भील जनजाति
मध्य प्रदेश की भील जनजाति
मध्य प्रदेश के भीलों की विपुल सांस्कृतिक परंपरा उनके धार्मिक कृत्यों, उनके गानों तथा नृत्यों, उनके सामुदायिक देवी-देवताओं, त्वचा के गोदनों, पौराणिक गाथाओं तथा विद्या में अभिव्यक्त होती है। उनके घरों से सौंदर्यशास्त्र का सहज बोध प्रकट होता है। प्रति वर्ष दीवारों पर लेप किया जाता है और उन्हें उभरी हुई नक्काशीकारी, मिट्टी चित्र तथा चित्रकारियों से सजाया जाता है। उनकी सामग्री साधारण, घर में निर्मित होती है-रंगों को विभिन्न पौधों की पत्तियों तथा पुष्पों से चित्रकारी की जाती है, उन्हें फटे-पुराने कपड़ों अथवा कपास के फाहों से बने ब्रशों से पोता जाता है जो नीम की टहनियों से बंधे होते हैं।
जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो उसे भील के सांस्कृतिक संघ में रिवाज के अनुसार शामिल किया जाता है। बच्चे को मक्के के ढेर पर लिटाया जाता है। चचेरी बहन उसे उठाती है और बच्चे को माता को तब तक सौंपने से इनकार करती है जब तक कि उसे उपहार न मिल जाता हो। जन्म के तुरंत बाद अनाज का स्पर्श करना शुभ होता है, उसी तरह नवजात के कानों में हंसी की आवाज शुभ मानी जाती है।
भीलों में विवाह के भी अनेक प्रकार होते हैं, जो उन्हें जीवन साथी चुनने की आज़ादी देते हैं। भील समाज में दुल्हन की कीमत लगाने की पद्धति होती है जो घर से भागने तक हर प्रकार के विवाह में लागू होती है। जन्म तथा शादी-विवाह के समय बड़ों, पूर्वजों, देवी-देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए गीत गाए जाते हैं। प्रत्येक पर्व के दौरान भील गरबा नृत्य करते हैं तथा अपने गीतों के माध्यम से देवियों को अपने साथ शामिल होने के लिए आमंत्रित करते हैं। गीत में कभी-कभी देवी उत्तर देती है कि वह नृत्य में शामिल नहीं हो सकती है क्योंकि उसका बच्चा रो रहा है। भील के देवी-देवता दैनिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं।
झबुआ के भीलों के बीच पिथौड़ा चित्रकारी एक धार्मिक रीति होती है जिसका अत्यधिक सम्मान किया जाता है। पिथौड़ा घोड़ों को लेखिन्द्र, परंपरागत चित्रकार द्वारा चित्रित किया जाता है तथा देवों को अर्पित किया जाता है। जैसा कि कहानी प्रचलित है, धर्मी राजा के शासन में लोग हंसना या गाना और नृत्य करना भूल गए थे। तत्पश्चात राजकुमार पिथौड़ा ने देवी हिमाली हर्दा के वास स्थान तक घोड़े पर सवार हो कर यात्रा की। देवी ने उनकी हंसी, गीत तथा नृत्य उन्हें वापस लौटा दिया। पिथौड़ा भित्ति चित्रकारियों में भील की उत्पत्ति की पौराणिक गाथा को चित्रित किया गया है।
भील के जीवन से जुड़ा प्रत्येक पहलू चित्रित है-सूर्य, चंद्र, पशु, वृक्ष, कीट, नदियां, मैदान, पौराणिक व्यक्ति, देवता भीलवत देव बरमथ्य जिनके बारह सिर हैं, एकलव्य जिनका केवल एक ही पैर है।
सभी आदिवासिओं की तरह भील लोग प्रकृति के निकट रहते हैं। उनकी अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित होती है और जब बारिश होती है तो उन्हें अत्यधिक कठिनाई झेलनी पड़ती है। बुआई के मौसम से पूर्व हमेशा ही चिंता छा जाती है। जब मानसून नहीं आता है तो सैंकड़ों भील निर्माण-कार्य में श्रमिक के रूप में कार्य करने के लिए भोपाल, कोटा तथा दिल्ली का रूख करते हैं।
पितौल की भूरी बाई काम करने के लिए 1980 के दशक में भोपाल आईं। आज वह आदिवासी लोक कला अकादमी में कलाकार के तौर पर कार्य करती हैं। उन्होंने अपनी चित्रकारियों के माध्यम से भील के जीवन के बारे में जागरूकता उत्पन्न की। झबुआ के भील कलाकार प्रेमा फट्या ने झबुआ में निवास करने को तरजीह दी। पिथौड़ा घरों में उनकी कृति आईजीआरएमडी, भोपाल में म्युजियम ऑफ मैनकाइंड की दीवारों को अलंकृत करती है जहां उन्होंने पौराणिक पदचिन्हों पर पिथौड़ा कुंवर की भील पौराणिक गाथा का चित्रण किया है।