आदिवासी कला और संस्कृति

भारत के आदिवासियों का इतिहास आर्यों के आगमन से पूर्व का है। कई युगों तक  इस उपमहाद्वीप के पहाड़ी भूभागों में उनका आधिपत्‍य था। परन्तु समय के साथ पढ़े लिखे लोगों ने (अन्‍य चीजों के अतिरिक्‍त) उन लोगों पर प्रभुत्‍व स्थापित कर लिया जिनकी परंपराएं मौखिक संस्‍कृति पर आधारित थी। उपनिवेशी अवधि के दौरान, आदिवासियों को जनजातियों का नया नाम दिया गया और स्‍वाधीनता पश्‍चात भारत में उन्‍हें अनुसूचित जनजातियों के रूप में जाना गया। जनजाति के सत्‍व की व्‍याख्‍या ‘उद्भव के चरण’ के रूप में की गई जो समाज के एक रूप के विपरीत था। जब शिक्षा के केंद्रों की स्‍थापना हुई, तो यह व्‍याख्‍यान चुनिंदा समुदायों के सामाजिक-सांस्‍कृतिक मूल आधारों पर संकेंद्रित हो गया जिससे गैर-आदिवासी बच्‍चे आदिवासियों की  संस्कृति की जानकारी से वंचित रह गए और आदिवासी बच्‍चे अपनी विरासत पर गौरव करने से वंचित रह गए।

कई विद्वानों ने इसके बारे में अपनी चिंता भी व्‍यक्‍त की है। 1930 तथा 1940 के दशकों में बीस वर्षों तक गोण्‍ड लोगों के साथ निवास करने वाले ब्रिटिश मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन ने अपनी पुस्‍तक ‘‘ट्राईबल आर्ट ऑफ मिडिल इंडिया:’’ में लिखा है कि भारत के जनजातीय क्षेत्रों में जगह जगह पर न आधुनिक स्कूल खोले जा रहे हैं और उन्होंने कहा कि इस बात का खतरा है कि आदिवासियों  को  पुराने जीवन को छोड़ने के लिए विवश किया जाएगा और उसके स्‍थान पर इस बात की नगण्‍य जानकारी दी जाएगी कि किस प्रकार सामंजस्‍य तथा जीवंतता, उल्‍लास और आनंद प्राप्‍त किया जाए।

वर्ष 1987 में कलाकार जे. स्‍वामीनाथन ने परसीविंग फिंगर्स (भारत भवन, भेपाल) में एल्विन की दूरदर्शिता को प्रतिबिंबित करते हुए लिखा है : ‘‘स्थिति चाहे कैसी भी हो, उसमें बेहतरी के लिए बदलाव नहीं हुआ है। ऐसे समुदायों को खुद के भरोसे अकेले ही छोड़ दिया जाना चाहिए, बिलकुल भी एक व्यवहार्य प्रस्‍ताव प्रतीत नहीं होता है। उनके जंगल अब उनके नहीं हैं, अब वे वनों के संरक्षण के नाम पर अपनी पारंपरिक कृषि पद्धति का इस्‍तेमाल नहीं कर सकते हैं (जिन्हें ‘‘शहरी तथा विकासवादी जरूरतों’’ को पूरा करने के लिए क्रमबद्ध रूप से किसी भी तरह से नष्‍ट किया जा रहा है) अब वे शिकार की तलाश नहीं कर सकते और शिकार भी नहीं कर सकते हैं तथा मौद्रिक अर्थव्‍यवस्‍था की दखलंदाजी अब हर क्षेत्र में है’’।

हजारों आदिवासी युवा जीविका की तलाश में नगरों में बस गए हैं और उनमें से कई अपनी जड़ों से कट रहे हैं जबकि उनकी संतानें अपनी समृद्ध विरासत से बिलकुल ही दूर हो गयी हैं। कुछ आदिवासी समुदाय हालांकि अपनी संतानों को उनकी परंपराओं में जमाए रखने और अपनी जीवन-शैली के संबंध में अन्‍य लोगों में रूचि पैदा करने में समर्थ हुए हैं। इस वेबसाइट में हम ऐसे तीन आदिवासी समुदायों अर्थात मध्‍यप्रदेश के गोंड; मध्‍यप्रदेश के भील तथा राजस्‍थान के उदयपुर क्षेत्र के भील की समृद्ध सांस्‍कृतिक परंपराओं का अन्‍वेषण कर रहे हैं, जो कि उनकी कला के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त होती है।

संपर्क का ब्‍यौरा : 
इंदिरा मुखर्जी 
indirastoryteller@yahoo.co.in