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The Illustrated Jataka & Other Stories of the Buddha by C. B. Varma Introduction | Glossary | Bibliography

063 – सुतसोम-कथा

कौरवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में सुतसोम नाम का एक दान-शील-सम्पन्न एक दिव्य राजकुमार का जन्म हुआ।

बड़ा होने पर एक बार वह राजकुमार अपनी पत्नियों और अनुचरों के साथ एक बाग में बैठा संगीत का आनंद ले रहा था। तभी नंद नामक एक ॠषि उसके पास पहुँचे। ॠषि को सादर बैठाकर वह उनसे उपदेश ग्रहण करने लगा। तभी कलमसपदास नामत एक वहशी व्यक्ति वहाँ पहुँचा। वह एक सिंहनी और एक राजा का पुत्र था। और मानव-माँस उसे बहुत प्रिय था। उसने एक यक्ष को प्रसन्न करने के लिए सौ राजकुमारों की बलि चढ़ाने की भी प्रतिज्ञा की थी। अत: वह सुतसोम को भी पकड़ कर ले गया।

सुतसोम को जब उसने कारागृह में रोते देखा तो उसने उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा, ” मृत्यु से सभी भयभीत हो जाते हैं !” सुतसोम ने तब उसे बताया कि वह मृत्यु से भयभीत नहीं था ; बल्कि एक श्रेष्ठ ॠषि के वचनों से वंचित रहने के कारण दु:खी था। सुतसोम ने तब कलमसपदास से दो दिनों मांगा ताकि वह ॠषि नन्द के पूर्ण उपदेश ग्रहण कर सके। सिंह-पुरुष ने उसे दो दिन का समय दे दिया।

ॠषि के उपदेश सुनने के बाद सुतसोम जब कलमसपदास के पास वापिस लौट आया तो कलमसपदास चकित रह गया और उसपर प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे वर मांगने को कहा। सुतसोम ने तब उससे कहा कि जो व्यक्ति स्वयं अपनी आकांक्षाओं और तृष्णा का दास हो, वह दूसरों को कैसी मुक्ति और कैसा वरदान दे सकता है ?”

सुतसोम के वचन सुनकर सिंह-पुरुष की आँखें खुल गयी और उसका सोया हुआ मनुष्यत्व भी जाग गया। उसने सुतसोम को छोड़ दिया और उसके साथ मिलकर अपने पिता सुदास का राज्य भी फिर से वापिस प्राप्त कर लिया। उसने फिर कभी मानव-मांस का भक्षण नहीं किया।