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तिब्बत की राम कथा
राम कथा की उत्तरवाहिनी धारा कब तिब्बत पहुँची, यह सुनिश्चित रुप से नहीं कहा जा सकता है, किंतु वहाँ के लोग प्राचीन काल से वाल्मीकि रामायण की मुख्य कथा से सुपरिचित थे। तिब्बती रामायण की छह प्रतियाँ तुन-हुआंग नामक स्थल से प्राप्त हुई है। उत्तर-पश्चिम चीन स्थित तुन-हुआंग पर ७८७ से ८४८ ई. तक तिब्बतियों का आधिपत्य था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उसी अवधि में इन गैर-बौद्ध परंपरावादी राम कथाओं का सृजन हुआ।१ तिब्ब्त की सबसे प्रामाणिक राम कथा किंरस-पुंस-पा की है जो 'काव्यदर्श' की श्लोक संख्या २९७ तथा २८९ के संदर्भ में व्याख्यायित हुई है।२
किंरस-पुंस-पा की राम कथा के आरंभ में कहा गया है कि शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण द्वारा दसों सिर अर्पित करने के बाद उसकी दश गर्दनें शेष रह जाती हैं। इसी कारण उसे दशग्रीव कहा जाता है। महेश्वर स्वयं उसके पास जाते हैं और उसे तब तक के लिए अमरता का वरदान देते हैं, जब तक कि उसका अश्वमुख मंजित नहीं हो जाता।
दशरथ देवासुर संग्राम में घायल हो जाते हैं। अयोध्या लौटने पर केकेया (केकैयी) उनके घावों का उपचार करती है। स्वस्थ होने पर राजा उसकी कोई एक इच्छा पूरी करने का वरदान देते हैं। कालांतर में जब राजा दशरथ ज्येष्ठ पुत्र रामन को राजा बनाना चाहते हैं, तब केकेया अपने पुत्र को राज्य और रामन को बारह वर्ष वनवास का वर माँग लेती है। पिता के आदेशानुसार रामन सीता सहित वन चले जाते है।
रावण के घर एक रुपवती कन्या का जन्म होता है, किंतु ऐसा संकेत मिलता है कि लंका में उसके रहने से दानवों का विनाश हो सकता है। इसलिए उसे तांबे के बक्से में बंद कर जल में फेंक दिया जाता है। वह कन्या एक कृषक को मिलती है। वह उसका नाम रौल-रेंड-मा रख देता है। उसका विवाह राम से होता है, तब उसका नाम सीता रख दिया जाता है।
पति के साथ वन गमन के बाद दशग्रीव को उसके सौंदर्य का पता चलता है। दशग्रीव की बहन स्ला-वियड-मा (शूपंणखा) रामन को प्रलोभित कर सीता से अलग
हटाने के लिए मगृ रुप धारण कर उसके पास जाती है। मृग का पीछा करने के पूर्व रामन सीता की सुरक्षा हेतु प्रकाश-भित्ति की घेराबंदी कर जाते हैं। राम के जाने के बाद दशग्रीव दानवी माया से उस भूखंड को ही उठाकर लंका ले जाता है।
मृग को पकड़ने में विफल होने के बाद रामन अपने निवास स्थान लौटते हैं, तब उन्हें पता चलता है कि सीता का अपहरण हो गया। सीतान्वेषण क्रम में उन्हें एक गर्म जलवाली नदी मिली जिसका स्रोत राज्य के लिए युद्धरत बब्ले (वालि) और सुग्रीव का स्वेद था। रामन ने सुग्रीव की सहायता की। उनके बाण से वालि की मृत्यु हो गयी। सुग्रीव रामन को शिव पुत्र हनुमान के पास ले गया। त्रिनेत्रधारी हनुमान सीता हरण की बात सुनकर एक ही छलांग में लंका पहुँच गये। वंदिनी सीता को उन्होंने अपना परिचय रामदूत के रुप में दिया और उन्हें रामन की अंगूठी दी। सीता का संदेश लेकर वे फिर एक ही छलांग में रामन के पास पहुँच गये।
वानरी सेना के साथ रामन समुद्र तट पहुँचे। सेतु निर्माण के बाद वे समुद्र पार कर दैत्यराज के राजभवन में प्रवेश कर गये। रामन ने उसका अश्व मस्तक काट कर उसका वध कर दिया। उन्होंने असंख्य दानवों का भी दलन किया। अपने इसी पाप के कारण वे कलियुग में बुद्ध के रुप में अवतरित हुए। हनुमान ने वाटिका के वृक्षों को उखाड़कर उलटा खड़ा कर दिया। यद्यपि वे आसानी से भाग सकते थे, किंतु अपनी अद्भुत शक्ति के प्रदर्शन हेतु बंधन में बंध गये। उनकी पूँछ में आग लगा दी गयी, तो उन्होंने उस आग से लौह प्राचीर सहित त्रिकूट स्थित नगर को भ कर दिया।
रावण का अनुज कुंभकर्ण तपस्यारत था। बंदरों ने उसके कान में पिघला हुआ कांसा डाल दिया। उसके श्वास से रामन और हनुमान को छोड़कर संपूर्ण सेना कंकाल बन गयी। हिमगिरि से औषधि लाने के क्रम में हनुमान पूरे पहाड़ को ही उठाकर ले आये। रामन ने स्वयं औषधि ढूंढकर सबका उपचार किया। हनुमान से पर्वत को पुन: यथा स्थान रख आने के लिए कहा गया, तो उन्होंने उसे वही से उठाकर अपनी जगह पर फ्ैंक दिया जिससे उसकी चोटी टेढ़ी हो गयी। उसी पर्वत का एक भाग टूट कर गिर गया जो तिसे (कैलास) के नाम से विख्यात हुआ। अंत में सीता सहित रामन पुष्पक विमान से अयोध्या लौट गये जहाँ भरत ने उनका भव्य स्वागत किया।
1. Dr. Jong, J.W., The story of Rama in Tibet, Asian Variations in Ramayana, P.163
2. Ibid, P.173
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