बांस का धनुष
ख) उपुक-लोहे के सिरे अथवा जहर रहित बांस की तीर
ग) मोरा-लोहे के सिरे के साथ बांस की तीर
घ) गेब-बु-बांस के ढक्क न के साथ खोखले बांस से निर्मित तरकश
ड.) नईबु-लकड़ी के लंबे डंडे तथा लोहे की धार के साथ नोकदार बरछा। इसमें शुष्कव और कठोर काष्ठे के लंबे डंडे से बना एक बरछा होता है। धातु के शीर्ष के नीचे याक या घोड़े के बाल का गुच्छाो होता है।
च) योक्सीा–इस्पाात का एक बड़ा दाव या तलवार
छ) सोतम-बांस तथा बेंत से निर्मित कवच
ज) चोबुक-यह दाव अथवा बेंत से बना तथा लकड़ी की पटिटयों के टुकड़ों से सुदृढ़ किए गए खंजर को रखने का आवरण है।
झ) एग-गई-वृक्षों को गिराने तथा बलि के दौरान मिथुन को मारने के लिए प्रयुक्तक किए जाने वाली लोहे की कुल्हाबड़ी है।
बेंत की मजबूत किस्म् से सर के चारों ओर किनारों के साथ अथवा रहित युद्ध की हेल्मेाट। ऐसी बेंत और भालू या टेकिन अथवा मिथुन के चमड़े से शरीर की आवरण अथवा कवच अथवा पैर के आवरण अथवा लेग गार्ड भी बनाए गए।

काष्‍ठ–नक्‍काशी

हेड हंटिंग

हेड हंटिंग काष्ठं-नक्का शी अरूणाचल प्रदेश के कुछ जनजातियों के बीच प्रचलित परंपरा है। मोंपस, खमतिस, वांचो, फोम, कोनयक जनजातियां इस कला में महत्वसपूर्ण स्थालन धारण करती हैं। नागालैंड के मामले की ही तरह काष्ठप नक्कारशी को मुख्य।त: तीन श्रेणियों के अंतर्गत अभिव्यनक्ति मिलती है: प्रथमत:, हेड हंटिंग, दूसरा मोरूंग या पुरूषों की युवावस्थाह के शयनागार तथा तीसरा, योद्धाओं और अन्य महत्वरपूर्ण व्य क्तियों के लिए खड़ी की गई अंत्ये,ष्टि की मूर्तियां। मानव की आकृति की नक्कावशी करने में सिर पर विशेष ध्या न दिया जाता है। इन चित्रों की नक्कामशी कम उभार के साथ की जाती है और ये अत्यचधिक यथार्थवादी हैं। प्राय: योद्धा को चित्रित करने वाली प्रतिमाओं को विशेष कौड़ी बेल्टं तथा कई अन्यो कलाकृतियों से सजाया जाता है। सिर का शीर्ष गोलाकार किया जाता है और प्राय: यह बाल की कटाई का कुछ संकेत होता है। टैटू के निशानों को ध्याटनपूर्वक निरूपित किया जाता है और अधिकांश आकृतियां कुछ कपड़ों से और सिर पर बाल के गुच्छोंा या कान में मनकों के साथ सज्जित होती हैं।
वांचो के नक्काहशीकारों के पास सिर के साथ उनकी व्येस्तयता के बावजूद अनुपात की गहन जानकारी होती है। हाल ही में कई नक्काकशी वाली आकृतियों में परंपरागत नियत रूप से परिवर्तन देखा जाता है। सुडौल आसनों को विषम आसनों द्वारा प्रतिस्थाशपित किया जाता है, उभरी हुई कलाकृतियों का प्रयोग विभिन्नस विषय-वस्तुहओं में किया जाता है।

मोंपा काष्ठा नक्कालशीकार खूबसूरत प्या,ले, तश्तकरियां, फल के कटोरे बनाते हैं और रैतिक नृत्या और मूक नाटक के लिए बेहतरीन मुखौटों की नक्का‍शी करते हैं। शेरदुकपेन, खंपा तथा मोंपा ऐसे मुखौटे बनाते हैं जो करीब-करीब वास्तेविक चेहरों की तरह दिखते हैं जबकि कुछ पक्षियों और जानवरों को निरूपित करते हैं और कुछ लंगूरों तथा पुरूषों के टेढे मुहों, बुरी आत्माब को भगाने के लिए ग्वाूइयर के साथ महिलाओं को निरूपित करते हैं। मुखौटे लकड़ी के एकल टुकड़े जो भीतर से खोखला होता है, से बने होते हैं, आंखों तथा मुंहों के लिए छिद्र प्राय: किंतु सर्वदा नहीं बनाए जाते हैं; अधिकांश मुखौटे रंगयुक्तु होते हैं किंतु पुराने मुखौटे प्राय: काले और रंगहीन पाए जाते हैं। महिलाएं कभी भी मुखौटे नहीं पहनती हैं जो केवल पुरूषों और लड़कों द्वारा इस्तेकमाल किया जाता है।

खंपटिस खूबसूरत धार्मिक चित्र बनाते हैं। .

मुखौटा-नृत्‍य

मुखौटा, दैत्‍य खोम्‍पती जनजाति

कुछ जनजातीय समुदायों की विशेषकर अरूणाचल प्रदेश में धार्मिक आस्‍था कुछ हद तक हिंदु धर्म तथा बौद्ध धर्म से प्रभावित रही है। शेरदुकपेंस और मोंपा के लोग अनेक तरह के रैतिक मुखौटा नृत्‍य करते हैं जिनमें से थुतोतदम सर्वाधिक आकर्षक होता है। नर्तक खोपडि़यों को निरूपित करने वाले मुखौटे पहनते हैं तथा कंकालों की तरह तैयार की गई पोशाकें पहनते हैं। रैतिक नृत्य में यह प्रदर्शित किया जाता है कि मृत्‍यु के बाद आत्‍मा का परलोक में स्‍वागत किया जाता है। तोरग्‍याप महोत्‍सव में ऐसे बहुत तरह के मुखौटे नृत्‍य प्रस्‍तुत किए जाते हैं जिनका लक्ष्‍य बुरी आत्‍माओं को दूर भगाना तथा सालोंभर समृद्धि, अच्‍छी पैदावार और अनुकूल मौसम सुनिश्चित करना है।

मुखौटा, पक्षी मोनपा जनजाति

मोंपा के लोग अरपोस नृत्य। प्रस्तुवत करते हैं जिसमें करीब 25 नर्तक जो प्राचीन योद्धा की तरह हेल्मेसट पहने हुए होते हैं और तलवार और शील्डी रखते हैं, यह प्रदर्शित करते हैं कि किस तरह जनजाति के पूर्वजों ने अपने शत्रुओं पर जीत हासिल की। इस प्रस्तु ति का समापन एक नृत्य कार्यक्रम जिसे गैलोंग छम कहा जाता है जिसमें करीब 10 नर्तक अत्ययधिक रंगीन पोशाक और शानदार हेडगियर पहने हुए प्रस्तुयति करते हैं, से होता है।
सभी मुखौटेदार मूक नाटकों जिन्हें शेरदुकपेंस प्रस्तुित करते हैं, में सर्वाधिक मनमोहक याक नृत्य होता है। दो व्यरक्तियों द्वारा कठपुतली जानवर बनाया जाता है जो काले कपड़े के पीछे छिपे होते हैं, काले कपड़े से जानवर का शरीर बनता है। कठपुतली याक का सिर लकड़ी का बना होता है। इसकी पीठ पर देवी की मूर्ति बैठती है। तीन मुखौटेदार व्यसक्ति कठपुतली जानवर के चारों ओर नृत्यै करते हैं। वे पौराणिक सूरवीर एपापेक और दो पुत्रों को निरूपित करते हैं। वेरियर एल्विन ने द आर्ट ऑफ द नॉर्थ-ईस्टि फ्रंटियर ऑफ इंडिया में सूचित किया है, ‘‘उत्तसरी सियांग में यांग सांग यू घाटी के लामा समृद्धि, खुशी तथा स्वांस्य्ंग सुनिश्चित करने के लिए द्रुबचूक के एक सप्ता‘ह लंबे महोत्स व में प्रति वर्ष मुखौटे वाले नृत्य प्रस्तुचत करते हैं। 

उनमें भी हिरण, पक्षी तथा सूअर के नृत्‍य होते हैं जिनके लिए आकर्षक मुखौटे तथा भड़कीली पोशाकें होती हैं। अन्‍य मूक नाटकों से राजाओं और रानियां राक्षस और भांड़ निरूपित होते हैं। अत्‍यधिक मनोरंजक अराकाचोछम का सृजन हुआ, ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान बुद्ध ने देखा कि लोग कितने उदास हैं तो उन्‍होंने भांड अराकाचों और उसकी पत्‍नी को लोगों को खुश रखने के लिए भेजा और वे हंसने लगे। ऐसे ही नृत्‍य गीलिंग और अन्‍यत्र के मेंबास द्वारा प्रस्‍तुत किए जाते हैं।

धूम्रपान पाइप

धूम्रपान पाइप

पाइबोस धूम्रपान के शौकीन होते हैं, अत: वे लकड़ी तथा बांस की जड़ों से धूम्रपान के पाइप बनाते हैं परंतु वे अपने पड़ोसियों बोकर्स, रामोस और मेम्बाास से वस्तुं विनिमय व्यायपार के जरिए धातु के पाइपों का भी प्रापण करते हैं।
एलाक-टिडु-लकड़ी से निर्मित धूम्रपान पाइप
एले-टिटु-बांस की जड़ से निर्मित धूम्रपान पाइप
रा-टिडु-उत्कीकर्ण तथा लंबी टोंटी वाले धातु के पाइप
अटा-टिडु-चांदी से निर्मित धूम्रपान पाइप

नृत्‍य एवं संगीत

नृत्यव लोगों की सामाजिक-सांस्कृ तिक विरासत का एक महत्व पूर्ण पहलू होता है। वे महत्वतपूर्ण अनुष्ठामनों पर, उत्संवों के दौरान तथा मनोरंजन के लिए भी नृत्यं करते हैं। अरूणाचल के लोगों के नृत्यप सामूहिक होते हैं-जहां पुरूष और महिलाएं, दोनों भाग लेते हैं। तथापि, कुछ ऐसे भी नृत्यो होते हैं जैसे कि मिशमी पुजारियों का आइगो नृत्यू, अदीस निकोल्सन और वांची का युद्ध नृत्यथ, बौद्ध धर्मावलंबी जनजातियों का रैतिक नृत्य जो पुरूषों के नृत्य होते हैं। महिलाओं को इन नृत्यों में भाग लेने की अनुमति नहीं होती है।

लोगों के कुछ महत्वऔपूर्ण लोक नृत्यअ अजीलामू (मोंपा), रोप्पीै (निशिंग), बुईया (निशिंग), हुरकामी (अपातनी), पोपिर (अदि), पासी कोंग्सीृ (आदि), चलो (नोकल), पोनुंग (अदि), रेखम पद (निशिंग), शेर और म्यूतर नृत्य (कोंपा) इत्याबदि हैं। अधिकांश नृत्यऔ सामान्य्त: गायक-मंडली द्वारा गाए गीतों के साथ प्रस्तुपत किए जाते हैं।

पाइबोस के लोकगीत उनके लोक इतिहास, पौराणिक कथा और उनके ज्ञात अतीत के वर्णन से अधिक संबद्ध होते हैं। गीतों की विषय-वस्तु एं जीव-जंतुओं या जानवरों को शामिल करते हुए दंत कथाओं तथा नैतिक पतन को निर्दिष्टज करने वाले महत्वतपूर्ण शब्दोंज जैसी होती हैं।

विभिन्‍न अवसरों पर गाए जाने वाले उनके महत्‍वपूर्ण लोक गीत निम्‍नलिखित हैं:

जा-जिन-जा: भोज तथा आनंदोत्‍सव के मौके पर, विवाहों या अन्‍य सामाजिक सम्‍मेलनों के दौरान यह गीत गाया जाता है। पुरूष तथा महिलाएं दोनों इसे गायक-मंडली में अथवा अलग-अलग गाते हैं। किंतु जैसे ही गाना शुरू होता है, वे सभी लोग जो उपस्थित होते हैं गीत गाने में उनका साथ देते हैं।

बरई: यह एक ऐसा गीत होता है जो उनके इतिहास, उनके धार्मिक साहित्‍य तथा पौराणिक कथा को वर्णित करता है। इसके संपूर्ण चक्र को पूरा होने में घंटों लग जाते हैं। यह महोत्‍सवों अथवा महत्‍वपूर्ण सामाजिक और धार्मिक जनसभाओं के अवसर की भी एक विशेषता है। जा-जिन-जा और बरई दोनों पाइनोस लोगों में अतीत के प्रति लगाव की भावना पैदा करते हैं क्‍योंकि उनके जरिए उनके पूर्वजों की गौरव-गाथाओं का वर्णन किया जाता है।

नईयोगा: यह तब गाया जाता है जब किसी विवाह समारोह का समापन होता है और दुल्‍हन पक्ष के लोग दुल्‍हन को उसके घर छोड़कर वापस लोटते हैं। इसकी विषय वस्‍तु खुशी से संबंधित होती है। इसमें दुल्‍हन को उसकी भावी जीवन के लिए दी गई सलाह निहित होती है।

मिट्टी के बर्तन बनाने की कला (पॉट्री)

डाफिया महिलाएं इस शिल्‍प में दक्ष होती हैं। इसकी पौराणिक कथा यह है कि अबो ताकम प्रथम डाफिया कुम्‍हार था और उससे यह कला महिलाओं को अंतरित हो गई। इस प्रक्रिया में देकम नामक एक विशेष प्रकार की मिट्टी को लकड़ी के हथौड़े से एक बड़े पत्‍थर पर कूटा जाना निहित होता है। जब यह चूर्ण में परिणत हो जाती है तो उसमें पानी मिलाया जाता है और इसे हथौड़े से तब तक पीटा जाता है जब तक कि इसमें अपेक्षित मृदुता न आ जाए। गीली मिट्टी की पिंडों को घर ले जाया जाता है। महिलाएं अपनी जांघ के ऊपर टाट के बोरे अथवा पुराने तंतु के कंबल को फैलाकर बैठती है। वह एक ढ़ेला उठाती है और उसे अपनी अंगुली से अपरिष्‍कृत बर्तन का रूप देती है जिसके शीर्ष पर एक छोटा छिद्र होता है और इसके चारों ओर कोर होता है। जब ऐसे कई अपरिष्‍कृत बर्तनों को आकार दे दिया गया होता है तो उन्‍हें अंगीठी के ऊपर सबसे ऊपर की तश्‍तरी में सूखने के लिए रखा जाता है। अगले दिन वे अंतिम प्रसंस्‍करण के लिए तैयार होते हैं। ऐसा उसके मुंहाने के छिद्र से होते हुए एक पत्‍थर को उसकी गहराई में ढकेला जाता है ताकि दोनों किनारों में सही उभार हा सके, इन्‍हें बाहरी भाग से कमगी से पीटा जाता है ताकि उन्‍हें चपटा करके पतला किया जा सके। कमगी बांस की एक छड़ी होती है जिस पर परंपरागत डिजाइन होती है। यह बर्तन के भाग पर डिजाइन के निशानों को छोड़ देता है। इस प्रक्रिया को तब तक जारी रखा जाता है जब तक कि वांछित गोल आकृति, आकार और परिष्‍करण हासिल न हो जाए।

परिष्‍कृत बर्तनों पर किसी तरह की पॉलिश अथवा चमक नहीं की जाती है। सुखाते समय उन्‍हें सावधानीपूर्वक छाया में रखा जाता है। जब ये पूरी तरह से सूख जाते हैं तो उन्‍हें घर के बाहर एक अंगीठी में डाला जाता है। वहां कोई ईंट की भट्ठी अथवा मिट्टी के बर्तन का चूल्‍हा नहीं होता है। हालांकि कोई गड्ढ़ा यदि उपलब्‍ध हो, में बर्तनों के ऊपर जलती हुई जलावन की लकड़ी डालना सहज हो जाता है। किसी बर्तन को सेंकने के लिए लगभग 40 मिनट पर्याप्‍त होते हैं। पॉट्री खाना बनाने के बर्तनों तक ही सीमित होती है।