मित्रलाभ
- सुवर्णकंकणधारी
बूढ़ा बाघ और मुसाफिर की कहानी
- कबुतर,
काक, कछुआ, मृग और चूहे की कहानी
- मृग, काक
और गीदड़ की कहानी
- भैरव नामक
शिकारी, मृग, शूकर, साँप और
गीदड़ की कहानी
- धूर्त
गीदड़ और हाथी की कहानी
सुहृद्भेद
- एक
बनिया, बैल, सिंह और गीदड़ों की कहानी
- धोबी,
धोबन, गधा और कुत्ते की कहानी
- सिंह, चूहा
और बिलाव की कहानी
- बंदर, घंटा
और कराला नामक कुटनी की कहानी
- सिंह और
बूढ़ शशक की कहानी
- कौए का जोड़ा और काले
साँप की कहानी
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हितोपदेश
मित्रलाभ
१.
सुवर्णकंकणधारी बूढ़ा बाघ और
मुसाफिर की कहानी
(वृद्धव्याघ्रपथिकयो: कथा)
एक समय दक्षिण दिशा में एक वृद्ध बाघ स्नान करके कुशों को हाथ में लिए हुए कह रहा था-- हे हो मार्ग के चलने वाले पथिकों ! मेरे हाथ में रखे हुए इस सुवर्ण के कड्कण (कड़ा) को ले लो, इसे सुनकर लालच के वशीभूत होकर किसी बटोही ने (मन में) विचारा -- ऐसी वस्तु, (सुवर्ण कड्क) भाग्य से उपलब्ध होती है। परंतु इसे लेने के लिये, बाघ के पास जाना उचित नहीं, क्योंकि इसमें प्राणों का संदेह है।
अनिष्ट स्थान बाघ इत्यादि से सुवर्ण, कड्क सदृश अभीष्ट वस्तु के लाभ की संभावना होते हुए भी कल्याण होना न नहीं आता, क्योंकि जिस अमृत में जहर का संपर्क है, वह अमृत भी मौत का कारण है, न कि अमरता का।
किंतु धन पैदा करने की सभी क्रियाओं में संदेह की संभावना रहती ही है।
कोई भी व्यक्ति संदेहपूर्ण कार्य में बिना पग बढ़ाये कल्याण के दर्शन में असमर्थ ही रहता है। हाँ, फिर संदहपूर्ण कार्य करने पर यदि वह जीता रहता है, तो कल्याण का दर्शन करता है।
इस कारण से सर्वप्रथम मैं इसके वाक्य के तथ्य सत्य, अतथ्य असत्य का परीक्षण
करता हूँ। वह उच्चस्वर में बोलता है -- कहाँ है तुम्हारा कंगन ? बाघ हाथ फैला कर देखाता है। पथिक बोला मारने वाले तुम में कैसे विश्वास हो ?
मुझे इतना भी लोभ नहीं है, जिससे मैं अपने हाथ में रखे हुए सुवर्ण कंगन को जिस किसी रास्ता चलता अपरिचित व्यक्ति को दे देना चाहता हूँ। परंतु बाघ मनुष्य को भक्षक है, इस लोकापवाद को हटाया नहीं जा सकता।
अंधपरंपरा पर चलने वाला लोक धर्म के विषय में गोवध करने वाले ब्राह्मण को जैसे प्रमाण मानता है, वैसे उपदेश देनेवाली कुट्ठिनी को प्रमाणता से स्वीकार नहीं करता। अर्थात संसार कुट्ठिनी के वाक्य को धर्म के विषय में प्रमाण नहीं मानता।
हे युधिष्ठिर ! जिस प्रकार मरुप्रदेश में वृष्टि सफल होती है, जिस प्रकार भूख से पीड़ित को भोजन देना सफल होता है, उसी तरह दरिद्र को दिया गया दान सफल होता है।
प्राणा यथात्मनोभीष्टा भूतानामपि ते तथा।
आत्मौपम्येन भूतानां दयां कुर्वन्ति साधवः।
प्राण जैसे अपने लिए प्रिय हैं, उसी तरह अन्य प्राणियों को भी अपने प्राण प्रिय होंगे। इस कारण से सज्जन जीवनमात्र पर दया करते हैं।
निषेध में तथा दान में, सुख अथवा दु:ख में, प्रिय एवं अप्रिय में सज्जन पुरुष अपनी तुलना से अनुभव करता है, अर्थात मुझे किसी ने कुछ दिया तो हर्ष होता है, यदि अनादर किया तो दुख होता है। इस तरह मैं भी किसी को कुछ दूँगा तो हर्ष होगा, निषेध कर्रूँगा तो दुख होगा।
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्टवत्।
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्चति स पण्डितः।।
जो पुरुष दूसरे की स्रियों को अपनी माता की तरह एवं अन्य के धन को मिट्टी के ढेले के समान तथा प्राणिमात्र को अपने समान देखता है, वह पंडित है, अर्थात सत असत के विवेक करने वाली बुद्धि वाला है।
और चंद्रमा जो आकाश
में विचरता है, अंधकार दूर करता है, सहस्त्र किरणों को धारण करता है और नक्षत्रों
में बीच में चलता है उस चंद्रमा को
भी भाग्य से राहु ग्रस्त होता है, इसलिए जो कुछ
भाग्य (ललाट) में विधाता ने लिख दिया है उसे कौन मिटा
सकता है।
यह बात वह सोच ही रहा था जब उसको
बाघ ने मार डाला और खा गया। इसी
से कहा जाता है कंगन के लोभ से इत्यादि
बिना विचारे काम कभी नहीं करना चाहिए।
विषय
सूची
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विग्रह
- पक्षी
और बंदरो की कहानी
- बाघंबर
ओढ़ा हुआ धोबी का गधा और
खेतवाले की कहानी
- हाथियों का
झुंड और बूढ़े शशक की कहानी
- हंस, कौआ
और एक मुसाफिर की कहानी
- नील
से रंगे हुए एक गीदड़ की कहानी
- राजकुमार
और उसके पुत्र के बलिदान की कहानी
- एक
क्षत्रिय, नाई और भिखारी की कहानी
संधि
- सन्यासी
और एक चूहे की कहानी
- बूढ़े
बगुले, केंकड़े और मछलियों की कहानी
- सुन्द,
उपसुन्द नामक दो दैत्यों की कहानी
- एक
ब्राह्मण, बकरा और तीन धुताç की कहानी
- माधव
ब्राह्मण, उसका बालक, नेवला और
साँप की कहानी
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