The Illustrated Jataka : Other Stories of the Buddha by C.B. Varma
013 -  Story of the Monkey King / कपिराज

कभी एक राजा के बगीचे में अनेक बंन्दर रहते थे और बड़ी स्वच्छंदता से वहाँ कूद-फांद करते थे।

एक दिन उस बगीचे के द्वार के नीचे राज-पुरोहित गु रहा था। उस द्वार के ऊपर एक शरारती बंदर बैठा था। जैसे ही राज-पुरोहित उसके नीचे आया उसने उसके गंजे सर पर विष्ठा कर दि। अचम्भित हो पुरोहित ने चारों तरफ देखा, फिर खुले मुख से उसने ऊपर को देखा। बंदर ने तब उसके खुले मुख में ही मलोत्सर्ग कर दिया। क्रुद्ध पुरोहित ने जब उन्हें सबक सिखलाने की बात कही तो वहाँ बैठे सभी बंदरों ने दाँत किटकिटा कर उसका और भी मखौल उड़ाया।

कपिराज को जब यह बात मालूम हुई कि राजपुरोहित वहाँ रहने वाले वानरों से नाराज है, तो उसने तत्काल ही अपने साथियों को बगीचा छोड़ कहीं ओर कूच कर जाने ही सलाह दी। सभी बंदरों ने तो उसकी बात मान ली। और तत्काल वहाँ से प्रस्थान कर गये। मगर एक दम्भी मर्कट और उसके पाँच मित्रों ने कपिराज की सलाह को नहीं माना और वहीं रहते रहे।

कुछ ही दिनों के बाद राजा की एक दासी ने प्रासाद के रसोई घर के बाहर गीले चावन को सूखने के लिए डाले। एक भेड़ की उस पर नज़र पड़ी और वह चावल खाने को लपका। दासी ने जब भेड़ को चावल खाते देखा तो उसने अंगीठी से निकाल एक जलती लकड़ी से भेड़ को मारा, जिससे भेड़ के रोम जलने लगे। जलता भेड़ दौड़ता हुआ हाथी के अस्तबल पर पहुँचा, जिससे अस्तबल में आग लग गयी और अनेक हाथी जल गये।

राजा ने हाथियों के उपचार के लिए एक सभा बुलायी जिसमें राज-पुरोहित प्रमुख था। पुरोहित ने राजा को बताया कि बंदरों की चर्बी हाथियों के घाव के लिए कारगर मलहम है। फिर क्या था ! राजा ने अपने सिपाहियों को तुरन्त बंदरों की चर्बी लाने की आज्ञा दी। सिपाही बगीचे में गये और पलक झपकते उस दम्भी बंदर और उसके पाँच सौ साथियों को मार गिराया।

महाकपि और उसके साथी जो किसी अन्य बगीचे में रहते थे शेष जीवन का आनंद उठाते रहे।

The monkeys in the kings palace  

O nce in a royal orchard of a king there lived many monkeys.   One day, when the chief priest was passing through the royal park after having taken his bath, a naughty monkey sitting on the arch of the gateway, pooed on his head.   Baffled the priest looked all over; and when turned his eyes upward with the gaping mouth the monkey then voided in his mouth.   

Infuriated, the priest swore vengeance on all the monkeys. And many monkeys in turn mimicked him in reply. But the king of the monkeys was alarmed. He took the swearings of the chaplain rather seriously. So, he called all his followers and counselled them to leave the royal park at once. Many monkeys followed him but for one haughty monkey and his five hundred followers.

By and by, one day, a female slave of the royal palace was drying some rice in the sun. A sheep then slipped into the place to eat the rice. Angry at the sheep, the slave girl hurled a burning stick on the sheep, which burnt its fur. It then ran to the elephants stall and the stall too, caught fire and inflicted burnt injuries on several royal elephants.

Now, looking for the most efficacious remedial measure the king summoned the chaplain and sought his advice. The chaplain, who was the sworn enemy of the monkeys tried to encash upon the opportunity for taking revenge against the monkeys. He, therefore, advised the king that the application of the monkey-fats would be the best remedial measure on any burnt-injury on an elephant. The king then ordered the royal archers to kill all the monkeys living in the park and bring their fats.

Thus, all those monkeys, who had ignored the advice of the wise monkey perished.

See Kapi Jataka, Jataka Pali No.404.


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