The Illustrated Jataka : Other Stories of the Buddha by C.B. Varma
017 -  The Monkey Brothers / वानर-बन्धु

हिम-वन में कभी दो वानर-बन्धु रहते थे। बड़े का नाम नंदक और छोटे का नाम चुल्लनंदक था। वे दोनों वहाँ रहने वाले अस्सी हज़ार वानरों के मुखिया थे।

एक बार वे दोनों वानर-बन्धु अपने साथियों के साथ कूदते-फाँदते किसी दूरस्थ वन में चले गये ; और अपने साथियों के साथ नये-नये कि के फलों का आनन्द लेते रहे। उनकी बूढ़ी माँ भी थी, जो वृद्धावस्था में कूद-फाँद नहीं कर सकती थी। इसलिए वह हिमवा के वन में ही रहा करती थी। दोनों ही वानर-बन्धु अपनी माता का भरपूर ध्यान भी रखते थे। अत: वे नये वन से भी अपने अनुचरों के हाथों अपनी माता के लिए फलादि भिजवाते रहे।

कुछ दिनों के बाद जब दोनों वानर-बन्धु हिमवा स्थित अपने घर पहुँचे तो उन्होंने अपनी माता को कंकाल के रुप में पाया ; वह बिल्कुल हड्डी की ठठरी बन चुकी थी। उसने कई दिनों से कुछ भी नहीं खाया था। उनके द्वारा भेजे गये फल भी उस बूढ़ी और रुग्ण माता तक नहीं पहुँचा थे, क्योंकि साथी बंदरों ने वे फल रास्ते में ही चट कर लिए थे।

अपनी माता की दयनीय दशा को देखकर उन दोनों बन्दरों ने शेष बन्दरों से दूर रहना उचित समझा और अपनी माता के साथ एक नये स्थान पर डेरा डाला।

एक दिन उस वन में एक शिकारी आया। उसे देखते ही दोनों वानर पेड़ के घने पत्तों के पीछे छुप गये। किन्तु उनकी वृद्धा माता जिसे आँखों से भी कम दीखता था उस व्याध को नहीं देख सकी।

व्याध एक ब्राह्मण था जो कभी तक्षशिला के विश्वविख्यात गुरु परासरीय का छात्र रह चुका था ; किंतु अपने अवगुणों के कारण वहाँ से निकाला जा चुका था। जैसे ही व्याध की दृष्टि बूढ़ी बंदरिया पर पड़ी उसने उसपर तीर से मारना चाहा। अपनी माता के प्राणों की रक्षा हेतू नंदक कूदता हुआ व्याध के सामने "आ खड़ा हुआ और कहा, हे व्याध ! तुम मेरे प्राण ले लो मगर मेरी माता का संहार न करो।' व्याध ने नंदक की बात मान ली और एक ही तीर में उसे मार डाला। दुष्ट व्याध ने नंदक को दिये गये वचन का उल्लंघन करते हुए फिर से उस बूढ़ी मर्कटी पर तीर का निशाना लगाना चाहा। इस बार छोटा भाई चुल्लनंदक कूदता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसने भी अपने भाई की तरह व्याध से कहा, हे व्याध ! तू मेरे प्राण ले ले, मगर मेरी माता को न मार।" व्याध ने कहा, "ठीक है ऐसा ही करुंगा" और देखते ही देखते उसने उसी तीर से चुल्लनंदक को भी मार डाला। फिर अपने वचन का पालन न करते हुए उसने अपने तरकश से एक और तीर निकाला और बूढ़ी मर्कटी को भी भेद डाला।

तीन बन्दरों का शिकार कर वह व्याध बहुत प्रसन्न था, क्योंकि उसने एक ही दिन में उनका शिकार किया था। यथाशीघ्र वह अपने घर पहुँच कर अपनी पत्नी और बच्चों को अपना पराक्रम दिखाना चाहता था। जैसे ही वह अपने घर के करीब पहुँच रहा था, उसे सूचना मिली कि एक वज्रपात से उसका घर ध्वस्त हो चुका था और उसके परिवार वाले भी मारे जा चुके थे। अपने परिजनों के वियोग को उसके मन ने नहीं स्वीकारा। फिर भी विस्मय और उन्माद में दौड़ता हुआ वह अपने तीर, शिकार व अपने कपड़ों तक छोड़ जैसे ही अपने जले हुए घर में प्रवेश किया तो एक जली हुई बौंस भरभरा कर गिर पड़ी और उसके साथ उसके घर के छत का बड़ा भाग ठीक उसके सिर पर गिरा और तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी।

बाद में कुछ लोगों ने उपर्युक्त घटना-चक्र का आखों-खा वृतांत सुनाया। उनका कहना था कि ज्योंही ही व्याध ने अपने घर में प्रवेश किया धरती फट गयी और उसमें से आग की भयंकर लपटें उठीं जिस में वह स्वाहा हो गया। हाँ, मरते वक्त उसने तक्षशिला के गुरु की यह बात अवश्य दुहरायी थी:-

अब आती है याद मुझे
गुरुदेव की वह शिक्षा
बनो श्रम्रादी 
और करो नहीं कभी ऐसा
जिससे पश्चाताप की अग्नि में
पड़े तुम्हें जलना। 

 

O nce, the Bodhisatta was born in the Himalayan region as a monkey and was called Nandaka. His younger brother was called Chullanandaka. They headed a band of eighty-four thousand monkeys. They also had a blind old mother to look after.  

Once, enjoying the forest fruits they went far away from their abode. So they kept sending food to their mother through their friends, who, however, seldom delivered them to her. Tormented with hunger the mother virtually starved and became emaciated and sickly. Upon return, the two monkeys were shocked to see their mother so sickly. Further, when they learnt that the fruits, which they had sent had seldom reached her, they left all their companions and retired on a banyan tree with their mother.  

One day, a wicked brahmin, who was a drop out of the famous Taxila school, and had deserted the most reputed teacher Parasariya of his time to take to the profession of hunting and killing, entered the forest. Seeing the hunter approaching, the two monkeys quickly hid behind the leaves. But the mother monkey was exposed. So, to kill her when he lifted his bow, Nandaka, the elder brother, jumped before him and requested him to spare the life of the mother and kill him. The hunter agreed and killed him.

 

But the hunter did not keep his promise and again aimed at the mother monkey. This time Chullanandiya, the younger brother jumped before the hunter and prayed him to spare the life of his mother and kill him in her place. The hunter again agreed to do accordingly. So, he killed the younger brother. But then he did not spare the mother monkey and broke his promise again. He took out the third arrow and shot the blind old monkey, and picked up all the three dead bodies and happily carried them home. All through, on his way he mused to please his family by his valour for having killed three monkeys in one day.

When he was about to reach home, he heard the news that his house was hit by a thunderbolt and all his family members had perished there.   The loss of his family made him delirious and lunatic. He in frenzy threw out his garments and ran towards his house with his outstretched hands to hold his children and wife. When he reached the house and looked for his family members in the debris, the burnt bamboos of the house crumbled and fell on his head. It is said that, as is witnessed by the people, he was lost in the smoke and a fire sprang from the hell with the yawning of the earth and swallowed him. The eye-witnesses, however, also heard the dying man recalling the lessons of his good old Taxila guru when he had made the following utterances:

Now I remember the lessons of my teacher,

And now I understand what he meant

When he taught me to be careful;

And do nothing to repent.

[Nandiya is identified with Bodhisatta; Parasariya with Sariputta; mother-monkey with Gotami; Chullanandiya with Ananda; and Devadatta with the hunter.]

 

See Chullanandiya Jataka Jataka Pali No.222.

 


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