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बर्मा की राम कथा और रामवत्थु
बर्मावासियों के प्राचीन काल से ही रामायण की जानकारी थी। ऐतिहासिक राक्ष्यों से ज्ञात होता है कि ग्यारहवीं सदी के पहले से ही वह अनेक रुपों में वहाँ के जनजीवन को प्रभावित कर रही थी। ऐसी संभावना है कि लोकख्यानों और लोक गीतों के रुप में राम कथा की परंपरा वहाँ पहले से विद्यमान थी, किंतु बर्मा की भाषा में राम कथा साहित्य का उदय अठारहवीं शताब्दी में ही दृष्टिगत होता है। यू-टिन हट्वे ने बर्मा की भाषा में राम कथा साहित्य की सोलह रचनाओं का उल्लेख किया है-१ (१) रामवत्थु (१७७५ई. के पूर्व), (२) राम सा-ख्यान (१७७५ई.), (३) सीता रा-कान, (४) राम रा-कान (१७८४ई.), (५) राम प्रजात (१७८९ई.), (६) का-ले रामवत्थु (७) महारामवत्थु, (८) सीरीराम (१८४९ई.), (९) पुंटो राम प्रजात (१८३०ई.), (१०) रम्मासुङ्मुई (१९०४ई.), (११) पुंटो रालक्खन (१९३५ई.), (१२) टा राम-सा-ख्यान (१९०६ई.), (१३) राम रुई (१९०७ई.), (१४) रामवत्थु (१९३५ई.), (१५) राम सुम: मुइ (१९३ ई.) और (१६) रामवत्थु आ-ख्यान (१९५७ई.)।
राम कथा पर आधारित बर्मा की प्राचीनतम गद्यकृति 'रामवत्थु' है। इसकी तिथि अठारहवीं शताब्दी निर्धारित की गयी है। इसमें अयोध्या कांड तक की कथा का छह अध्यायों में वर्णन हुआ है और इसके बाद उत्तर कांड तक की कथा का समावेश चार अध्यायों में ही हो गया है। रामवत्थु में जटायु, संपाति, गरुड़, कबंध आदि प्रकरण का अभाव है।
रामवत्थु की कथा बौद्ध मान्यताओं पर आधारित है, किंतु इसके पात्रों का चरित्र चित्रण वाल्मीकीय आदर्शों के अनुरुप हुआ है। कथाकार ने इस कृति में बर्मा के सांस्कृतिक मूल्यों को इस प्रकार समाविष्ट कर दिया है कि वहाँ के समाज में यह अत्यधिक लोकप्रिय हो गया है। यह बर्मा की परवर्ती कृतियों का भी उपजीव्य बन गया है।
रामवत्थु का आरंभ दशगिरि (दशग्रीव) तथा उसके भाईयों की जन्म कथा से होता है। रावण की माता गोंवी ब्रह्मा को दस केलों का गुच्छा समर्पित करती है जिसके फलस्वरुप दशग्रीव का जन्म होता है। इसके बाद कुंबकन्न (कुंभकर्ण) और विभीषण उत्पन्न होते हैं। इसी संदर्भ में वालि की जन्म कथा भी सम्मिलित है।
लंका का राजा बन जाने के बाद देवगण दशग्रीव को फूलों और फलों का रस उपहार स्वरुप देते हैं। उसी के अति सेवन से वह दुराचारी बन जाता है और कैलाश पर्वत पर एक गंधर्व अप्सरा के साथ दुर्व्यवहार करता है। गंधर्वी उसे शाप देकर यज्ञाग्नि में प्रवेश कर जाती है।
शिकार खेलने के क्रम में दशरथ से अनजाने में ही एक युवा ॠषि का वध हो जाता है जिसके कारण उन्हें शापित होना पड़ता है, किंतु इसी क्रम में वरदान स्वरुप दो केले भी मिलते हैं। दशरथ अपनी रानियों को दोनों केले खिला देते हैं जिसके फलस्वरुप उनके पुत्रों का जन्म होता है।
दुराचारी दशग्रीव के विनाश हेतु देवतागण इंद्र के माध्यम से ब्रह्मा से अनुरोध करते हैं जिसके परिणाम स्वरुप बोधिसत्व तथा स्वर्ग के तीन देवता राम तथा उनके तीन भाईयों के रुप में अवतरित होते हैं। अन्य देवता किष्किंधा में बानर रुप में जन्म लेते हैं। इसी क्रम में गंधर्व अप्सरा रावण से बदला लेने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती है। दशग्रीव उसे लोहे के बक्सा में बंद कर समुद्र में डुबा देता है। वह बक्सा मिथिला पहुँच जाता है। मिथिला नरेश उसका पुत्रीवत पालन करते हैं और उसका नाम सीता रखते हैं।
रामवत्थु में धनुष यज्ञ से भरत के चित्रकूट गमन और वापसी यात्रा का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है। पवन पुत्र के संबंध में कहा गया है कि एक ॠषि के शाप से वे सामान्य बंदर बन जाते हैं, किंतु जामवान के अनुरोध पर ॠषि की भविष्यवाणी होती है कि लंका गमन के समय राम से मिलने पर वे पुन: अपनी शक्ति प्राप्त कर लेंगे। शूपंणखा का नाम यहाँ गांबी है। वह अपने पुत्र सरु (खर) और तुशीन (दूषण) के साथ रामाश्रम जाती है। राम उसके दोनों पुत्रों का वध कर देते हैं। गांबी दशग्रीव से अपनी करुण कथा सुनाती है। फिर, वह स्वयं माया मृग का रुप धारण करती है और दशग्रीव सीता का अपहरण करता है।
सीता को तलाशने के क्रम में 'गियो' वृक्ष के नीचे राम-लक्ष्मण को थुगइक (सुग्रीव) से भेट होती है। उसी समय राम द्वारा पीठ थपथपाने पर हनुमान शाप मुक्त होते हैं। सीतान्वेषण और लंका दहन की कथा वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार है। लंका दहन के बाद हनुमान सीता के सात बोलों के लेकर राम के पास लौटते हैं।
सेतु निर्माण के समय 'गंधम' नामक एक विशाल केकड़ा हनुमान को पकड़ लेता है, किंतु वे उससे मुक्त हो जाते है।
लंका युद्ध, रावण वध और सीता की अग्नि परीक्षा का इस रचना में परंपरानुसार वर्णन हुआ है, किंतु सीता निर्वासन के कई कारण बताये गये हैं। सीता दशग्रीव का चित्र बनाती है। उन्हें वाल्मीकि आश्रम में भोजन करने की प्रबल इच्छा है। अंतत: एक रजक द्वारा सीता के दोषी ठहराने पर उन्हें निर्वासित किया जाता है। कथा की समाप्ति अपने दोनों पुत्रों के साथ सीता की अयोध्या वापसी से होती है।
1. Istway, Utin, Note on Ramayana in Burmese Literature and Arts, Ramayana in South East Asia,
Gaya, P.86
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