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The Illustrated Jataka & Other Stories of the Buddha by C. B. Varma Introduction | Glossary | Bibliography

027 – रोमक कबूतर

हिमालय पर्वत की किसी कंदरा में कभी रोमक नाम का एक कपोत रहता था। शीलवान्, गुणवान् और अतिमान वह सैकडों कपोतों का राजा भी था। उस पहाड़ के निकट ही एक सँयासी की कुटिया थी। रोमक प्राय: उस सँयासी के पास जाता और उसके प्रवचन का आनन्द उठाया करता था।

एक दिन वह सँयासी अपनी उस कुटिया को छोड़ किसी दूसरी जगह चला गया। कुछ दिनों के बाद उसी कुटिया में एक पाखण्डी सँयासी के भेष में आकर वास करने लगा। वह आदमी अक्सर ही पास की बस्ती में जाता, लोगों को ठगता और उनके यहाँ अच्छे-अच्छे भोजन कर सुविधापूर्वक जीवन बिताता। एक बार जब वह किसी धनिक गृहस्थ के घर में माँस आदि का भक्षण कर रहा था तो उसे कबूतर का मसालेदार माँस बहुत भाया। उसने यह निश्चय किया कि क्यों न वह अपनी कुटिया में जाकर आस-पास के कबूतरों को पकड़ वैसा ही व्यञ्जन बनाए।

दूसरे दिन तड़के ही वह मसाले, अंगीठी आदि की समुचित व्यवस्था कर तथा अपने वस्रों के अंदर एक मजबूत डंडे को छिपा कर कबूतरों के इंतजार में कुटिया की ड्योढ़ी पर ही खड़ा हो गया। कुछ ही देर में उसने रोमक के नेतृत्व में कई कबूतरों को कुटिया के ऊपर उड़ते देखा। पुचकारते हुए वह नीचे बुलाने का प्रलोभन देने लगा। मगर चतुर रोमक ने तभी उस कुटिया से आती हुई मसालों की खुशबू से सावधान हो अपने मित्रों को तत्काल वहाँ से उड़ जाने की आज्ञा दी। कबूतरों को हाथ से निकलते देख क्रोधवश रोमक पर अपने डंडे को बड़ी जोर से फेंका किन्तु उसका निशाना चूक गया। वह चिल्लाया, “अरे! जा तू आज बच गया।”

तब रोमक ने भी चिल्ला कर उसका जवाब दिया, “अरे दुष्ट! मैं तो बच गया किन्तु तू अपने कर्मों के फल भुगतने से नहीं बचेगा। अब तू तत्काल इस पवित्र कुटिया को छोड़ कहीं दूर चला जा वरना मैं बस्ती वालों के बीच तुम्हारा सारा भेद खोल दूँगा।

रोमक के तेजस्वी वचनों को सुन वह पाखण्डी उसी क्षण अपनी कुटिया और गठरी लेकर वहाँ से कहीं और खिसक गया।