मित्रलाभ
- सुवर्णकंकणधारी
बूढ़ा बाघ और मुसाफिर की कहानी
- कबुतर,
काक, कछुआ, मृग और चूहे की कहानी
- मृग, काक
और गीदड़ की कहानी
- भैरव नामक
शिकारी, मृग, शूकर, साँप और
गीदड़ की कहानी
- धूर्त
गीदड़ और हाथी की कहानी
सुहृद्भेद
- एक
बनिया, बैल, सिंह और गीदड़ों की कहानी
- धोबी,
धोबन, गधा और कुत्ते की कहानी
- सिंह, चूहा
और बिलाव की कहानी
- बंदर, घंटा
और कराला नामक कुटनी की कहानी
- सिंह और
बूढ़ शशक की कहानी
- कौए का जोड़ा और काले
साँप की कहानी
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हितोपदेश
विग्रह
६.
राजकुमार और उसके पुत्र
के
बलिदान की कहानी
किसी समय शूद्रक नामक राजा राज्य किया करता था। उसके राज्य में वीरवर नामक महाराजकुमार किसी देश से आया और राजा की ड्योढ़ी पर आ कर द्वारपाल से बोला, मैं राजपुत्र हूँ, नौकरी चाहता हूँ। राजा का दर्शन कराओ। फिर उसने उसे राजा का दर्शन कराया और वह बोला-- महाराज, जो मुझ सेवक का प्रयोजन हो तो मुझे नौकर रखिये, शूद्रक बोला - तुम कितनी तनख्वाह चाहते हो ? वीरवर बोला -- नित्य पाँच सौ मोहरें दीजिये। राजा बोला -- तेरे पास क्या- क्या सामग्री है ? वीरवर बोला -- दो बाँहें ओर तीसरा खड्ग। राजा बोला यह बात नहीं हो सकती है। यह सुनकर वीरवर चल दिया।
फिर मंत्रियों ने कहा-- हे महाराज, चार दिन का वेतन दे कर इसका स्वरुप जान लीजिये कि यह क्या उपयागी है, जो इतना धन लेता है या उपयोगी नहीं है। फिर मंत्री के वचन से बुलवाया और वीरवर को बीड़ा देकर पाँच सौ मोहरें दे दी। और उसका काम भी राजा ने छुप कर देखा। वीरवर ने उस धन का आधा देवताओं को और ब्राह्मणों को अपंण कर दिया। बचे हुए का आधा दुखियों को, उससे बचा हुआ भोजन के तथा विलासादि में खर्च किया। यह सब नित्य काम करके वह राजा के द्वार पर रातदिन हाथ में खड्ग लेकर सेवा करता था और जब राजा स्वयं आज्ञा देता, तब अपने घर जाता था।
फिर एक समय कृष्णपक्ष की चौदस के दिन, रात को राजा को करुणासहित रोने का शब्द सुना। शूद्रक बोला -- यहाँ द्वार पर कौन- कौन है ? उसने कहा -- महाराज, मैं वीरवर हूँ। राजा ने कहा -- रोने की तो टोह लगाओं। जो महाराज की आज्ञा, यह कहकर वीरवर चल दिया और राजा ने सोचा-- यह बात उचित नहीं है कि इस राजकुमारों को मैंने घने अंधेरे में जाने की आज्ञा दी। इसलिये मैं उसके पीछे जा कर यह क्या है, इसका निश्चय कर्रूँ।
फिर राजा भी खड्ग लेकर उसके पीछे नगर से बाहर गया और वीरवर ने जा कर उस रोती हुई, रुप तथा यौवन से सुंदर और सब आभूषण पहिने हुए किसी स्री को देखा और पूछा -- तू कौन है ? किसलिये रोती है ? स्री ने कहा -- मैं इस शूद्रक की राजलक्ष्मी हूँ। बहुत काल से इसकी भुजाओं की छाया में बड़े सुख से विश्राम करती थी। अब दूसरे स्थान में जाऊँगी। वीरवर बोला -- जिसमें नाश का संभव है, उसमें उपाय भी है। इसलिए कैसे फिर यहाँ
आपका रहना होगा ? लक्ष्मी बोली -- जो तू बत्तीस लक्षणों से संपन्न अपने पुत्र शक्तिधर को सर्वमंगला देवी की भेंट करे, तो मैं फिर यहाँ बहुत काल तक रहूँ। यह कह कर वह अंतर्धान हो गई।
फिर वीरवर ने अपने घर जा कर सोती हुई अपनी स्री को और बेटे को जगाया। वे दोनों नींद को छोड़, उठ कर खड़े हो गये। वीरवर ने वह सब लक्ष्मी का वचन उनको सुनाया। उसे सुन कर शक्तिधर आनंद से बोला -- मैं धन्य हूँ, जो ऐसे, स्वामी के राज्य की रक्षा के लिए मेरा उपयोग प्रशंसनीय है। इसलिए अब विलंब का क्या कारण है ? ऐसे काम में देह का त्याग प्रशंसनीय है।
धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत।
सन्निमित्ते वरंत्यागो विनाशे नियते सति।।
अर्थात, पण्डित को परोपकार के लिए धन और प्राण छोड़ देने चाहिए, विनाश तो निश्चत होगा ही, इसलिये अच्छे कार्य के लिए प्राणों का त्याग श्रेष्ठ है।
शक्तिधर की माता बोली -- जो यह नहीं करोगे तो और किस काम से इस बड़े वेतन के ॠण से उनंतर होगे ? यह विचार कर सब सर्वमंगला देवी के स्थान पर गये। वहाँ सर्वमंगला देवी की पूजा कर वीरवर ने कहा -- हे देवी, प्रसन्न हो, शूद्रक महाराज की जय हो, जय हो। यह भेंट लो। यह कह कर पुत्र का सिर काट डाला। फिर वीरवर सोचने लगा कि -- लिये हुए राजा के ॠण को तो चुका दिया। अब बिना पुत्र के जीवित किस काम का ? यह विचार कर उसने अपना सिर काट दिया। फिर पति और पुत्र के शोक से पीड़ित स्री ने भी अपना सिर काट डाला, तब राजा आश्चर्य से सोचने लगा,
जीवन्ति च म्रियन्ते च मद्विधा: क्षुद्रजन्तवः।
अनेन सदृशो लोके न भूतो न भविष्यति।।
अर्थात, मेरे समान नीच प्राणी संसार में जीते हैं और मरते भी हैं, परंतु संसार में इसके समान न हुआ और न होगा।
इसलिए ऐसे महापुरुष से शून्य इस राज्य से मुझे भी क्या प्रयोजन है बाद में शूद्रक ने भी अपना सिर काटने को खड्ग उठाया। तब सर्वमंगला देवी ने राजा का हाथ रोका और कहा-
हे पुत्र, मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूँ, इतना साहस मत करो। मरने के बाद भी तेरा राज्य भंग नहीं होगा। तब राजा साष्टांग दंडवत और प्रणाम करके बोला -- हे देवी, मुझे राज्य से क्या है या जीन से भी क्या प्रयोजन है ? जो मैं कृपा के योग्य हूँ तो मेरी शेष आयु से स्री पुत्र सहित वीरवर जी उठे। नहीं तो मैं अपना सिर काट डालूँगा। देवी बोली"-- हे पुत्र, जाओ तुम्हारी जय हो। यह राजपुत्र भी परिवार सहित जी उठे। यह कह कर देवी अन्तध्र्यान हो गई। बाद में वीरवर अपने स्री- पुत्र सहित घर को गया। राजा भी उनसे छुप कर शीघ्र रनवास में चला गया।
इसके उपरांत प्रातःकाल राजा ने ड्योढ़ी पर बैठे वीरवर से फिर पूछा और वह बोला- हे महाराज, वह रोती हुई स्री मुझे देखकर अंतध्र्यान हो गई, और कुछ दूसरी बात नहीं थी। उसका वचन सुन कर राजा सोचने लगा --""इस महात्मा की किस प्रकार बड़ाई कर्रूँ।''
प्रियं ब्रूयादकृपणः शूरः स्यादविकत्थनः।
दाता नापात्रवर्षी च प्रगल्भः स्यादनिष्ठुरः।
क्योंकि, उदार पुरुष को मीठा बोलना चाहिये, शूर को अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये, दाता को कुपात्र में दान नहीं करना चाहिए और उचित कहने वाले को दयारहित नहीं होना चाहिये।
यह महापुरुष का लक्षण इसमें सब है। बाद में राजा ने प्रातःकाल शिष्ट लोगों की सभा करके और सब वृत्तांत की प्रशंसा करके प्रसन्नता से उसे कर्नाटक का राज्य दे दिया।
विषय
सूची
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विग्रह
- पक्षी
और बंदरो की कहानी
- बाघंबर
ओढ़ा हुआ धोबी का गधा और
खेतवाले की कहानी
- हाथियों का
झुंड और बूढ़े शशक की कहानी
- हंस, कौआ
और एक मुसाफिर की कहानी
- नील
से रंगे हुए एक गीदड़ की कहानी
- राजकुमार
और उसके पुत्र के बलिदान की कहानी
- एक
क्षत्रिय, नाई और भिखारी की कहानी
संधि
- सन्यासी
और एक चूहे की कहानी
- बूढ़े
बगुले, केंकड़े और मछलियों की कहानी
- सुन्द,
उपसुन्द नामक दो दैत्यों की कहानी
- एक
ब्राह्मण, बकरा और तीन धुताç की कहानी
- माधव
ब्राह्मण, उसका बालक, नेवला और
साँप की कहानी
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