The Illustrated Jataka : Other Stories of the Buddha by C.B. Varma
011 -  The Story of the Great Ape / महान मर्कट

हिमवंत के निर्जन वन में कभी एक महान मर्कट रहा करता था। शीलवान्, दयावान और एकांतप्रिय वह सदा ही फल-फूल और सात्विक आहार के साथ अपना जीवन- यापन करता था।

एक दिन एक चरवाहा अपने जानवरों की खोज में रास्ता भूल उसी वन में भटक गया। भूख प्यास से व्याकुल जब उसने एक पेड़ की छाँव में विश्राम करना आरम्भ किया तभी उसकी नजर फलों से लदे एक तिंदुक के पेड़ पर पड़ी। पलक झपकते ही वह उस पेड़ पर जा चढ़ा। भूख की तड़प में उसने यह भी नहीं देखा कि उस पेड़ की एक जड़ पथरीली पहाड़ी की एक पतली दरार से निकलती थी और उसके निकट एक झरना बहता था। शीघ्र ही वह रसीलों फलों से लदी एक शाखा पर पहुँच गया मगर वह शाखा उसके बोझ को संभाल न सकी और टूट कर बहते झरने में जा गिरी। चरवाहा भी उसी प्रपात में जा गिरा। बहते पानी के साथ फिर वह एक ऐसे खड्ड में जा फँसा, जहाँ की चिकनी चट्टानों को पकड़ कर उसका या किसी भी आदमी का बाहर आ पाना असंभव था।

मृत्यु के भय से निकलती उस आदमी की चीखें उस निर्जन वन में गूंजने लगी। आदमी तो वहाँ कोई था भी नहीं जो उसकी पुकार सुन सके। हाँ, उसी वन में रहने वाले उस मर्कट ने उसके क्रन्दन को अवश्य सुना। दौड़ता हुआ वह शीघ्र ही वहाँ पहुँचा और आनन-फानन में कूदता हुआ उस खड्ड में पहुँच कर उस आदमी को खींचता हुआ बड़ी मुश्किल से झरने के बाहर ले आया। आदमी के बोझ से उसके अंग-प्रत्यंग में असीम पीड़ा हो रही थी। वह बेहोशी की हालत में था और विश्राम के लिए सोना चाहता था। इसी उद्देश्य से उसने आदमी को अपने पास बैठ रखवाली करने को कहा, क्योंकि उस वन में अनेक हिंस्त्र पशु भी विचरते थे।

जैसे ही मर्कट गहरी नींद में सोया, वह आदमी उठकर एक बड़ा-सा पत्थर उठा लाया क्योंकि वह सोच रहा था कि उस मर्कट के मांस से ही वह अपना निर्वाह कर सकेगा। ऐसा सोचकर उसने उस पत्थर को मर्कट के ऊपर पटक दिया। पत्थर मर्कट पर गिरा तो जरुर मगर इतनी क्षति नहीं पहुँचा सका कि तत्काल हो उसकी मृत्यु हो सके। असह्य पीड़ा से कराहते मर्कट ने जब अपनी आँखें खोली और अपने ऊपर गिरे पत्थर और उस आदमी की भंगिमाओं को देखा तो उसने क्षण में ही सारी बातें जान ली। आवाज में उसने उस आदमी को यह कहते हुए धिक्कारा : 

"ओ आदमी ! जाता था तू दूसरी दुनिया को; आ गया मगर वापिस उस काल के गाल से; अब एक गर्त से निकल; तू है अब दूसरे गर्त गिरा; होता है जो और भी भयंकर; धिक्कार है तुम्हारे उस अज्ञान को; जिसने है दिखलाया तुम्हें यह क्रूरता और पाप भरा मार्ग; है वह सिर्फ तुम्हारा मोड़; जिसने दिखलाया है तुम्हें; झूठी आशाओं के छलावे को; नहीं देते मेरे घाव मुझे उतनी पीड़ा जितना है यह विचार- कि मेरे ही कारण अब तुम गिरे हो ऐसी गर्त में निकाल नहीं सकता तुम्हें वहाँ से मैं या कोई कभी।" घायल महान् मर्कट ने फिर भी उस व्यक्ति को उस वन से बाहर निकाल दिया।

कालान्तर में वह चरवाहा कुष्ठ रोग का शिकार हुआ। तब उसके सगे संबन्धी व गाँव वाले घर और गाँव से निर्वासित कर दिये कही और शरण न वह फिर से उसी वन में निवास करने लगा। उसके कर्मों की परिणति कुष्ठ रोग में हो चुकी थी, जिससे उसका शरीर गल रहा था; और पश्चाताप की अग्नि में उसका मन ! काश ! उसने वह कुकर्म न किया होता ! 

Story of Great Ape

O nce, the Bodhisatta was born as an ape and lived alone like an ascetic in a Himalayan forest. Yet, unlike other monkeys he was kind and virtuous; and survived on leaves and fruits of the forest trees.

The great ape advises the man to safeguard him before going to sleep.

The man holding a rock to kill the benefactor ape  

One day, a shepherd in search of his stray cattle lost his way and reached that forest. Exhausted with hunger, thirst, heat and toil he sat on the foot of a tree. Soon, he noticed a tinduka tree ( diosperos embryopteris ) laden with fruits. The hungry shepherd then in no time climbed the tree. But he overlooked the roots of the tree, which had grown out of a sloping cliff over a water-fall. When he reached a branch laden with ripe tindukas to pluck them, the branch could not sustain his weight and broke off and he fell down into a pit.   Luckily, his bones were not broken. Yet, it was impossible for him to find an exit.

As a matter of chance, the great ape saw the man in his distress. Feeling pity for him he rescued him by putting great exertions. To ease himself the exhausted monkey wanted to have some rest. So, he asked the man to guard him before he could take a nap. But the ungrateful man decided to kill the innocuous monkey in his sleep to obtain his meat for his survival in the lost forest. So he picked up a large piece of stone and dropped it on the head of the sleeping monkey. The stone somehow slipped and missed the target. Nonetheless, it hurt the monkey. When the ape opened his eyes in agony and read the guilt written in the face of the man, he uttered:

Brought back from the mouth of Death

When reaching the other world.

Saved from one precipice

Thou hast now fallen on the worse.

Fie upon ignorance that spurs one to such vice and cruelty

And leads one to miseries

As it is the infatuation

Which deludes one to fall on the false hope of prosperity.

 

The pain of this wound does not aggrieve me much

As the thought

That on account of me

You have plunged into such evil

From where I or else could ever rescue thee!

Nonetheless, the compassionate monkey escorted him to the fringe of the forest so that he could go back to his own fellow beings.

By and by, the mans evil manifested in leprosy. His skin thawed and he was expelled from the society. Thus, excommunicated from the world of his own fellow beings he started living in a dense forest, where no man dared to tread.

One day, the king of Varanasi detected him on his hunting expedition in the forest and mistook him to be a ghost, because his body had deformed. When he came closer he discovered to his shock that the ghost-looking-being was none other than a man. Further, he was shocked when he heard the pathetic story of that man; who was still remorseful for his ungratefulness to the great ape. His miseries had no bound!!

Truly, he repented. But then it was too late. Indeed, no one can escape the fruit of his or her own karma !

 

Vevajatiyakapi Jataka Jataka Pali No. 516; Jataka Mala   No.24

 


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