राजेंद्र श्याम – मध्य प्रदेश के गोंड कलाकार

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राजेंद्र श्‍याम अपने कैनवासों पर विस्‍तृत रूप से गोंडी कहानियों का चित्रण करते हैं। उनकी पेंटिंग बहुत ही सघन हैं और इसमें सही समरूपता है। उनका मनपसन्द रंग है भूरा और उसके सारे शेड्स। उन्‍होंने बांदा, अनाज के ढेर को बांधने के लिए इस्तेमाल होने वाले रस्से को ही अपनी कला के विषय के रूप में अपनाया है। ‘‘बांदा से ही फसलों को बांधा जाता है जिससे  कृषक उन्‍हें बेच सकें और अपने परिवार का पोषण कर सकें।’’ आभारवश, राजेंद्र इस प्रतीक का उपयोग अपने हस्‍ताक्षर के रूप में करते हैं।

बचपन में, राजेंद्र का डिगना तथा भित्ति चित्र के प्रति आकर्षण था। अपनी बहनों तथा माता, बेरा बाई के साथ वह गोबर से दीवारों की लीपापोती करते थे तथा डिगना के प्रतिरूपों तथा फूलों की डिजाइनों से उनकी सजावट करते थे। सजावट के प्रति उनकी चाहत के लिए प्राय: ही  उन्हें ताना सुनाया जाता था-क्‍योंकि इसे ‘‘लड़कियों का कार्य’’ समझा जाता था। किंतु राजेंद्र को सजावट बहुत पसंद थी और उन्होंने यह करने में नहीं गुरेज नहीं की। राजेंद्र बड़े ही चाव से अपने बड़े भाई के स्नेह को याद करते हैं जिन्‍होंने उन्‍हें कभी भी नहीं डांटा। वह सदा उन्‍हें यह कहते हुए पढ़ने के लिए प्रोत्‍साहित करते थे; ‘‘भविष्‍य में तुम्‍हें अच्‍छा काम मिलेगा यदि तुम अब अपनी पढ़ाई पर ध्‍यान दोगे।’’ जब राजेंद्र कक्षा X में थे तो उन्होंने अपने भाई को खो दिया और वह अपनी पढ़ाई को जारी नहीं रख सके क्‍योंकि उन्‍हें अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कार्य करना पड़ता था।

वह और उनके साथी ईंधन की लकड़ी लाने के लिए जंगल में बहुत दूर तक जाते थे। कभी-कभी वह अन्‍य गांवों के लोगों के साथ रात्रि बिताते थे जब वे जंगली जानवरों को दूर रखने के लिए जलाई जाने वाली आग के चारों ओर बैठते थे और समूह का एक वृद्ध व्‍यक्ति उन्‍हें कहानियां सुनाता था। उनकी कहानियां इतनी दिलचस्‍प होती थीं कि वे कभी-कभी मंत्रमुग्‍ध होकर कहानियां सुनते हुए रात भर जगे रहते थे।

अपने विवाह के बाद राजेंद्र काम की खोज में भोपाल गए। कुछ समय तक वह अपने चाचा जंगढ श्‍याम के लिए कार्य करते थे। तब उन्‍होंने इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय में कार्यभार ग्रहण करने के बाद श्रमिक के रूप में कार्य किया जहां वह दिन के समय मैदानों को साफ करते थे, लेपते थे तथा रखवाली करते थे और फिर पेंट करने के लिए शाम में घर चले जाते थे। जब वह कार्य कर रहे होते थे तो उनकी पत्‍नी सुशीला उनके चित्रों में रंग भरा करती थीं। पैसे की तंगी की परवाह किए बिना वे कैनवास और पेंट के लिए पैसा अर्जित कर लेते थे जो उनके लिए भोजन और पानी की तरह ही अनिवार्य थे।

एक दिन राजेंद्र ने आईजीआरएमएस के शंपा शाह को अपनी चित्रकारी दिखाई जो इतनी प्रभावित हुईं कि उन्‍होंने कहा ‘‘आपके लिए बेहतर है कि आप नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक रूप से पेंटिंग अपना लें।’’ 2007 में ही वह उनकी सलाह पर कार्य करने में समर्थ हो सके। अब राजेंद्र एक पूर्णरूपेण कलाकार हैं, जो ग्रामीण जीवन तथा जंगल में काफी दूर, आग के चारों ओर बैठकर वृद्ध कथाकार से सुनी गई मनमोहक कहानियों के बारे में चित्रकारी करने के लिए कृत संकल्‍प हैं।