- रामायण का अर्थ राम का
यात्रा पथ
- रामायण के घटना स्थलों का
विदेश में स्थानीकरण
- शिलालेखों
से झांकती राम कथा
- शिला चित्रों
में रुपादित रामायण
- भित्तियो
पर उरेही गयी
रामचरित-चित्रावली
- रामलीला: कितने रंग, कितने
रुप
- रामकथा का
विदेश भ्रमण
- इंडोनेशिया की रामकथा: रामायण का कावीन
- कंपूचिया की
राम कथा: रामकेर्ति
- थाईलैंड की
राम कथा: रामकियेन
- लाओस की
रामकथा: राम जातक
- बर्मा की राम कथा
और रामवत्थु
- मलयेशिया की राम कथा और हिकायत
सेरी राम
- फिलिपींस की
राम कथा: महालादिया लावन
- तिब्बत की
राम कथा
- चीन की
राम कथा
- खोतानी
राम कथा
- मंगोलिया की
राम कथा
- जापान की
राम कथा
- श्रीलंका की
राम कथा
- नेपाल की राम कथा: भानुभक्त कृत
रामायण
- यात्रा की
अनंतता
|
लाओस की रामकथा: राम जातक
लाओस के निवासी और वहाँ की भाषा को 'लाओ' कहा जाता है जिसका अर्थ है 'विशाल' अथवा 'भव्य'।१ लाओ जाति के लोग स्वयं को भारतवंशी मानते हैं। लाओ साहित्य के अनुसार अशोक (२७३-२३७ई.पू.) द्वारा कलिंग पर आक्रमण करने पर दक्षिण भारत के बहुत सारे लोग असम-मणिपुर मार्ग से हिंद चीन चले गये।२ लाओस के निवासी अपने को उन्हीं लोगों के वंशज मानते हैं। रमेश चंद्र मजुमदार के अनुसार थाईलैंड और लाओस में भारतीय संस्कृति का प्रवेश ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ था। उस समय चीन के दक्षिण भाग की उस घाटी का नाम 'गांधार' था।३
लाओस की संस्कति चाहे जितनी पुरानी हो, संसार के राजनीतिक मानचित्र पर वह मध्यकाल में ही अस्तित्व में आया। लाओ साहित्य के अनुसार राजकुमार फाल्गुन को लाओस का संस्थापक माना जाता है। एक क्षत्रिय सरदार ने किसी कारणवश अंकोर के राज दरबार में शरण ली थी। फाल्गुन उसी का पुत्र था। अंकोंर नरेश ने अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया। श्वसुर के सहयोग से वह एक सैनिक टुकड़ी का स्वामी बन गया। उसने १३४०-५०ई. के बीच अपने पूर्वजों की भूमि पर अधिकार कर लिया और १३५३ई. में उसने स्वयं को लाखों हाथियों के देशा का राजा घोषित कर दिया।४ इस प्रकार लाओस राज्य की स्थापना चौदहवीं शताब्दी के मध्य हुई।
लाओस में राम कथा पर आधारित कई रचनाएँ हैं जिनमें मुख्य रुप से फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, पोम्मचक (ब्रह्म चक्र) और लंका नाई के नाम उल्लेखनीय हैं। 'राम जातक' के नाम से विख्यात 'फ्रलक फ्रलाम' की लोकप्रियता का रहस्य उसके नाम के अर्थ 'प्रिय लक्ष्मण प्रिय राम' में समाहित है। 'रामजातक' लाओस के आचार-विचार, रीति-रिवाज, स्वभाव, विश्वास, वनस्पति, जीव-जंतु, इतिहास और भूगोल का विश्वकोश है।५ देहियर के अनुसार यह वास्तविक अर्थ में लाओ महात्म्य है।६ राम जातक दो भागों में विभक्त है। इसके प्रथम भाग में दशरथ पुत्री चंदा और दूसरे भाग में रावण तनया सीता के अपहरण और उद्धार की कथा है। जातक कथाओं की तरह इसके अंत में बुद्ध कहते हैं कि पूर्वजन्म में वे ही राम थे और देवदत्त रावण था।
राम जातक के आरंभ में भगवान बुद्ध अपने शिष्यों से कहते हैं कि बाराह कल्प में ब्रह्म युगल पृथ्वी पर आये। उन दोनों ने धरती की मधुर और सुगंधित माटी इतनी
अधिक मात्रा में खा ली कि उनका शरीर भारी हो गया और वे उड़कर पुन: स्वर्ग नहीं जा सके। वे दक्षिण समुद्र तट पर घर बनाकर रहने लगे। उन्होंने एक सौ एक संतानों को जन्म दिया। इसी क्रम में इंद्रप्रस्थ नगर अस्तित्व में आया।७
इंद्रप्रस्थ नगर के अधिपति ब्रह्मयुगल की संतान बड़े होने पर जंबू द्वीप चले गये। सबसे छोटे पुत्र तप परमेश्वर को उन्होंने अपनी भांजी से विवाह कर दिया। उसकी पत्नी धर्मसंका ने दत्तरथ (दशरथ) और विरुलह नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। परमेश्वर ने छोटे पुत्र विरुलह को इंद्रप्रस्थ का राजा बना दिया और उसका विवाह महालिका से कर दिया। दशरथ का विवाह उपराजा की पुत्री विशुद्धिसोता (विशुद्ध श्वेता) से हुआ।८
विवाहोपरांत दशरथ लंबी यात्रा पर निकल पढ़े वे मेकांग नदी के तट पर स्थित फान-फाओ नामक स्थान पर पहुँचे। उन्होंने नाग देवता के कहने पर मेकांग के दूसरे तट पर अपनी राजधानी बनाई और उसका नाम सात फनों वाले नाग के नाम पर श्री सत्तनाकपुरी रखा।९
इंद्रप्रस्थ में महाब्रह्म का जन्म सर्वप्रथम एक विकलांग शिशु के रुप में हुआ। उसका पिता एक किसान था। उसने उसका ना लुमलू रखा। इंद्र को जब इसकी जानकारी मिली, तब वे मनिकॉप नामक अश्व पर आरुढ़ होकर उसके पास गये। उस समय वह हल चला रहा था। उन्होंने कृषक से पूछा कि वह दिन भर में कितनी हल रेखाएँ बनाता है। वह उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। इंद्र कई दिनों तक उसके पास आकर यही प्रश्न पूछते रहे। इस बात की जानकारी जब लुमलू को हुई, तब वह पिता के साथ खेत में पहुँचा। उस दिन भी इंद्र ने वही सवाल पूछा। लुमलू ने कहा कि यदि वे यह बता दें कि उनका घोड़ा दिन भर में कितने कदम चलता है, तो वह भी उनके प्रश्न का उत्तर बता देगा। इसके बाद लुमलू ने इंद्र के आठ सवालों का सही-सही जवाब दिया।
इंद्र लुमलू को किसान से मांग कर स्वर्ग ले गये। वहाँ उन्होंने उसे मरकत मणि के सांचे में ढ़ाल कर अपने जैसा सुंदर रुप दे दिया जिसके फलस्वरुप उसे अलौकिक शक्ति मिल गयी, किंतु उसे वरदान के साथ यह अभिशाप भी मिला कि यदि वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करेगा, तो उसकी मृत्यु हो जायेगी।
लुमलु विरुलह की पत्नी महालिका के गर्भ से पुन: पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ। जन्म के समय ही उसके हाथ में धनुष और तलवार थी। उसका नाम राफनासुअन (रावण) रखा गया। महालिका ने दो अन्य पुत्रों को भी जन्म दिया जिनके नाम इंदहजीत (इंद्रजीत) और बिक-बी (विभीषण) थे। बाल्यावस्था में ही रावण ने दशरथ पुत्री चंदा का अपहरण कर लिया।
चंदा के अपहरण के बाद दशरथ ने देवताओं से प्रार्थना की जिसके फलस्वरुप विशुद्धिश्वेता के गर्भ से फ्रलक और फ्रलाम का जन्म हुआ। बड़ा होने पर उन्हें अपनी बहन के अपहरण की जानकारी हुई। फिर वे दोनों इंद्रप्रस्थ गये और रावण को पराजित कर चंदा के साथ घर लौट गये। पराजित रावण ने फ्रलाम की सारी शताç को पूरा किया। उसके बाद रावण का विवाह चंदा से हो गया। राम जातक के प्रथम खंड में लाओस के भौगोलिक स्वरुप और सामाजिक परंपराओं का विस्तृत वर्णन है।
तप परमेश्वर के इंद्रप्रस्थ से प्रस्थान के बाद रावण ने भी उस नगर को परित्याग दिया। वह अपनी प्रजा के साथ समुद्र के बीच एक निर्जन द्वीप पर चला गया जिसका नाम लंका था। वहाँ चंदा के गर्भ से सीता का जन्म हुआ। ज्योतिषविदों द्वारा उस कन्या के अनिष्टकारी होने की बात सुनकर रावण ने उसे एक नाव पर सुलाकर समुद्र में छोड़ दिया। वह कन्या एक ॠषि को मिली। ॠषि ने पुत्रीवत उसका पालन किया। तदुपरांत धनुष यज्ञ और राम विवाह का वर्णन हुआ है।
राम जातक में सीता का अपहरण विवाह के बाद रास्ते में हो जाता है। अपहरण के संदर्भ में स्वर्ण मृग का प्रसंग है, किंतु शूपंणखा की चर्चा नहीं हुई है। कैकेयी, भरत, शत्रुघ्न आदि की अनुपस्थिति के कारण वनवास का भी उल्लेख नहीं हुआ है। राम जातक के द्वितीय खंड में सीता-हरण से उनके निर्वासन और पुनर्मिलन की सारी घटनाओं का वर्णन हुआ है, किंतु सब कुछ लाओस की शैली में हुआ है। अन्य जातक कथाओं की तरह इसके अंत में भी बुद्ध कहते हैं कि पूर्व जन्म में वे ही राम थे, यशोधरा सीता थी और देवदत्त रावण था।
1. Ratnam, Kamala: The Ramayana in Laos, The Ramayana Tradition in Asia, P.260
2. Ibid., P.259
3. Ibid., P.247
4. Ibid., P.260
5. Ibid. P.248
6. Raghvan, V., op.cit. P.35
7. Sahai, Sachchidanand, Ramjatak, Part I, P.44-45
8. Ibid., P.46-47
9. Ibid
|