Buddhist Fables

Buddhist Classics

Life and Legends of Buddha

The Illustrated Jataka & Other Stories of the Buddha by C. B. Varma Introduction | Glossary | Bibliography

038 – वेस्सन्तर का त्याग

जेतुन्तर के राजा संजय और रानी फुसती के पुत्र वेस्सन्तर के त्याग की कहानी राजा हरिश्चन्द्र की कथा को संभवत: प्रभावित करती प्रतीत होती है।

कहा जाता है कि मात्र आठ वर्ष की अवस्था में वेस्सन्तर ने महान् दान की जब प्रतिज्ञा ली थी तभी पृथ्वी प्रकंपित हो उठी थी। सोलह वर्ष की आयु में उनका विवाह मद्दी से हुआ। उसके जालि नामक पुत्र और कण्हजिना नामक पुत्री थी।

 

उन्हीं दिनों कलिंग राज्य में भयंकर सूखे का प्रकोप हुआ। लोग अन्न और जल के लिए त्राहि-त्राहि कर उठे। जब वहाँ के लोगों को यह ज्ञात हुआ कि जेतुन्तर राज्य में एक ऐसा सफेद हाथी था जिसकी उपस्थिति मात्र से इच्छानुसार बारिश होती है। इसे कलिंग राज्य के आठ ब्राह्मण जेतुन्तर पहुँचे। जब उन्हें उस हाथी के स्वामी वेस्सन्तर की दान वीरता का ज्ञान हुआ तो वे वेस्सन्तर के पास जा पहुँचे और उन्होंने वेस्सन्तर से हाथी मांगा। दानवीर वेस्सन्तर ने उनकी याचना सहर्ष स्वीकार की। उसने हाथी को कलिंग के ब्राह्मणों को सौंप दिया।

 

उस शुभ हाथी के दान दिये जाने की खबर से जेतुन्तर की प्रजा अत्यंत खिन्न और क्रुध हुई। लोग दौड़ते हुए राजा के पास पहुँचे। वेस्सन्तर को दण्डित करने को कहा, तब राजा संजय ने वेस्सन्तर को वनवास का आदेश दिया।

 

वेस्सन्तर के लाख मना करने के बावजूद भी उसकी पत्नी मद्दी भी पति का साथ देने के लिए वनवास को तैयार हुई। अंतत: वेस्सन्तर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ चार घोड़ों के एक रथ पर सवार वन को प्रस्थान कर गया।

 

मार्ग में उसे चार लोभी ब्राह्मण मिले। उन्होंने वेस्सन्तर से उनके चारों घोड़ों को मांग लिया। वेस्सन्तर ने उन्हें भी अपने घोड़े सहर्ष दे दिये। जब वह स्वयं ही रथ खींचन की तैयारी करने लगा तब उसकी सहायता के लिए चार यक्ष लाल हिरणों के रुप में वहाँ पहुँचे और वेस्सन्तर के रथ को खींचते हुए जंगल की ओर बढ़े। तभी मार्ग में एक ब्राह्मण भिक्षु प्रकट हुआ । उसने वेस्सन्तर से उसका रथ मांग लिया। दान में रथ देकर वेस्सन्तर और मद्दी गोद में बच्चों को लिए पैदल ही वन की ओर बढ़ते रहे। कहा जाता है कि धूप की तपिश से उन्हें बचाने के लिए बादल उनके ऊपर छत्र बन कर चलता रहा। जब उन्हें भूख लगती तो फलों से लदे पेड़ झुक-झुक कर उन्हें फल प्रदान करते। जब उन्हें प्यास लगती तो कमल के जलाशय उनके सामने स्वत: प्रकट हो उनकी प्यास बुझाते। अंतत: उनकी यात्रा की परिसमाप्ति बंकगिरी के वन पहुँच कर हुई जहाँ विश्वकर्मा ने उनके लिए एक कुटिया का निर्माण कर रखा था।

 

वेस्सन्तर का प्रताप इतना महान् था कि कोई भी जंगली या हिंस्त्र जानवर उनकी कुटिया के आस-पास फटकता भी नहीं था। इस तरह वन में विहार करते, उनके चार महीने खुशी-खुशी निकल गये।

 

एक दिन जब मद्दी भोजन इकट्ठा करने वन में कहीं दूर चली गयी थी और कुटिया के बाहर बच्चे खेल रहे थे तभी जूजका नाम का एक दरिद्र और वृद्ध ब्राह्मण वेस्सन्तर की कुटिया के पास पहुँचा।

 

उस वृद्ध को जवान पत्नी का घर के काम-काज आदि कराने के लिए दासों की आवश्यकता थी। अत: उसने वृद्ध जूजका को वेस्सन्तर के बच्चों को दान में लाने के लिए भेजा था; क्योंकि वेस्सन्तर के त्याग की चर्चा सर्वव्याप्त थी। जूजका ने वेस्सन्तर से उसके दोनों बच्चों को दान में मांग लिया और लताओं से उन बच्चों के हाथ-पैर बाँध बड़ी बेदर्दी से मारता-पीटता और घसीटता अपने मार्ग पर बढ़ गया।

 

देर शाम को जब मद्दी लौटी तब बच्चों को कुटिया में न पाकर रोती-पिटती उसने वेस्सन्तर से उनका पता पूछा किन्तु उत्तर में वेस्सन्तर मौन ही रहा। हाँ, दूसरे दिन वेस्सन्तर ने जूजका ब्राह्मण द्वारा बच्चों के ले जाने की सूचना दी क्योंकि उस समय तक मद्दी बच्चों के वियोग को सहन करने में सक्षम हो चुकी थी। मद्दी ने भी तब पति की दान-शीलता की प्रशंसा की।

 

वेस्सन्तर के इस महान् त्याग से पृथ्वी प्रकंपित हो उठी और साथ ही सिनेरु पर्वत भी हिल उठा जिससे सक्क (शक्र या इंद्र) भी चौंक उठे; और एक संयासी का भेष बना वेस्सन्तर की दान-परायणता की परीक्षा लेने उनकी कुटिया पर आ धमके। वहाँ उन्होंने वेस्सन्तर से उनकी पत्नी को दान में मांगा। वेस्सन्तर ने मद्दी को भी दान में दे दिया। मद्दी के हृदय से भी आह या क्रोध का कोई शब्द नहीं फूटा।

 

सक्क के लिए भी वेस्सन्तर का त्याग पूज्य था। उन्होंने तत्काल ही अपना असली रुप धारण कर, उनकी पारिवारिक खुशी लौटाने का वर प्रदान किया और दान-परायण पति-पत्नी से विदा ले अंतर्धान हो गये।

 

उस समय कलिंग को जाने वाला जूजका लहु-लुहान बच्चों को लेकर रास्ता भूल जेतुन्तर जा पहुँचा। जोतुन्तर के सिपाहियों ने जुजका को शंकित होकर देखा क्योंकि वह किसी भी तरह से बच्चों का अभिभावक या सम्बन्धी प्रतीत नहीं होता था। अत: वे उसे बन्दी बनाकर राजा के पास ले गये। राजा संजय ने तत्काल अपने खून को पहचान लिया और अपने पौत्रों को मुँह मांगे दामों में खरीद लिया। जूजका की किस्मत में आकस्मिक धनागमन का भोग नहीं लिखा था क्योंकि दूसरे दिन ही जरुरत से बहुत ज्यादा भोजन करने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।

 

उसी दिन वह सफेद हाथी भी कलिंग छोड़ वापिस जेतुन्तर आ पहुँचा। राजा अपने सिपाहियों को साथ वंकगिरी जा युवराज वेस्सन्तर और मद्दी को वापिस अपने राज्य ले आया।