परिचय – त्रिपुरा

भूमि

बोडो लोगों का प्राचीन घर त्रिपुरा भारत का पूर्वोत्तर राज्य है जो बांग्लादेश के एक ओर स्थित है। राजनैतिक रूप से अब यह उस क्षेत्र का हिस्सा है जिसमें सात राज्य हैं जिन्हें उपयुक्त रूप से ‘सात बहनें’ कहा गया है, क्योंकि इन सभी के बीच सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक पैटर्न और आर्थिक परिदृश्य के संबंध में बहुत सारी समानताएँ हैं। त्रिपुरा के अतिरिक्त ये राज्य हैं असम, मणिपुर, नागालैंड, मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश |

त्रिपुरा राज्य की अक्षांशीय तथा देशांतरीय सीमा क्रमश: 22.56 डिग्री उत्तर से 24.32 डिग्री उत्तर तथा 92.21 डिग्री पूर्व है। इस राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्र 4,117 वर्ग मील अथवा 10,491 वर्ग किमी. है। त्रिपुरा नीतिगत रूप से म्यानमार की नदी घाटियों और बांग्लादेश के बीच स्थित है।लगभग तीन ओर से बांग्लादेश से घिरा हुआ यह राज्य पूर्वोत्तर में असम और मिजोरम से जुड़ा हुआ है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 56.52 प्रतिशत भाग वन भूमि है, जिसे मोटे तौर पर चार प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है अर्थात साल, गर्जन, बांस और विविध प्रजातियाँ।

लोग:

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार त्रिपुरा राज्य की कुल मानव जनसंख्या 3,191,168 है। उच्च भूमि वाले क्षेत्रों में जनसंख्या कम घनी है और निम्न भूमि के क्षेत्र घनी आबादी वाले हैं। त्रिपुरा में न केवल विभिन्न क्षेत्रों से लोग आते हैं बल्कि विभिन्न जातीय समूहों के लोग भी यहाँ रहते हैं। प्रत्येक जातीय जनजाति की अपनी अलग भाषा और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के भिन्न स्वरूप होते हैं, जैसे संगीत, नृत्य और त्योहार।उदाहरण के लिए त्रिपुरा में गरिया नृत्य होता है, रियांग लोग हौजगिरी और चकमा बिझु नृत्य करते हैं।

इनके अपने संगीत वाद्य यंत्र होते हैं जैसे बांसुरी, खांब और लमबंग जो बांस के बने होते हैं।गैर-जनजाति जनसंख्या रवीन्द्र संगीत और नृत्य करती है –गजन नृत्य, धमाइल अथवा जरिसरी अथवा मुर्शिदी-मार्फिती

यहाँ सभी धार्मिक समूहों के लोग हैं। हिंदुओं की संख्या अधिक है क्योंकि शायद प्राचीन शासक हिन्दू थे और उनके धार्मिक विश्वास ने उनकी प्रजा को प्रभावित किया होगा। 

सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत: 

उन्नीसवीं शताब्दी में त्रिपुरा में आधुनिक युग की शुरुआत हुई जब महाराजा बीर चंद्र किशोर माणिक्य बहादुर ने अपने प्रशासनिक ढांचे को ब्रिटिश भारत के पैटर्न पर बनाया और बहुत से सुधार किए। उनके उत्तराधिकारियों ने 15 अक्तूबर, 1949 तक त्रिपुरा पर शासन किया जब यह भारतीय संघ में मिल गया। प्रारंभ में यह एक पार्ट सी राज्य था, यह वर्ष 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद एक केंद्रीय प्रशासन वाला क्षेत्र बन गया। 1972 में इस क्षेत्र को एक पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त हो गया।

त्रिपुरा का एक लंबा इतिहास है, इसकी जनजातीय संस्कृति अद्भुत है और यहाँ की लोक कथाएँ आकर्षक हैं। कुछ विद्वानों की यह राय है कि बहुत पहले इसे किरत देश के नाम से जाना जाता था। महाभारत और पुराणों में त्रिपुरा के उल्लेख हैं। त्रिपुरा, जो राजा दृया और भबरू का वंशज था और धृतराष्ट्र का समकालीन था, वह शासक था जिसके नाम पर त्रिपुरा का नाम रखा गया। एक और स्पष्टीकरण के अनुसार इस क्षेत्र का नाम राधाकृष्णपुर में स्थित त्रिपुरी सुंदरी के मंदिर के नाम पर रखा गया। इस देवी को स्थानीय जनसंख्या द्वारा हमेशा बहुत सम्मान दिया गया है।

त्रिपुरा का प्रारंभिक इतिहास रहस्य में डूबा है। इसके साथ बहुत से मिथक और किंवदंतियाँ जुड़ी हैं। एक संस्करण इसके संबंध पौराणिक परंपरा से यजती और प्रतीत के समय से जोड़ता है जब 71वें राजा त्रिपुरा कछार के साथ एक बोडो संघ से जुड़े थे। एक और मिथक राजमाला (राजमाला सामान्यत: 15वीं शताब्दी से त्रिपुरा के इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत है) में यह उल्लेख किया गया है कि त्रिपुरा का शासक चंद्र वंश का था और उनका वंश राजपूत क्षत्रियों से बताया गया है। टोड ने अपने राजपूताना में उल्लेख किया है कि त्रिपुरा राजस्थान की 84 व्यापारिक जनजातियों में से एक थी। यह संभवत: आर्यन और बोडो संस्कृतियों के बीच एक संयोजन है।

तथापि प्रसिद्ध इतिहासकार डी.सी. सरकार इसकी प्रामाणिकता के संबंध में संदेह व्यक्त करते हैं। मध्यकालीन इतिहास 1279 ईसवी से अधिक निश्चित है जब हम पहली बार गौड़ सुल्तान द्वारा एक असंतुष्ट त्रिपुरा मुखिया को त्रिपुरा पर आक्रमण करने में सहायता करने के लिए माणिक्य की उपाधि दिए जाने के बारे में सुनते हैं। यह उपाधि आज तक जारी है। यह उन शासकों को भी प्रदान की गई जो प्रत्यक्ष प्राकृतिक वंशज नहीं थे परंतु जो उचित अथवा अनुचित तरीकों से सत्ता प्राप्त करने में कामयाब हुए। 16वीं और 17वीं शताब्दी तक सभी बाह्य खतरों का सफलतापूर्वक सामना किया गया जिससे त्रिपुरा फल-फूल पाया। 17वीं सदी के मध्य में मुगल त्रिपुरा राज्य की राजनैतिक स्थिरता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए। धीरे-धीरे त्रिपुरा के मैदान मुगल शासन के अधीन आ गए और इसका नाम त्रिपुरा से बदल कर रोशनाबाद कर दिया गया। बाद में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में राजनैतिक सत्ता प्राप्त कर ली, इसने त्रिपुरा के मैदानों पर हमला किया और इसने यहाँ के शासक को सहायक बनने के लिए मजबूर कर दिया। जजधर माणिक्य (1785-1804 ईसवी सन) को अपनी गद्दी वापस प्राप्त करने के लिए कंपनी को मैदानों (चकला रोशनाबाद) के लिए वार्षिक राजस्व का भुगतान करना पड़ा। शाही वंश के अन्य सदस्य अपने पद की रक्षा के लिए पहाड़ियों की ओर पलायन कर गए। बाद के शासकों ने क्षेत्र को पुन: पुराने समय जैसा बनाने हेतु ब्रिटिश शासकों को प्रभावित तथा खुश करने का प्रयास किया। परंतु यह काम न आया।

अर्थव्यवस्था:

त्रिपुरा में कुछ कुटीर उद्योगों (हस्तशिल्प और हथकरघा) और लघु स्तरीय निर्माण इकाइयों को छोड़ कर एक औद्योगिक आधार का अभाव है। पिछले 10 वर्षों में भारत सरकार ने लघु स्तरीय उद्योगों को प्रोत्साहित किया है विशेष रूप से बुनाई, बढ़ईगीरी, मिट्टी के बर्तनों के निर्माण तथा टोकरी बनाने से संबंधित उद्योग। चावल यहाँ की प्रमुख फसल है। यह उत्तरी बेसिन की दलदली स्थितियों के लिए उपयुक्त है। जूट, कपास, चाय, और फल महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलें हैं। गन्ना, सरसों, और आलू भी उगाए जाते हैं। राज्य चावल, गेहूं, मक्का, दालों, चीनी आदि का बड़ी मात्रा में आयात करता है। राज्य से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में प्लाइवुड लुगदी, बांस से बनी वस्तुएँ, लकड़ी तथा डिब्बा बंद फल आदि शामिल हैं। 

त्योहार:

गरिया पूजा – वैशाख (अप्रैल) माह के 7वें दिन जनजातीय लोगों द्वारा यह त्योहार मनाया जाता है जिनका मानना है कि यह उत्सव पूरे वर्ष उनके लिए समृद्धि और आनंद लाएगा। मुर्गों की बलि इस उत्सव की एक विशिष्टता है। इसका समापन भक्तों, पुरुष और महिला दोनों, द्वारा नृत्य के साथ होता है।

खरची पूजा (जुलाई)- मूल रूप से यह कोई और जनजातीय त्योहार था, अब यह सभी वर्गों के लोगों को आकर्षित करता है जो सिर के चित्रों वाले चौदह देवताओं की पूजा करने के लिए ओल्ड अगरतला में चतुर्दस देउतस मंदिर आते हैं।

केर पूजा – एक विशिष्ट सीमा में आयोजित किए जाने वाला एक पारंपरिक जनजातीय त्योहार जिसे राज्य सरकार के गज़ट में पूर्व सूचना के साथ विशेष रूप से बताया जाता है। पूजा की अवधि के दौरान किसी भी व्यक्ति को इस विशिष्ट सीमा में प्रवेश करने अथवा बाहर आने कि अनुमति नहीं दी जाती।

दुर्गा पूजा (अक्तूबर-नवंबर)
माँ दुर्गा के सौम्य तथा रक्षक स्वरूप का यह त्योहार संभवत: बंगाल से यहाँ आया है। त्रिपुरा में भी यह सितंबर-अक्तूबर में पूरे उत्साह के साथ चार दिन तक मनाया जाता है और जब देवी की मूर्तियाँ जुलूस में ले जाई जाती है और नदी में प्रवाहित की जाती हैं तब उत्सव समाप्त होता है।

तीर्थमुख – त्रिपुरा के जनजातीय लोगों का एक लोकप्रिय तीर्थ स्थल है। उत्तरायन संक्रांति (जनवरी-फरवरी) के दौरान हर जाति, पंथ अथवा धर्म के हजारों पवित्र लोग एकत्रित होते हैं और पवित्र स्नान करते हैं। इन त्योहारों के अतिरिक्त हौजगिरी, बिझु,मानसमंगल, सरद, होली, दिवाली आदि त्योहार मनाए जाते हैं।

रुचि के स्थान:

उज्जयंता पैलेस –यह वर्ष 1901 में शहर के बीच में राधाकिशोर माणिक्य बहादुर द्वारा बनवाया गया था।

सेपाहिजला वन्य जीव अभयारण्य –जिन लुप्तप्राय प्रजातियों पर राज्य को गर्व है जैसे चश्मा बंदर, वे केवल इस अभयारण्य में पाई जाती हैं। अन्य आकर्षण हैं जंतुयालय, मनोरंजन-मैदान, वनस्पति उद्यान आदि।

नीर महल – जल में बना एक महल नीर महल अगरतला से 53 किमी. दूर है और यह एक काल्पनिक महल जैसा दिखाई देता है।

देयतामूरा –अगरतला से 75 किमी. दूर एक पर्वत श्रेणी देयतामूरा में गुमती नदी के सामने की पहाड़ियों की सतह पर उकेरे गए अनगढ़ चित्रों का एक पैनल।

जामपुई हिल्स –यह एक संतरा उत्पादक जोन है, आकर्षक भूदृश्य के अतिरिक्त आपकी आँखें और मस्तिष्क आदिवासियों की जीवनशैली को देखते रह जाएंगे, विशेष रूप से लुशाई में उनकी पारंपरिक पोशाकों, नृत्य, गीत तथा आतिथ्य से।

उनाकोटी –यहाँ 11 वीं – 12वीं शताब्दी से संबंधित चट्टानों को काट कर बनाए गए चित्र बहुतायत में देखे जा सकते हैं। यह एक प्रकार की खुली गैलरी है। यह एक शैव तीर्थ भी है। पूरे क्षेत्र से लोग यहाँ आते हैं विशेष रूप से मार्च-अप्रैल में अशोकाष्टमी मेले में।

मतबारी, पिल्लक, दुंबूरझीलआदि अन्य देखने योग्य रुचिकर स्थान हैं।