राम कथा की विदेश-यात्रा |
Ram Katha Ki Videsh Yatra |
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शिलालेखों से झांकती राम कथा
वियतनाम के त्रा-किउ नामक स्थल से प्राप्त एक शिला लेख यत्र-तत्र क्षतिग्रस्त है, किंतु इससे स्पष्ट होता है कि इसे चंपा के राजा प्रकाश धर्म (६५३-७९ई.) ने खुदवाया था इसमें आदिकवि वाल्मिकि का स्पष्ट उल्लेख है, 'कवेराधस्य महर्षे वाल्मीकि'।२ इससे यह भी ज्ञात होता है कि प्राकाश धर्म ने उस मंदिर का पुनर्निमाण करवाया था, 'पूजा स्थानं पुनस्तस्यकृत:'।३ तात्पर्य यह कि महर्षि वाल्मीकि का एक प्राचीन मंदिर था जिसका प्रकाश धर्म ने पुनर्निमाण करवाया।
कंबोज नरेश यशोवर्मन (८८९-९००ई.) के एक विस्तृत शिला लेख में एक स्थल पर कहा गया है कि जिस प्रकार आदिकवि वाल्मीकि से सुनकर राघव पुत्रों ने अपने
हिंदचीन से हिंदेशिया की ओर अग्रसर होने पर सर्व प्रथम बोर्नियों के यूप अभिलेख पर ध्यान जाता है जिसमें मूल वर्मा की प्रशक्ति इस प्रकार उत्कीर्ण है, 'जयति बल: श्रीमान् मूल वर्मा नृप:'। सी. शिवराम मूर्ति इस उक्ति की तुलना वाल्मीकि रामायण के निम्नलिखित श्लोक से करते है-
तात्पर्य यह कि शिलालेख की उपर्युक्त पंक्ति आदिकवि की उक्ति से प्रभावित है। बोर्नियों का यह शिलालेख चौथी शताब्दी ई. का है। इसकी अंतिम पंक्ति बहुत क्षतिग्रस्त है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें मूल वर्मा की तुलना सगरकुल समुत्पन्न राजा भगीरथ से की गयी है।
इन शिला लेखों की जुबानी ने तथ्य उद्घाटित होता है, उससे तो यही ज्ञात होता है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में तीसरी शताब्दी से बहुत पहले ही रामकथा का अध्ययन आरंभ हो गया था जिसके परिणाम राजरुप कालांतर में उस क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं में अनेकानेक राम कथाकाव्यों की रचना हुई। यथार्थ यह है कि यदि दक्षिण-पूर्व एशिया के शिल्प, कला और साहित्य से राम कथा को अलग कर दिया जाए, तो उस स्थिति से उत्पन्न शून्यता की भरपाई करना किसी प्रकार संभव नहीं है। फिर तो, इस खालीपन से उस क्षेत्र का आधा-अधूरा साहित्य ही बचेगा।
१. वाल्मीकि रामायण, २.११०.१ |
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