Buddhist Fables

Buddhist Classics

Life and Legends of Buddha

The Illustrated Jataka & Other Stories of the Buddha by C. B. Varma Introduction | Glossary | Bibliography

086 – परिनिब्बान-कथा

राजगीर के गिज्जहकुत पर्वत से, भिक्षुओं के बड़े संघ के साथ, बुद्ध ने अपनी अन्तिम यात्रा प्रारम्भ की। अम्बलथ्थिका और नालन्दा होते हुए वे पाटलिगाम गाँव (आधुनिक पटना, जिसे बाद में पाटलिपुत्र कहा गया) पहुँचे। उत्तरवर्ती काल में मौर्यों की राजधानी बना पाटलि, उन दिनों एक गाँव-मात्र था। वहाँ बुद्ध ने इस नगरी के महान् भविष्य की भविष्यवाणी की। पाटलि से उन्होंने गंगा नदी पार की और कोटिगाम और वैशाली होते हुए वे अम्बापाली (संस्कृत- आम्रपालि) के उद्यान में पहुँचे। अगले दिन, उन्होंने लिच्छवि राजवंश का निमंत्रण अस्वीकार करके, एक गणिका, अम्बापालि से भोजन ग्रहण किया। अपि च, भिक्षुओं के उपयोग हेतु अम्बापालि द्वारा दानस्वरुप प्रदत्त उद्यान भी स्वीकार कर लिया। फिर, भिक्षुओं को वैशाली में ही छोड़, वे वर्षा ॠतु (वस्सावास) व्यतीत करने के लिए बेलुवा की ओर चल दिए। बेलुवा में वे गम्भीर रुप से बीमार हो गए। उन्होंने आनन्द को अपनी भवितव्य मृत्यु की सूचना दी। तदनन्तर, अपने वर्षाकालीन प्रवास से वैशाली लौटकर उन्होंने अपनी मृत्यु की पूर्व-सूचना वहाँ उपस्थित सभी भिक्षुओं को भी दे दी।

इसके बाद, हत्थिगाम, अम्बागाम, जम्बुगाम और भोगनगर होते हुए वे पावा पहुँचे। वहाँ एक कर्मकार, चुन्द की आम्र-वाटिका में वे ठहरे और उन्होंने कुछ खाया, जिससे वे और भी अस्वस्थ हो गए। (यह कर्मकार चुन्द, गया के वेलुवन के चुन्द शूकरिक (सुअर का माँस-विक्रेता) से भिन्न है; साथ ही बुद्ध को दिया गया भोजन सूकर-मद्दव, सूअर का माँस नहीं है, यद्यपि कुछ लोगों को यह भ्रान्ति है।) पर यह भ्रान्ति ही है क्योंकि सूकर-सालि का अर्थ होता है- जंगली चावल और मद्दव शब्द (संस्कृत- मार्दव) मृदु अर्थात् मधुर (मीठे) से व्युत्पन्न है। अपि च, पालि-अंग्रेज़ी शब्दकोश (टी. डब्ल्यू रॉइस डेविस और विलियम स्टेड, पृ. ७२१, ५१८-१९) के अनुसार, मद्दव का अर्थ है- ‘कोमल’ और ‘विदीर्ण’ (भुना हुआ)। अत: संभव है कि बुद्ध ने जो भोजन किया था, वह भुने हुए चावल ही थे (भुंजे चावल, उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक प्रचलित खाद्यान्न है)। इतना ही नहीं, बुद्ध ने बड़े स्पष्ट शब्दों में चुन्द सूकरिक के सूकर-माँस विक्रेता होने और इस व्यवसाय की कड़ी निन्दा की थी। और अपने इसी जघन्य व्यवसाय के परिणाम-स्वरुप बुद्ध के निर्वाण से सात दिन पूर्व ही चुन्द की मृत्यु हो गई थी और उसे नरकाग्नि में यातना झेलनी पड़ी थी। (द्रष्टव्य- धम्मपद अट्ठकथा १-१०५) और सबसे बड़ी बात ये है कि बौद्ध धर्म के भोजन संबंधी नियम बहुत कठोर थे। उदाहरणार्थ, सारिपुत्त को केवल औषधि के रुप में लहसुन का सेवन करना अनुमत था।

अपनी बीमारी को वश में करके बुद्ध कुशीनर (आधुनिक कुशीनगर) पहुँचे और एक पेड़ के नीचे बैठ गए। वहाँ उन्होंने आनन्द द्वारा ककुत्थ नदी से लाया गया जल ग्रहण किया। तब एक मल्लन, पक्कुस उनके दर्शनार्थ आया और उन्हें एक सुवर्ण-रंग का वस्र अर्पित किया। वह वस्र धारण करते हुए बुद्ध ने आनन्द को बताया कि सभी बुद्ध बुद्धत्व की पूर्व रात्रि और मृत्यु से पूर्व की रात्रि को सुवर्ण वस्र धारण करते हैं। साथ ही उन्होंने बताया कि वे कुशीनर में ही निर्वाण प्राप्त करेंगे। तब बुद्ध ने ककुत्थ नदी में स्नान किया और कुछ देर विश्राम करके उपवत्तन साल उद्यान में पहुँचे। वहाँ आनन्द ने उत्तर की ओर सिर वाली एक शय्या उनके लिए बनाई। कहा जाता है कि पेड़ों ने उनके शरीर पर पुष्प-वृष्टि की। आकाश से दिव्य मन्दवर पुष्पों और चन्दन-रज की वृष्टि हुई। पवन ने दिव्य संगीत एवं ध्वनि-वादन किया। साल-उद्यान ने अपने सभी वृक्षों की शाखाओं को झुका कर उन पर चँवर डुलाए, पर बाद में दिव्य गणों ने उससे उन्हें हटाने का अनुरोध किया, जिससे वे सब भी बुद्ध के अन्तिम दर्शन कर सकें।

तब बुद्ध ने आनन्द को अपने अंतिम संस्कारों के विषय में निर्देश दिए। व्यथित आनन्द ने बुद्ध से कुशीनर में प्राणोत्सर्ग न करने का आग्रह किया क्योंकि वह एक गन्दा और गर्हित गाँव था। तब बुद्ध ने उस स्थान की प्रशंसा की क्योंकि एक बार ये स्थान महा-सुदस्सन की राजधानी रह चुका था।

बुद्ध की आसन्न मृत्यु की सूचना पाकर कुशीनर के मल्ल और बहुत से अन्य लोग भी वहाँ एकत्रित हो गए। बुद्ध ने सुभद्द को दीक्षित किया जिसे आनन्द ने अस्वस्थ बुद्ध के पास जाने से रोका था। तब बुद्ध ने भिक्षुओं से शंका-निवारण के लिए पूछा। पर किसी भिक्षु ने कोई प्रश्न नहीं किया। तब बुद्ध बोले-

जो भी सत् है उसका, निश्चित है विनाश।
बन्धन-मुक्ति के लिए, करते रहो सतत् प्रयास।।

ये उनके अन्तिम शब्द थे। तब समाधि की विभिन्न अवस्थाओं को पार करते हुए, वैशाख मास की पूर्णिमा को, अस्सी वर्ष की आयु में उन्होंने परिनिर्वाण प्राप्त किया। मल्लों ने उनकी चिता को अग्नि दी। जब चिता पूर्णतया भ हो गई तो उन्होंने भालों से उसे चारों ओर से घेर लिया और सात दिनों तक शोक मनाया।

(थाई संस्करण)

बुद्ध के परिनिब्बान के उपरान्त, उनके अवशेषों के कई दावेदार उपस्थित हो गए और युद्ध की सी स्थिति हो गई। अंतत:, विवाद इस प्रकार टला- अवशेषों के आठ बराबर हिस्से किए गए और मगधराज अजातसत्तु, कपिलवत्थु के शाक्य, रामगाम के कोलिय, वेसालि के लिच्छवि, अल्लकप्पा के बुल, वेलपत्था के एक ब्राह्मण, पावा के एक प्रतिनिधिमंडल और कुशीनर के मल्लों ने ये हिस्से आपस में बाँट लिए। अवशेषों का वितरण करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करने वाले दोन को वितरण-पात्र रखने की अनुमति दि गई। पिप्फलिवन के मोरियों को देर से आने के कारण केवल भ ही प्राप्त हुई।